छत्तीसगढ़ के प्रमुख लोक चित्रकला :
छत्तीसगढ़ में लोक चित्रकला की एक समृद्ध परंपरा प्रचलित है। यहां अनेक प्रकार के चित्रांकन विभिन्न अवसरों या त्यौहारों पर किए जाते हैं। मुख्य रूप से यहां के लोक चित्रकला को दो भागों में बांटा जा सकता है –
- दीवारों की रंगाई
- पूर्वानुकूल चित्र
# दीवारों की रंगाई
छत्तीसगढ़ के ग्रामीण अंचल में अधिकांश घर कच्चे और मिट्टी से बने होते हैं। मिट्टी से निर्मित इन मकानों की दीवारों को छुई मिट्टी से लिपाई करते हैं एवं बाहरी दीवारों को अनेक तरह के ज्यामितीय रूपाकारों से अलंकृत किया जाता है। घर के आंगन पर आकृतियां भी बनाई जाती है जो अधिकांशतः रेखाकृतियां ही होती है।
छत्तीसगढ़ में मकानों के अलंकरण का अधिकांश कार्य स्त्रियां ही करती है और वे इन अलंकरणों के पीछे किसी विशिष्ट आशय को नहीं मानते, दीवारों की सुंदरता ही उनका उद्देश्य प्रतीत होता है।
नए घरों में नोहडोरा (उद्रेखण कला) का भी प्रचलन है। इनमें पशु-पक्षी, देवी-देवताओं आदि के चित्र बनाए जाते हैं।
इन सभी अलंकरणों में लोकमानस के धार्मिक विश्वासों और सामाजिक मान्यताओं का चित्रण होता है। इनको बनाने वाले की कल्पनाशीलता, सृजनशीलता और सौंदर्यबोध से इस परम्परागत लोककला को नवीन अर्थ और अनुपम सौंदर्य बोध मिलता है।
# पूर्वानुकुल लोकचित्र
धार्मिक विश्वासों और मान्यताओं को लोककला का मुख्य आधार माना जा सकता है। विभिन्न धार्मिक मान्यताओं पर आधारित लोककलाएं लोकमानस की धार्मिक आस्थाओं को प्रदर्शित करती है। छत्तीसगढ़ अंचल में विभिन्न पर्वों में अनेक तरह के लोकचित्रों का दर्शन होता है। मुख्यतः ये लोकचित्र सावन में मनाए जाने वाले त्यौहारों और पर्वों में अधिकतर मिलते हैं।
सवनाही
सवनाही के नाम से पहचाने गए लोकचित्रों का चित्रण; हरियाली अमावस्या के समय किया जाता है। इनमें मनुष्य तथा शेर आदि की आकृतियां बनायी जाती है जिसका उद्देश्य जादू-टोने से बचाव करना होता है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि इन आकृतियों को घर के बाहर बनाने से अनिष्ठकारक जादू-टोने से रक्षा होती है। इन लोकचित्रों को सावन के महीने में बनाए जाने के कारण ही सवनाही नाम दिया गया होगा ऐसा प्रतीत होता है।
सवनाही बनाने का कार्य मुख्य रूप से राऊतों के द्वारा किया जाता है। इनको बनाने के लिए गोबर का प्रयोग किया जाता है। हाथ में गोबर लेकर उंगलियों की मदद से रेखाएं बनाई जाती है।
इन लोकचित्रों की शैली प्राचीन शैलचित्रों में पायी जाने वाली आकृतियों से मिलती-जुलती होती है।
नागपंचमी के चित्र
नागपंचमी के त्यौहार में दीवारों पर विभिन्न आकृतियां और मुद्राओं में नागों का रेखांकन किया जाता है। इनको गेरू या गोबर के द्वारा बनाया जाता है। इन आकृतियों की पूजा अर्चना की जाती है। बरसात की ऋतु में बहुतायत में नागों के निकलने पर उनकी पूजा अर्चना कर उनसे रक्षा करने तथा उनकी कृपा रहे इस भावना के साथ इन चित्रों का अंकन किया जाता है।
कृष्ण जन्माष्टमी के चित्र
कृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर भी अनेक तरह से श्रीकृष्ण के चित्र बनाए जाते हैं। विभिन्न आकृतियां जिनको क्षेत्रीय बोली में “आठे कन्हैया” कहा जाता है बनाई जाती है। इनमें श्रीकृष्ण की बाललीलाओं को चित्रित किया जाता है और बालकृष्ण की पूजा की जाती है।
विवाह के अवसर पर बनाए जाने वाले चित्र
