# सामाजिक प्रतिमान (आदर्श) का अर्थ, परिभाषा | Samajik Pratiman (Samajik Aadarsh)

सामाजिक प्रतिमान (आदर्श) का अर्थ :

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज में संगठन की स्थिति कायम रहे इस दृष्टि से सामाजिक आदर्शों का निर्माण किया जाता है। इनका निर्माण यकायक नहीं होता। कुछ आदर्श प्रतिमान क्रमशः विकसित हो जाते हैं और कुछ को इच्छा के साथ विकसित किया जाता है। इन प्रतिमानों का स्वरूप रूढ़िवादी या प्रगतिवादी किसी भी प्रकार का हो सकता है।

सामाजिक प्रतिमान से तात्पर्य उन आदर्श प्रतिमानों से है जो समाज में नियन्त्रण बनाये रखें, जो व्यक्तियों के लिए उपलब्धि के विषय हो। व्यक्ति की प्रकृति स्वतन्त्रता की ओर उन्मुख होती है। सभी लोगों की स्वच्छन्दता समाज में अव्यवस्था पैदा कर सकती हैं, अतः सामाजिक आदर्शों की सृष्टि इसीलिए की गयी है, ताकि एक नियमित व्यवहार प्रतिमानों की व्यवस्था का लाभ समाज के सभी लोग समान रूप से उठा सकें।

सामाजिक आदर्श (प्रतिमानों) की परिभाषाएँ :

1. शैरिफ के शब्दों में, “सामाजिक प्रतिमान कार्य करने की विधियाँ, नियम, आचरण के मापदण्ड, मूल्य आदि सामूहिक अन्तःक्रिया की उपज होते हैं। नियमों, मानकों तथा मूल्यों के इस प्रकार के अधिसंस्थापन को ही सामाजिक अन्तर्समूह के सामाजिक आदर्श नियमों की संज्ञा दी जाती है।”

इस परिभाषा के माध्यम से दो बातों का स्पष्टीकरण किया जा सकता है- प्रथम, सामाजिक आदर्श सामूहिक अन्तःक्रिया के परिणामस्वरूप उत्पन्न होते हैं। दूसरा, सामाजिक प्रतिमान आदर्श नियमों, मानकों तथा मूल्यों की एक ही सम्मिलित व्यवस्था है।

2. किंग्सले डेविस के अनुसार, “आदर्श नियम एक प्रकार के नियन्त्रण है। समाज इन्हीं नियंत्रण के बल पर अपने सदस्यों के व्यवहार पर अंकुश रखता है, जिससे वे सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति के साधन के रूप में कार्य करते रहें, भले ही उनकी प्राणिशास्त्रीय आवश्यकताओं में इनसे बाधा पहुँचती हो।” इस परिभाषा से सामाजिक आदर्शों का नियामक और नियन्त्रण स्वरूप स्पष्ट होता है। प्रत्यक्ष रूप में या अप्रत्यक्ष में इनका उद्देश्य सामाजिक आवश्यकताओं की समाज द्वारा निर्धारित नियमानुसार पूर्ति करना है।

3. बीटस्टीड के शब्दों में, “किसी भी समाज में कोई भी व्यक्ति बहुत लंबे समय तक अकेला नहीं रह सकता है। सभी समाजों में व्यक्ति अन्य लोगों के साथ रहता है तथा वास्तव में दूसरे लोगों के साथ न्यूनाधिक मात्रा में स्थायी सामाजिक संबंध भी स्थापित करना सीखता है और ऐसा करने के लिए निर्धारित प्रणालियां होती हैं ये निर्धारित प्रणालियां ही प्रतिमान कहलाती हैं।” यह परिभाषा सामाजिक आदर्शों को सामाजिक जीवनयापना की प्रणालियों के रूप में स्पष्ट करती हैं।

4. वुड्स (Woods) के मतानुसार, “सामाजिक प्रतिमान वे नियम या प्रतिमान है जो मानव व्यवहार को नियन्त्रित करते हैं, सामाजिक व्यवस्था में सहयोग देते हैं तथा किसी विशेष स्थिति में व्यवहार की भविष्यवाणी करना सम्भव बताते हैं।”

नियन्त्रण के साधन के रूप में सामाजिक प्रतिमानों का महत्व (Importance of Social Norms as Controlling forces in Society)

