# प्रघटनाशास्त्र, घटना विज्ञान, संवृतिशास्त्र या फेनोमेनोलॉजी क्या है? | What is Phenomenology

Phenomenology :

Phenomenology शब्द फिनोमिनन (Phenomenon) यूनानी भाषा से लिया गया है। इसका अर्थ है प्रकट दर्शन। शाब्दिक दृष्टि से फेनोमेनोलॉजी का अर्थ है फिनोमिना का अध्ययन करना। हमारी चेतना के सम्पर्क में आने पर वस्तु का जो स्वरूप अनुभव में आता है उसे फिनोमिना कहते हैं। वस्तु जैसी चेतना में दिखाई देती है, उसे उसी अर्थ में लेना ही फिनोमिना हैफिनोमिनोलॉजी के विकास की दो धाराएँ हैं। एक धारा यूरोप की है इसके प्रणेता एडमंड हस्सर्ल एवं अल्फेड शूट्ज हैं, दूसरी धारा अमेरिका में विकसित हुई जिसके प्रणेता जार्ज सान्त्याना हैं, यह दूसरी धारा आगे नहीं बढ़ पाई क्योंकि अमेरिका में उपयोगितावाद ने इसे आगे बढ़ने का अवसर ही नहीं दिया।

समाज विज्ञान विश्वकोष के अनुसार यह दर्शनशास्त्र की एक विधि है जिसकी शुरूआत व्यक्ति से होती है और व्यक्ति को स्वयं के अनुभव से जो प्राप्त होता है उसे इसमें सम्मिलित किया जाता है। स्वयं के अनुभव से बाहर जो भी पूर्व मान्यताएं और दार्शनिक बोध होते हैं वो सब इसके क्षेत्र से बाहर होते हैं। फेनोमेनोलॉजी का सम्बन्ध अथवा उद्देश्य विश्व की वास्तविकता को समझने से है इसके लिए इससे सम्बद्ध विद्वान केवल व्यक्ति के अनुभव को एकमात्र तरीके के रूप में स्वीकृति प्रदान करते हैं। कोई भी मनुष्य प्रत्यक्ष रूप से समाज को जानने अथवा समझने में मनुष्य की चेतना और उसके मस्तिष्क की क्रियाशीलता महत्वपूर्ण है। यह अमूर्तता को नहीं बल्कि वास्तविकता के अवलोकन को बल देती है।

एडमंड हस्सर्ल की फेनोमेनोलॉजी (Edmund Husserl’s Phenomenology) :

जर्मन विद्वान हस्सल का जीवन काल 1859 से 1938 तक है। इन्होंने फिनोमिनोलॉजी शब्द का प्रयोग अपनी पुस्तक “आइडियाज : जनरल इन्ट्रोडक्सन टू प्योर फिनोमिनोलॉजी (Ideas : general Introduction to pure Phenomenology) में 1913 में किया था। फिनोमिनोलॉजी अथवा घटना विज्ञान विधि में समस्त पूर्व मान्यताओं एवं उपकल्पनाओं को निरस्त करके अवलोकन विवरण तथा वर्गीकरण की पद्धति के प्रयोग द्वारा स्वभाविक संरचनाओं एवं सम्बन्धों को प्रकाशित करने पर बल दिया जाता है।

फिनोमिनोलॉजी अर्थात् घटना विज्ञान के क्षेत्र में हस्सल के योगदानों को टर्नर ने चार भागों में बाँट कर विचार किया है।

1. भौतिक दार्शनिक द्विविधा

समस्त खोज उत्कंठा के मूल में होता है कि यथार्थ क्या है? विश्व में वस्तुतः किसका अस्तित्व है? अस्तित्ववान को कैसे जाना जाए। हस्सल की धारणा है कि मानव दुनिया सबके बारे में अपने अनुभव से जानता है बाह्य जगत के बारे में विचार इन्द्रियों द्वारा ग्रहण किया जाता है। चेतना की प्रक्रिया कैसे कार्य करती है एवं कैसे मनुष्य की गतिविधियों को प्रभावित करती है। यही घटना विज्ञान का केन्द्रीय विषय है।

