# केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य वाद : 1973

केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य वाद : 1973

केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य वाद 1973 में केरल भूमि सुधार संशोधन अधिनियम को चुनौती देने वाली याचिका के रूप में सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष आया, याचिका में उक्त अधिनियम को संविधान के अनुच्छेद 14, 19(1) (g), 25, 26 और अनुच्छेद 31 के उल्लंघन में बताया गया। संसद ने याचिका के सुनवाई के बीच की अवधि में संविधान में 24वां, 25वां तथा 29वां संशोधन कर लिया।

न्यायिक दृष्टिकोण के इतिहास में, केशवानन्द भारती केस मूलतः मौलिक अधिकारों की संशोधनीयता एवं संसद की संशोधन के विषय में असीमित शक्ति से सम्बन्धित है। इस वाद से पूर्व ‘गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य वाद‘ में संसद की संशोधन शक्ति पर सीमा आरोपित करते हुए अभिनिर्धारित किया गया था कि – “संसद् संविधान में संशोधन कर सकती है किन्तु भाग-3 में उल्लिखित मौलिक अधिकारों में नहीं।”

25वां संशोधन अधिनियम द्वारा संसद ने एक नया अनु० 31 (C) जोड़ दिया, जो राज्य को 39 (b) और (c) में उल्लिखित निदेशक तत्वों को कार्यान्वित करने के लिए विधि बनाने की शक्ति प्रदान करता है इस संशोधन से निश्चित रूप से निदेशक तत्वों का महत्व बढ़ा तथा क्रियान्वयन की स्थिति सुदृढ़ हुयी। किन्तु इसी संशोधित अनुच्छेद 31 (c) में कहा गया कि “उक्त विधि अनुच्छेद-13 में किसी बात के होते हुए भी इस आधार पर शून्य नहीं समझी जाएगी कि वह अनुच्छेद-14 या अनुच्छेद 19 द्वारा प्रदत्त अधिकारों से असंगत है”, साथ ही… “न्यायालय में इस आधार पर प्रश्नगत नहीं की जाएगी…”

सर्वोच्च न्यायालय की विशेष पीठ ने 7-6 के बहुमत से अभिनिर्धारित किया कि संसद को संविधान के किसी भाग में संशोधन का अधिकार प्राप्त है, परिणामतः संसद अनुच्छेद 368 में विहित विशेष प्रक्रिया द्वारा संविधान के किसी भाग में (मौलिक अधिकारों में भी) संशोधन कर सकती हैं। इस प्रकार केशवानंद भारती के इस बाद में संशोधन द्वारा जोड़े गये अनुच्छेद 31 (c) के ‘प्रथम भाग‘ को वैध ठहराते हुए संवैधानिक घोषित कर दिया गया।

परन्तु द्वितीय भाग, “… न्यायालय में प्रश्नगत नहीं किया जाएगा… को इस आधार पर असंवैधानिक घोषित कर दिया गया कि संसद संविधान में संशोधन का अधिकार रखती है और विहित प्रक्रिया से ‘‘संविधान के किसी उपबन्ध का परिवर्धन, परिवर्तन, निरसन कर सकती है” किन्तु संविधान के “आधारभूत ढाचें में परिवर्तन / संशोधन नहीं कर सकती…”

इस वाद में मौलिक अधिकारों एवं निदेशक तत्वों के संवैधानिक महत्व के मूलभूत बिन्दु उठे, जिन्हें न्यायालय ने विस्तार से एवं गहनता से विश्लेषित किया। न्यायाधीशों ने इस वाद में व्यक्तिगत रूप से विचार रखते हुए कहा कि –

“निदेशक तत्वों को मौलिक अधिकारों के साथ रखना असम्भव है, यद्यपि इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि वे महत्वपूर्ण हैं, परन्तु निदेशक तत्व, क्रियान्वयन में लक्ष्य प्राप्ति हेतु अधिकारों को निर्देशित करते हैं, कहना उचित नहीं…”

– मुख्य न्यायाधीश सीकरी

इस प्रकार सर्वोच्च न्यायालय तत्कालीन मुख्य न्यायमूर्ति सीकरी ने यद्यपि निदेशक सिद्धान्तों एवं मौलिक अधिकारों को समान मानने के प्रति असहमति जताई किन्तु उन्होंने भी निदेशक सिद्धान्तों के महत्व को स्वीकार किया।

न्यायमूर्ति शेलट और ग्रोवर ने भाग-3 और भाग-4 में उल्लिखित अधिकारों में विशेषतः निदेशक सिद्धान्तों को सामाजिक क्रान्ति की दिशा में एक महत्तवपूर्ण लक्ष्य मानते हुए कहा- “…हमारे संविधान निर्माताओं ने अधिकारों और निदेशक तत्वों के बीच कोई विरोधाभास नहीं देखा, वे एक दूसरे के पूरक हैं, निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि निदेशक तत्व एक निश्चित लक्ष्य निर्धारित करते हैं और मौलिक अधिकार उन साधनों का उल्लेख करते हैं, जिनसे वे लक्ष्य प्राप्त किये जा सकते हैं..”