सामाजिक आदर्शों का समाज और व्यक्ति के नियमित करने क्रिया में एक अपूर्व महत्वपूर्ण योगदान है। इस सम्बन्ध में मैकाइवर ने लिखा है, “इसके बिना निर्णय का भार असह्य होगा तथा आचरण की तरंगे पूरी तरह से बौखला देने वाली होगी।”

बीरस्टीड का कथन है, “व्यक्ति के लिए प्रतिमानों का प्रधान कार्य उन असंख्य सामाजिक परिस्थितियों में जिनका कि वह सामना करता है और जिनमें कि वह भाग लेता है, निर्णय लेने की आवश्यक घटना है। अतएव ये प्रतिमान ही है जो सामाजिक जीवन को स्थिरता, व्यवस्था तथा निश्चयात्मकता प्रदान करते हैं और इस प्रकार वे सामाजिक संरचना के अत्यन्त महत्वपूर्ण तत्व बन जाते हैं। पूर्ण प्रतिमानहीनता अथवा अनियमितता की अवस्था समाज के लिए असाह्य होगी तथा कोई भी प्रतिमानहीनता अथवा अनियमितता की अवस्था में कोई भी समाज बहुत दिन तक टिक नहीं सकता है। जिस प्रकार अराजकता का प्रशासन से विरोध है, उसी प्रकार प्रतिमानहीनता समाज का विघटन है। जहाँ कोई प्रतिमान नहीं, वहाँ कोई समाज भी नहीं है। हमने इस प्रकार प्रतिमानों में उस अवस्था को जिसे समाज प्रदर्शित करता है (एक स्रोत तथा बिन्दु पथ) खोज लिया है तथा समाजशास्त्रीय अन्वेषण द्वारा स्थापित मौलिक प्रश्नों में से एक उत्तर दे दिया है।”

बीरस्टीड के विचारों को संक्षेप में निम्न प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है।

(1) सामाजिक प्रतिमान सामाजिक निर्णय लेने में सहायक होते हैं।

(2) सामाजिक प्रतिमान सामाजिक जीवन की स्थिरता, व्यवस्था और निश्चयात्मकता प्रदान करते हैं।

(3) सामाजिक प्रतिमानों के अभाव में समाज की व्यवस्था ही सम्भव नहीं होती।

किंग्सले डेविस के अनुसार –

(1) सामाजिक आदर्श प्रतिमान सामाजिक नियन्त्रण में सहायक होते हैं।

(2) सामाजिक आदर्श प्रतिमान सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति में सहायक होते हैं।

(3) सामाजिक प्रतिमान सामाजिक अस्तित्व को बनाये रखने में सहायक होते हैं।

(4) आन्तरिक निर्णयों को लेने में सामाजिक आदर्शों का सहयोग महत्वपूर्ण होता है।

सामाजिक आदर्शों को औपचारिक, अनौपचारिक, रूढ़िवादी, प्रगतिवादी आदि अनेक रूपों में वर्गीकृत किया जा सकता है। बीरस्टीड द्वारा किये गये आदर्शों की विवरणिका में कानून, संविधि, नियम, अधिनियम, रीति-रिवाज, लोकरीतियों, लोकाचार, निषेध, फैशन, संस्कार, धार्मिक क्रियाएँ, उत्सव, परम्पराएँ और शिष्टाचार के नाम गिनाये गये हैं।

किंग्सले डेविस के द्वारा प्रतिमानों के वर्गीकरण निम्नलिखित हैं।

A. जनरीतियाँ (Folkways), B. रूढ़ियाँ (Mores), C. प्रथाएँ (Customs)

डेविस के इस वर्गीकरण में प्रस्तुत आदर्श प्रतिमानों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार हैं –

A. जनरीतियाँ (Folkways)

जनरीति का अर्थ समाज द्वारा मानव व्यवहार की प्रणालियों से है। जब कोई एक आदत अथवा कोई एक विचार समाज की आदत अर्थात् मूल्य बन जाता है तो उसे जनरीति कहा जाता है। मैकाइवर के शब्दों में, “जनरीतियाँ समाज के व्यवहार की स्वीकृत रीतियाँ हैं।” मैरिल और एलड्रिज के अनुसार, “जनरीतियाँ सामान्य व्यक्तियों की कार्य-विधियां हैं, ये सामाजिक आदतें तथा सामूहिक कार्य हैं जो नित्य प्रति के सामूहिक जीवन से उत्पन्न होते हैं।” रयूटर और हार्ट के अनुसार, “जनरीतियों केवल कार्य करने की वे सरल आदतें होती हैं जो समूह के सदस्यों में सामान्य हो जाती हैं। वे जनसाधारण की रीतियाँ होती हैं जो थोड़ी-बहुत सुनिश्चित होती हैं और अपनी निरन्तरता के कारण कुछ अंशों में परम्परागत अभिमति रखती हैं।”