2. चेतना का गुण

हस्सर्ल ने प्रारम्भ में जिसे प्राकृतिक या स्वाभाविक दृष्टिकोण की दुनिया कहा है। बाद में उसी के लिए जीवन जगत शब्द का प्रयोग किया है। हस्सर्ल ने इस बात पर बल दिया है कि मानव प्राणी तथ्य के रूप में स्वीकृति दुनिया में जीते हैं जो उनके मानसिक जीवन पर छाई रहती है। मनुष्य इसी दुनिया को अस्तित्ववान समझते हैं। यह दुनिया वस्तुतः विचार तथा अन्य चीजों से बनी है। जिसे लोग देखते एवं अनुभव करते हैं। इस जीवन जगत की दो विशेषताएँ हैं –

  1. जीवन जगत को तथ्य के रूप में मान लिया जाता है।
  2. मानव प्राणी इस मान्यता पर कार्य करते है किवे सब समान जगत का अनुभव करते हैं। चूँकि प्रत्येक व्यक्ति अपनी ही चेतना का अनुभव करता है। उसके पास प्रत्यक्ष रूप से किसी मान्यता को सही मानने की क्षमता का अभाव होता है या यह क्षमता अधिक कम होती है। तथापि लोग ऐसी क्रिया करते हैं जैसे वे एक सामान्य जगत का अनुभव कर रहे हों। अतः हस्सर्ल प्रश्न उठाते हैं कि यदि लोगों के जीवन जगत अभी चेतना एवं क्रियाओं की संरचना करता है तो मानव व्यवहार एवं संगठन का वस्तुनिष्ठ अध्ययन है कैसे सम्भव है। इस कारण उन्होंने प्राकृतिक विज्ञानों तथा प्रत्यक्षवाद की आलोचना की है।

3. विज्ञान की समीक्षा

विज्ञान की मान्यता है कि यर्थाथ जगत का अस्तित्व है जो मानव इन्द्रियों एवं चेतना से स्वतंत्र एवं बाह्य है। निरन्तर प्रयास के द्वारा उसकी विशेषताओं को समझा जा सकता है। हस्सर्ल ने विज्ञान के इस दृष्टिकोण को चुनौती दी है। उसके अनुसार यदि किसी वस्तु को केवल चेतना के द्वारा ही ज्ञात किया जा सकता है तथा चेतना की संरचना निहित जीवन जगत द्वारा की जाती है तो बाह्य और यर्थाथ जगत का वस्तुनिष्ठ प्रमापन कैसे सम्वभव है?

4. हस्सर्ल का दार्शनिक विकल्प

हस्सर्ल ने इस प्रश्न का दार्शनिक समाधान प्रस्तुत किया हो उसने चेतना के सार की खोज पर बल दिया है। उसके अनुसार चेतना को समझने की आवश्यकता है। चेतना की सूक्ष्म प्रक्रिया क्या है? अतः गवषक को अपने स्वाभाविक दृष्टिकोण का त्याग करना चाहिए तथा विशुद्ध मस्तिष्क या उन की खोज करनी चाहिए। एक बार यदि हम अपने जीवन जगत को भूल जायें और अपने आस-पास की दुनियाँ को केवल इंन्द्रियों के माध्यम से समझे तो हमें चेतना के अभूर्त तो हमें यर्थाथ को समझने के लिए वास्तविक अन्तर्दृष्टि प्राप्त होगी।

इस प्रकार घटना विज्ञान में हस्सर्ल के योगदान को संक्षेप में इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है।

  1. अपने चेतना की सूक्ष्म प्रक्रिया पर पर्याप्त बल दिया है। जिसने विचारकों को यह सोचने के लिए प्रेरित किया कि व्यक्ति भी मौलिक मानसिक प्रक्रियाएँ किस प्रकार सामाज की जगत की प्रकृति को निर्धारित करती हैं।
  2. जीवन जगत की अवधारणा ने विचारकों को यह सोचने के लिए बाध्य किया कि किस प्रकार व्यक्ति यर्थाथ का बोध करता है तथा किस प्रकार यह यर्थाथ का बोध व्यवस्था की समस्या के समाधान का प्रमुख्य तत्व बन सकता है।
  3. समाज विज्ञान की उसकी समीक्षा ने अन्य घटना विज्ञानियों को इस चिन्ता की ओर प्रवृत्त किया कि भौतिक विज्ञान की तरह समाज विज्ञान का वस्तुनिष्ठ होना सम्भव नहीं हैं।
  4. हस्सर्ल के आमूल परिवर्तनवादी समाधान की विफलता ने घटना वैज्ञानिकों को आश्वस्त कर दिया है कि मानव चेतना तथा सामाजिक यर्थाथ को व्यक्तियों को अन्तक्रिया करते समय देखकर ही समझा जा सकता है।

