छत्तीसगढ़ में शैव धर्म का प्रभाव :
छत्तीसगढ़ क्षेत्र आदिकाल से ही सांस्कृतिक एवं धार्मिक परंपरा का प्रमुख केंद्र रहा है। शैव धर्म छत्तीसगढ़ में सर्वाधिक प्राचीन धर्म माना जाता है। इस अंचल में शैव धर्म सर्वाधिक लोकप्रिय तथा व्यापक स्वरूप में दिखाई देता है। किसी भी धर्म को प्रगति प्रदान करने और जनप्रिय बनाने में तत्कालीन शासकों की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण होती है। छत्तीसगढ़ में सर्वाधिक समय तक शासन करने वाले कल्चुरी वंश का शैव धर्मोपासक होना इस क्षेत्र में शैव धर्म के प्रचार के लिए उत्तरदायी माना जा सकता है। यद्यपि शिल्पीय अवशेष उपलब्ध नहीं है, फिर भी यह एक अनुमानित तथ्य है कि इन शासकों ने अपने इष्ट देव (शिव) के लिए मंदिरों का भी निर्माण कराया होगा। छत्तीसगढ़ क्षेत्र में शैव धर्म पर्याप्त लोकप्रिय था। इस क्षेत्र में शैव धर्म का परिचय सिक्कों, अभिलेखों एवं देवालयों में मिलता है।
नलवंशीय बस्तर के शासकों द्वारा अपने सिक्कों पर नंदी का अंकन इस मत का द्योतक है कि वे भी शैव धर्म के अनुयायी रहे हैं, इसके उपरांत पांडुवंशीय शासकों ने शैव धर्म के प्रचार प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
आरंभिक पाण्डुवंश शासक वैष्णव मतानुयायी थे। उनकी उपाधियां परम भागवत हुआ करती थी। ई. 595 में सिंहासनरूढ़ शासक महाशिवगुप्त बालार्जुन ने स्वयं को परम माहेश्वर की उपाधि से विभूषित करते हुए शैव धर्म को अपनाया। इस शासक के नाम से भी इसके शैव होने का आभास होता है। विभिन्न अभिलेख शिलालेखों में अनेक शिवमंदिरों के निर्माण कराए जाने का उल्लेख मिलता है, जैसे – मल्हार से प्राप्त महाशिवगुप्त के ताम्रपत्र के द्वारा कोसल में कपालेश्वर के मंदिर का निर्माण शिवनंदी द्वारा कराए जाने का उल्लेख मिलता है। महाशिवगुप्त के समय के सैलकपाट शिलालेख से भी शिव मंदिर के निर्माण का विवरण मिलता है।
कल्चुरी कालीन शैव धर्म :
छत्तीसगढ़ में कल्चुरी काल में शैव धर्म को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। इस राजवंश के शासक शिवभक्त थे जो कि उनके द्वारा नाम के साथ प्रयुक्त विभिन्न उपाधियों से परिलक्षित होता है, यथा – परम माहेश्वर आदि।
अनेक अभिलेखों शिल्पकलाओं में शिव के चंद्रशेखर, उमाशंकर, नटराज, नीलकंठ, अष्टमूर्ति, त्रिपुरान्तक इत्यादि रूपों का उल्लेख मिलता है। सर्वाधिक उमा महेश्वर की प्रतिमा पाई जाती है।
छत्तीसगढ़ के विभिन्न क्षेत्रों में शिव के विभिन्न रूपों का शिल्पांकन प्राप्त होता है। प्राचीन रतनपुर राज्य में स्थित पाली का शिव मंदिर जिसका निर्माण बाणवंशी राजा प्रथम विक्रमादित्य(सन् 870 ई. से 895 ई.) ने कराया था। कल्चुरी शासकों ने अनेक मंदिर का जीर्णोद्धार किया था। मंदिर के कई स्थानों पर श्री जाजल्लदेव की कीर्ति उत्कीर्ण है।