उपर्युक्त परिभाषाओं से सामाजिक जनरीतियों के निम्नांकित तथ्यों पर प्रकाश पड़ता है।

(i) जनरीति स्वतः पैदा होने वाला एक सामाजिक प्रतिमान है।

(ii) प्रत्येक जनरीति सामाजिक उद्देश्यों के साथ जुड़ी रहती है।

(iii) ये मनुष्य के व्यवहार पर नियन्त्रण करती हैं।

(iv) समाज की प्रकृति और समय भेद के अनुसार रीतियों की संख्या और उनके रूपों में परिवर्तन आता रहता है।

(v) जनरीति में नैतिकता का समावेश नहीं हो पाता है।

(vi) जनरीतियों के उल्लंघन पर व्यक्ति को निन्दा या उपहास का भागीदार होना पड़ता है। इसका पालन करना प्राथमिक समूह के सदस्यों के लिए अनिवार्य होता है। इसकी प्रकृति स्थायी होती है।

जनरीतियों के उदाहरण– भारतीय समाज में भोजन करने से पूर्व हाथ धोने की एक जनरीति है। भारतीय ग्रामीण समाज में अभ्यागत का स्वागत हुक्का पिलाकर किया जाता है, यह ग्रामीण जनरीति है। कुछ मानदण्ड अन्य मानदण्डों की अपेक्षा कम प्रभावशाली होते हैं। अतः जनरीति सबसे कम प्रभाव वाले सामाजिक नियन्त्रण के साधनों में से एक प्रमुख साधन है। अतिथि के स्वागत में अपनी संस्कृति के अनुसार अभिवादन करना, गलती होने पर क्षमा-याचना करना आदि जनरीति के सुन्दर एवं दैनिक जीवन में प्रयुक्त किये जाने वाले जनरीतियों के उदाहरण हैं।

B. रूढ़ियां (Mores)

जनरीतियां जब लोक-कल्याण की भावना के साथ जुड़ जाती हैं तो इसको लोकाचार के नाम से जाना जाता है। इन नियमों का प्रभाव समाज में तुलनात्मक रूप से अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है। इसको परिभाषित करते हुए डासन और गैटिल ने लिखा है, “लोकाचार वह जनरीतियाँ हैं जिनमें एक निर्णय का समावेश हो जाता है और उन पर पूरे समूह का कल्याण निर्भर रहता है।” मैकाइवर और पेज ने स्पष्ट किया है कि “जब जनरीतियों में समूह के कल्याण के विचार तथा सही और गलत का मापदण्ड जुड़ जाता है तब जनरीतियां रूढ़ियाँ बन जाती हैं।” सोपिर का कथन है, “लोकाचार शब्द का उपयोग उन प्रथाओं के लिए किया जाता है जो व्यवहार के तरीकों को सही अथवा गलत बनाने में एक दृढ़ भावना व्यक्त करता है।”

उपर्युक्त सभी परिभाषाओं से मुख्य रूप से जो बातें स्पष्ट हैं, उनका वर्णन निम्न प्रकार हैं।

1. जनरीतियों के साथ कल्याण का भाव जुड़ा रहता है।

2. इनका कार्य मानव समाज में सही और गलत व्यवहार का निर्णय करना होता है।

रूढ़ियों की विशेषताएँ (Characteristics of Mores) – उपर्युक्त परिभाषाओं के आलोक में रूढ़ियों की विशेषताओं का विवरण इस प्रकार दिया जा सकता है-

1. रूढ़ियाँ व्यक्तिगत इच्छाओं से परे होती हैं। अपेक्षित यह होता है कि व्यक्ति इसके अनुसार अपने व्यवहार को बनाये।

2. रूढ़ियाँ नैतिक भी होती हैं और साथ ही तर्क की कसौटी पर आसानी से कसी जा सकती है।

3. रूढ़ियां समाज की वह आदतें हैं, जिनके अनुसार व्यक्ति अचेतन रूप में भी कार्य करता है।

4. रूढ़ियों की प्रकृति स्वाभाविक होती है।

5. रूढ़ियां समयानुसार बदलती रहती हैं। देश, काल व परिस्थिति के अनुसार इनमें भी परिवर्तन आता रहता है।