अल्फेड शूट्ज की फेनोमेनोलॉजी (Alfred Schutz’s Phenomenology) :

अल्फ्रेड शूट्ज का जीवन काल 1899–1959 तक था। शूट्ज मूलतः जर्मन सामाजिक दार्शनिक थे, जो 1938 में नाजियों से परेशान होकर जर्मन छोड़कर पेरिस चले गये और एक वर्ष पेरिस में रहने के बाद 1939 में अमेरिका चले गये। अपने भरण पोषण के लिए दिन में न्यूर्याक सिटी बैंक में कार्य करते एवं शाम को न्यूर्याक स्कूल फॉर सोशल रिसर्च में सामाजिक दर्शन का अध्यापन करते थे। 1952 में वह समाजशास्त्र प्रोफेसर नियुक्त हुए एवं अपनी मृत्यु तक वह इस अध्यापन कार्य से जुड़े रहे।

घटना विज्ञान तथा समाजशास्त्र को साथ लाने के उद्देश्य से शूट्ज ने मैक्स वेबर की अवधारणाओं का विश्लेषण करना प्रारम्भ किया। यह उसने ‘द मीनिंग स्ट्रक्चर ऑफ द सोशल वर्ल्ड’ 1932 में उल्लेख किया जिसका ‘द फेनोमेनोलॉजी ऑफ द सोशल वर्ल्ड’ नाम से 1967 में पुनः प्रकाशन हुआ।

शूट्ज की विचार धारा पर वेबर, हस्सर्ल और मीड़ सभी का प्रभाव पड़ा है। शूट्ज एक ओर मैक्स वेबर की केन्द्रीय अवधारणा, वैषियिक अर्थबोध पर प्रकाश डाला वहीं सामाजिक क्रिया की आवधारणा का भी अत्यधिक प्रयोग किया है। वेबर के वर्सटहेन (सहानुभूति मूलक अन्तः दर्शन की अवधारणा को शूट्ज ने आगे बढ़ाया।) शूट्ज का प्रश्न है कि क्यों और किस प्रकार कर्त्ता किसी स्थिति में समान वैषियिक दशा ग्रहण करते हैं। विश्व के बारे में वे क्यों समान दृष्टिकोण अपनाते हैं।

शूट्ज हस्सर्ल के स्वाभाविक दृष्टिकोण की बात स्वीकार करते हुए जीवन जगत को तथ्य के रूप में मानते हैं। इसी प्रकार यह भी स्वीकार करते हैं कि मनुष्य समान जगत को जीता है एवं अनुभूतियाँ तथा सेवेदयाओं की समान दुनियां जीने की तरह क्रिया करता है। लोगों की चेतना को ज्ञात करने के लिए वह पेपर की (सहानुभूति मूलक अन्तः दर्शन) की विधि का समर्थन करते रहते हैं तथा जीवन जगत के बारे में व्यक्तियों के अनुभवों को अन्तःक्रियारत व्यक्तियों के अवलोकन के द्वारा ही ज्ञात किया जा सकता है, ऐसा मानते हैं। शूट्स के इस दृष्टिकोण ने घटना विज्ञान को दर्शन के क्षेत्र से मुक्त किया तथा समाज वैज्ञानिकों को अन्तर्वषयिकता के निर्माण एवं पालन के अध्ययन करने की प्रेरणा दी। शूट्ज ने इसे सर्वाधिक महत्वपूर्ण सामाजिक यर्थाथ माना है।

शूट्ज का विचार है कि मनुष्य अपने मन में नियमों, सामाजिक रीति रिवाजों, उचित व्यवहार की आवधारणाओं एवं अन्य सूचनाओं को लेकर ही सामाजिक जीवन में चल पाता है। इन नियमों, उपकरणों, अवधारणाओं तथा सूचनाओं के योग को शूट्ज ने व्यक्ति के ज्ञान का भंडार कहा जाता है। यही ज्ञान का भंडार व्यक्ति की क्रियाओं को दिशा देता है।