न्यायमूर्ति रे के शब्दों में – “सामाजिक न्याय व्यक्तिगत अधिकारों की प्रकृति और प्रतिबन्धों को निश्चित करेगा, संविधान की मंशा व्यक्तिगत अधिकारों की अपेक्षा न्याय को श्रेष्ठ रखने की थी और सामाजिक न्याय के लिए जब भी इनमें कटौती आवश्यक हो, उन्हें अधीन रखा जा सकता है। सामाजिक न्याय का अर्थ निदेशक तत्वों में विहित सिद्धान्त है…”

न्यायमूर्ति चन्द्रचूड़ के अनुसार -“…. देश इतिहास के दोराहे पर खड़ा है… क्या मैं कह सकता हूं निदेशक तत्वों का भाग ‘बालू की दीवार’ मत बने रहने दीजिए, यदि राज्य उन स्थितियों के निर्माण में विफल होता है, जब सभी स्वतन्त्रताओं का उपभोग कर सके…. तब कुछ लोगों की स्वतन्त्रता अनेक लोगों की स्वतन्त्रता की दया पर निर्भर होगी और तब सभी की स्वतन्त्रता नष्ट हो जायेगी…”

न्यायमूर्ति हेगड़े, मुखर्जी एवं श्री रेड्डी का मत था कि निदेशक सिद्धान्त भी व्यक्ति के अधिकारों की भांति महत्वपूर्ण हैं। यथा – “भाग- 3 एवं भाग – 4 मानव अधिकारों से सम्बन्धित हैं…. स्वतंत्रता अन्य कुछ नहीं, मात्र श्रेष्ठता के अवसर पाना है।”

इन उपर्युक्त न्यायिक विचारों/दृष्टिकोणों से स्पष्ट है कि बहुमत से न्यायाधीशों ने निर्देशक तत्वों के पक्ष में विचार दिये तथा उनके महत्व को स्वीकार करते हुए उन्हें श्रेष्ठता दी। मौलिक अधिकारों को पवित्र, अनुलंघनीय, तथा संशोधन से भी परे, के रूप में दिये गये पूर्व निर्णय के लिए यह नितांत भिन्न स्थिति थी।

न्यायाधीशों का इस वाद में मत था कि संविधान की उद्देशिका में उल्लिखित लक्ष्य निदेशक तत्वों द्वारा ही प्राप्त किये जा सकते हैं तथा जिसके अभाव में, संविधान का आधारभूत स्वरूप ही परिवर्तित हो जायेगा। साररूप में, संविधान निर्माता एक ऐसे समाज की स्थापना के प्रति कृतसंकल्प थे, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति या नागरिक गरिमामय जीवन व्यतीत कर सके या नागरिक स्वतन्त्रताओं का उपभोग कर सके।

मौलिक अधिकारों का उद्देश्य एक ऐसे समाज की स्थापना है जिसमें बिना किसी प्रतिबन्ध या दबाव के सभी नागरिक स्वतन्त्रता का अनुभव कर सकें, वहीं निदेशक सिद्धान्त उन सामाजिक, आर्थिक उद्देश्यों को समाहित किए हुए हैं जिससे एक अहिंसक सामाजिक क्रान्ति द्वारा प्रत्येक व्यक्ति की आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके और समाज में आमूल-चूल परिवर्तन लाया जा सके। उनकी दृष्टि में मौलिक अधिकारों और निदेशक सिद्धान्तों के बीच किसी प्रकार का विरोधाभास नहीं है वरन् – “वे एक दूसरे के पूरक हैं…”

“केशवानन्द भारती वाद” (Fundamental Rights Case) बहुमत से निर्णीत हुआ, जिसमें अभिनिर्धारित किया गया कि –

  • गोलकनाथ वाद को Over Rule किया गया।
  • अनुच्छेद 368 संसद को संविधान के आधारभूत ढ़ाचें में परिवर्तन के लिए अधिकृत नहीं करती।
  • संविधान का 24वां संशोधन अधिनियम 1972 वैध है।
  • 25वें संविधान संशोधन अधिनियम के प्रथम भाग की धारा (3) वैध है, परन्तु दूसरे भाग जिसमें उक्त विधि “न्यायालय में…. प्रश्नगत नहीं की जाएगी”… अवैध है।
  • 29वां संशोधन अधिनियम भी वैध है।