6. रूढ़ियों के पालन के लिए बुद्धि द्वारा अधिक सोचने की आवश्यकता नहीं होती है। व्यक्ति स्वतः ही इनका अभ्यासी हो जाता है और इनका पालन करता है।

7. रूढ़ियां तुलनात्मक रूप से ज्यादा कठोर होती हैं। अतः इनका पालन नहीं करने पर सामाजिक दण्ड भी मिलता है।

रूढ़ियों के उदाहरण (Examples of Mores)– रूढ़ियाँ समाज में जनरीतियों की अपेक्षा अत्याधिक प्रभावक, नियन्त्रण तथा शक्तिशाली मानी जाती हैं। रूढ़ियाँ इतनी अधिक प्रभावक होती हैं कि उन्हीं के आधार पर समाज में मानव-व्यवहार उचित अथवा अनुचित घोषित किया जाता है। रूढ़ियां सकारात्मक एवं नकारात्मक दोनों प्रकार की होती है। भारतीय समाज में हिन्दू विवाह में लड़के वाले बारात लेकर जायेंगे और लड़की वालों के यहां सर्वप्रथम “तोरण” का संस्कार करेंगे। वह तोरण मारने की प्रथा ही रूढ़ि बन गई है। एक गोत्र में विवाह नहीं होता, यह एक रूढ़ि ही है। ऐसी रूढ़ियां निषेधात्मक रूढ़ियां कहलाती है।

C. प्रथाएँ (Customs)

प्रथाओं से तात्पर्य उन नियमों से है जो समाज में काफी समय से चले आ रहे हैं और समाज का नियन्त्रण करते हैं। इन्हें कार्य करने के ढंग के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। इनको जान-बूझकर पालन करने का विषय नहीं बनाया जाता, बल्कि व्यक्ति स्वतः ही इनके पालन करने के लिए तैयार हो जाता है। मैकाइबर तथा पेन महोदय ने लिखा है, “समाज की मान्यता प्राप्त करने की विधियाँ समाज की प्रथाएं हैं।” बोगार्ड्स का कथन है, “प्रथाएँ समूह के द्वारा स्वीकृत नियन्त्रण की ऐसी विधियां है जो इतनी सुदृढ़ हो जाती है कि उन्हें बिना विचारे ही मान्यता प्रदान कर दी है और इस तरह पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरित होती रहती हैं।” इन सब परिभाषाओं से स्पष्ट है कि प्रथा की प्रकृति स्वाभाविक होती है और इसका कार्य समाज और व्यक्ति पर नियन्त्रण करना है।

प्रथा के महत्व के सम्बन्ध में चार प्रमुख बातें कही जा सकती है –

1. प्रथाएं सीखने की प्रक्रिया को सफल बना देती है।

2. प्रथाएं समाज का हित संवर्द्धन करती है।

3. प्रथाएँ समाज में एकता और संगठन पैदा करती है।

4. प्रथाएँ सामाजिक नियन्त्रण में योगदान करती है।

प्रथाओं के उदाहरण- प्रथाएँ समाज में व्यवहार प्रतिमानों की पथ-प्रदर्शिकाएँ होती है। प्रथाएँ प्रत्येक समाज में पाई जाती हैं। भिन्न-भिन्न समाज में भिन्न-भिन्न प्रकार की प्रथाएँ हुआ करती हैं; जैसे-भारतीय प्रथाएँ अमेरिका की प्रथाओं से नितान्त भिन्न होती हैं। प्रथाओं का भिन्न-भिन्न होना समाजों की भिन्न-भिन्न संस्कृतियों के होने के कारण होता है। हमारे समाज में पुत्र-जन्म की प्रथाएँ, मृत्यु संस्कारों से सम्बन्धित प्रथाएँ आदि मानव-जीवन से सम्बन्धित प्रत्येक समाज में अनेक प्रथाएँ होती हैं। प्रथाओं का तर्क तथा विज्ञान से कोई सम्बन्ध नहीं होता है। प्रथाएँ तार्किक एवं अतार्किक दोनों आधारों पर आधारित हो सकती हैं। प्रथाएँ तो पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरित होती रहती हैं। भारतीय समाज में जातिगत प्रथाएँ, विवाह प्रथाएँ तथा पारिवारिक प्रथाएँ न जाने कब से चली आ रही हैं। सामाजिक प्रथाओं से ही तो अन्त में सामाजिक संस्थाओं का जन्म और विकास होता है।

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