ज्ञान के भंडार की प्रमुख विशेषताएँ –

  1. मनुष्यों के लिए उनका ‘ज्ञान भंडार‘ वास्तविक है। यह वास्तविक सभी सामाजिक घटनाओं को स्वरूप देती है और नियंत्रण करती है। कर्ता जब दूसरे के साथ व्यवहार करते हैं तो उसी ज्ञान के भंडार का प्रयोग वास्तविकता के रूप में करते हैं।
  2. यह ज्ञान के भंडार का अस्तित्व घटनाओं के यर्थाथ का अर्थबोध प्रदान करता है। इस यर्थाथ को व्यक्ति स्वीकृति मानकर चलता है। कोई भी व्यक्ति चेतना रूप से यह नहीं सोचता है कि उसे अपनी क्रियाओं में इस इस ज्ञान के भंडार को काम लाना है। यह अचेतन रूप से बड़े ही सहज एवं सरल तरीके से उसके व्यवहार को नियमित करता है।
  3. ज्ञान का भंडार सीखा जाता है। यह एक सामान्य सामाजिक सांस्कृतिक जगत में समाजीकरण द्वारा ग्रहण किया जाता है। यहीं व्यवहार आगे चलकर व्यक्ति का अपना हो जाता है।
  4. लोग अनेक मान्यताओं के आधार पर कार्य करतें हैं जो उन्हें परिप्रेक्ष्यों की पारस्परिकता के सृजन की अनुभूति देता है।
  5. ज्ञान के भंडार को समाजीकरण द्वारा प्राप्त करना तथा अन्तः क्रियाओं के लिए ज्ञान के भंडार का आदन प्रदान केवल समान ज्ञान के भंडार के कारण है। अर्थात् सभी कर्त्ताओं के लिए जीव जगत या समाज एक समाज है और इसी कारण क्रियाओं में समान व्यवहार मिलता है। समाज की एकता को बनाये रखने का कारण सभी की एक जीव जगत में सहभागिता है।
  6. समाज में कई भिन्नताएँ एवं विशेषताएँ है। इन सबको अलग-अलग श्रेणियों में रखा जाता है। जैसी श्रेणी होगी वैसा ही व्यक्ति के व्यवहार का अनुकूलन होगा।
The premier library of general studies, current affairs, educational news with also competitive examination related syllabus.

Related Posts

# इतिहास शिक्षण के शिक्षण सूत्र (Itihas Shikshan ke Shikshan Sutra)

शिक्षण कला में दक्षता प्राप्त करने के लिए विषयवस्तु के विस्तृत ज्ञान के साथ-साथ शिक्षण सिद्धान्तों का ज्ञान होना आवश्यक है। शिक्षण सिद्धान्तों के समुचित उपयोग के…

# समाजीकरण के स्तर एवं प्रक्रिया या सोपान (Stages and Process of Socialization)

समाजीकरण का अर्थ एवं परिभाषाएँ : समाजीकरण एक ऐसी सामाजिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा जैविकीय प्राणी में सामाजिक गुणों का विकास होता है तथा वह सामाजिक प्राणी…

# सामाजिक प्रतिमान (आदर्श) का अर्थ, परिभाषा | Samajik Pratiman (Samajik Aadarsh)

सामाजिक प्रतिमान (आदर्श) का अर्थ : मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज में संगठन की स्थिति कायम रहे इस दृष्टि से सामाजिक आदर्शों का निर्माण किया जाता…

# भारतीय संविधान में किए गए संशोधन | Bhartiya Samvidhan Sanshodhan

भारतीय संविधान में किए गए संशोधन : संविधान के भाग 20 (अनुच्छेद 368); भारतीय संविधान में बदलती परिस्थितियों एवं आवश्यकताओं के अनुसार संशोधन करने की शक्ति संसद…

# समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र में अन्तर, संबंध (Difference Of Sociology and Economic in Hindi)

समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र : अर्थशास्त्र के अंतर्गत मनुष्य की आर्थिक क्रियाओं, वस्तुओं एवं सेवाओं के उत्पादन एवं वितरण का अध्ययन किया जाता है। समाजशास्त्र के अंतर्गत मनुष्य…

# छत्तीसगढ़ में शरभपुरीय वंश (Sharabhpuriya Dynasty In Chhattisgarh)

छत्तीसगढ़ में शरभपुरीय वंश : लगभग छठी सदी के पूर्वार्द्ध में दक्षिण कोसल में नए राजवंश का उदय हुआ। शरभ नामक नरेश ने इस क्षेत्र में अपनी…

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

one × 2 =