न्यायालय ने इस केशवानंद भारती वाद में 25वें संशोधन अधिनियम के दूसरे भाग को इसलिए अवैध घोषित किया, कि उक्त संशोधन न्यायालय के पुनर्विलोकन शक्ति को इस आधार पर समाप्त करता था कि ‘उक्त विधि’ निदेशक तत्वों को प्रभावशाली बनाने हेतु है, निश्चित रूप से संशोधन का उद्देश्य संसद का निदेशक तत्वों को प्रमुखता एवं महत्व देना था, परन्तु उक्त संशोधन अधिनियम साथ ही न्यायालय को पुनर्विलोकन से वंचित करता था।

दूसरे, इस वाद में संसद को संशोधन हेतु सक्षम मानते हुए भी अभिनिर्धारित किया गया कि आधारभूत ढाँचे में संशोधन नहीं किया जा सकता, संविधान की आधारभूत संरचना/विशेषता जिसका न्यायाधीशों ने उल्लेख्न भी किया है।

मुख्य न्यायाधीश सीकरी की दृष्टि में –

  • संविधान की सर्वोच्चता
  • शासन का लोकतन्त्रीय एवं गणतन्त्रीय स्वरूप
  • पंथ निरपेक्षता
  • विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका के बीच कार्यों का पृथक्करण
  • संघवाद
  • नागरिकों की स्वतन्त्रता एवं सम्मान

न्यायाधीश शेलेट एवं ग्रोवर ने इसे और विस्तार दिया –

  • लोककल्याणकारी राज्य बनाने का आदेश
  • राष्ट्र की एकता और अखण्डता

न्यायाधीश हेगड़े और मुखर्जी ने ‘भारत की सम्प्रभुता’ को भी आधारभूत तत्व माना –

केशवानंद भारती वाद के इस निर्णय ने ‘संसद की सम्प्रभुता‘ एवं ‘न्यायिक सर्वोच्चता‘ पर राष्ट्रीय स्तर पर वाद-विवाद खड़ा कर दिया, संशोधन में संसद की सम्प्रभुता स्वीकारते हुए भी ‘आधारभूत ढांचे की संकल्पना’ एवं न्यायिक सर्वोच्चता ने एक नवीन आयाम को विस्तार दिया।

फिर भी, केशवानन्द भारती वाद मौलिक अधिकारों एवं निदेशक सिद्धान्तों की पूरकता के विषय में एक मील का पत्थर है। न्यायालय की संविधान पीठ के विद्वान न्यायधीशों ने इस वाद में स्पष्टतः निर्णीत किया कि निदेशक सिद्धान्तों की उपेक्षा नहीं की जा सकती। राज्य को सामाजिक हित और न्याय की पूर्ति हेतु, निदेशक सिद्धान्तों को प्राथमिकता देना ही होगा। केशवानन्द भारती के इस वाद में न्यायालय ने निश्चित रूप से, निदेशक सिद्धान्तों को प्रमुखता देकर बाध्यकारी स्वरूप प्रदान किया।

न्यायमूर्ति मैथ्यू ने माना था कि – “संविधान में निदेशक सिद्धान्तों की न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीयता न होना उसके आधारभूत लक्षण को समाप्त नहीं करती।” उन्होने ब्रिटिश संवैधानिक विधि और परम्पराओं का उल्लेख करते हुए कहा- “किसी विधि का न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय कराया जाना समग्रता का सूचक नहीं. ब्रिटिश परम्पराएं, यद्यपि न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय नहीं है परन्तु बाध्यकारी हैं और संविधान की कार्यप्रणाली में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं….।”

अतः भारतीय संविधान के निदेशक सिद्धान्त भी ब्रिटिश परम्पराओं की भाँति हैं। न्यायमूर्ति बेग ने मौलिक अधिकारों और निदेशक सिद्धान्तों के सम्बन्धों को इन शब्दों में व्यक्त किया – “नागरिकों के मौलिक अधिकार साथ-साथ राज्य को भी दायित्व से बांधते हैं। जिनके निदेशक सिद्धान्त मार्गसूचक हैं… वे उस बहती नदी के समान हैं जो समय-समय पर किसी हिस्से को काटकर किसी भाग का विस्तार कर देती हैं..”

पुनः, अनु० 37 में उल्लिखित स्थिति संसद और राज्य विधायिका के लिए है, किन्तु न्यायालय अपने निर्णय से, जब विधि को स्वरूप प्रदान करते हैं तब निर्णयों में निदेशक सिद्धान्तों को देखना अनिवार्यता है.. निदेशक सिद्धान्त शासन के आधारभूत सिद्धान्त हैं।

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