छत्तीसगढ़ के विभिन्न अंचलों में विवाह के अवसर पर अपने घरों को सजाने एवं दीवारों पर अनेक तरह के चित्र बनाने की परंपरा पाई जाती है। इन चित्रों में देवी देवताओं, फूल पत्तियों और पशु-पक्षियों के चित्र बनाए जाते हैं। इनको बनाने में विभिन्न रंगों का प्रयोग किया जाता है। नीले, लाल रंग का प्रयोग मुख्यतः किया जाता है। विवाह के समय और अन्य शुभ कार्यों में द्वार पर पत्तियों का तोरण चित्रित किया जाता है।
चौक माड़ना
विभिन्न धार्मिक अवसरों पर छत्तीसगढ़ में अनेक तरह के चौक पुरने (माड़ने) की परंपरा है सर्वाधिक रूप में इन्हें दीपावली, विवाह अथवा अन्य शुभ कार्यों के अवसर पर देखा जा सकता है। यह अंकन चावल या गेहूं के आटे से किया जाता है। धार्मिक एवं शुभ अवसरों पर बनाए जाने वाले स्वास्तिक चिन्ह भी लोक चित्रकला का प्राचीनतम उदाहरण हैं। छत्तीसगढ़ में पूजा स्थलों पर, दीवारों पर, द्वार पर इनका अंकन देखा जा सकता है।
कलश पर चित्रांकन
विवाह और अन्य धार्मिक अवसरों पर पूजा के लिए सर्वप्रथम जिस कलश पर दीप प्रज्ज्वलित किया जाता है उस पर की जाने वाली चित्रकारी छत्तीसगढ़ के लोक जीवन में प्रचलित एक सुंदर कलाकृति होती है। विवाह के अवसर पर किए जाने वाले यह कलश चित्रांकन छत्तीसगढ़ी लोककला का सुंदर उदाहरण प्रस्तुत करता है।
राऊत के हाथा चित्र
छत्तीसगढ़ की राऊत जाति के लिए दीपावली का त्यौहार अत्यंत महत्वपूर्ण होता है। दीपावली के समय गोवर्धन पूजा के दिन से इनका उत्सव प्रारंभ होता है, इस समय राऊत जाति के लोग जिन घरों की गाय चराते हैं वहां जाकर गायों के गले में सोहई बांधते हैं, जोकि गोधन की रक्षा हेतु मंगल कामना होती है। इसी अवसर पर अपने मालिकों के गोधन की रक्षा हेतु द्वार और दीवारों पर “हाथा” देने की परम्परा भी प्रचलित है। “हाथा” एक ज्यामितीय आकृति की सम्मिलित आकृति होती है जिसका अंकन जादू-टोने आदि से रक्षा हेतु किया जाता है ताकि गोधन की रक्षा हो सके।
“हाथा” देने की प्रथा हरेली के अवसर पर भी होती है जब संपूर्ण घर या मवेशी बांधने के स्थान पर गोबर की लकीरें बनाई जाती है। इन आकृतियों में सूर्य चंद्रमा पशु-पक्षी आदि बनाई जाती है इनका उद्देश्य अमंगल विरोधी होती है।
छत्तीसगढ़ लोक चित्रकला की एक शैली – “गोदना”
आदिवासियों की लोक चित्रकला का एक रूप; यहां की आदिवासी स्त्रियों के शरीर पर अंकित “गोदना” के रूप में भी देखा जा सकता है। सौंदर्य वृद्धि के लिए आदिवासी संस्कृति में अंग आलेखन एवं चित्रांकन की परंपरा अनेक आस्थाओं से जुड़ी होती है। गोदना एक ऐसा परिधान है जो आजीवन आदिवासी ललनाओं के तन के साथ जुड़ा रहता है।
शरीर के विभिन्न अंगों पर गोदे जाने वाले विभिन्न प्रकारों और नमूनों के अलग-अलग नाम होते हैं। आंख के ऊपर “भूरसी”, नासिका पर जो बिंदु लगाया जाता है उसे “पुरौनी” और ठुड्डी तथा ओंठो के नीचे जो बिंदु लगता है वह “मुटकी” कहलाता है। माथे पर बनने वाला डिजाइन “चूल्हा” कहलाती है।
छत्तीसगढ़ में लोक चित्रकला का इतिहास अत्यंत प्राचीन है। लोक चित्रकला के सर्वाधिक प्राचीन उदाहरण रायगढ़ के करीब करमागढ़ की पहाड़ों में शैलचित्रों का संग्रह देखे जा सकते हैं। इन शैल चित्रों में आदिमानव के भावनाओं और आसपास के प्राकृतिक परिवेश की अभिव्यक्ति देखी जा सकती है।
इन शैल चित्रों की सबसे प्रमुख खासियत यहां के चित्रों में एक भी मानवाकृति का न होना है। यहां पर मुख्यतः जलीय जीव व पशुओं की आकृतियां चित्रित की गई है। इन चित्रों में मुख्यतः लाल और पीले रंगों का प्रयोग किया गया है।
करमागढ़ के शैल चित्रों में अनेक ज्यामितीय रेखाकृतियां पाई गई है। आज भी ग्रामीणों द्वारा पूजा के लिए डाले गए चौक या दरवाजों पर बनाई गई शुभाकृतियां प्राचीन रूप में इन शैल चित्रों में दृष्टिगोचर होता है।