नियोजनों में आरक्षण : संवैधानिक स्थिति (पृष्ठभूमि)
राज्याधीन नियोजनों में आरक्षण की अवधारणा का जन्म भारतीय संविधान के प्रस्तावना में निहित, सामाजिक एवं आर्थिक न्याय, मूलाधिकार और नीति-निर्देशक तत्व से हुआ है, जिससे समाज में व्याप्त सामाजिक शैक्षणिक, आर्थिक पिछड़ेपन को समाप्त कर सभी को समान अवसर उपलब्ध करा कर व्यक्ति की गरिमा को प्रतिष्ठित किया जा सके।
अनुसूचित जातियों को नियोजनों में आरक्षण का उद्देश्य सामाजिक निर्योग्यताओं से उत्पन्न आर्थिक विषमता को समाप्त कर उन्हें राष्ट्र की मुख्य धारा में शामिल करना है। आर्थिक न्याय के स्थापना के लिए ही भारतीय संविधान द्वारा लोक नियोजनों में अवसर की समता का उपबंध किया गया है, और कहा गया है कि राज्य के अधीन किसी पद पर नियोजन या नियुक्ति से संबंधित सभी नागरिकों के लिए अवसर की समता होगी तथा कोई नागरिक केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, उद्भव, जन्म स्थान, निवास या इनमें से किसी आधार पर राज्य के अधीन किसी नियोजन या किसी पद के संबंध में अपात्र नहीं होगा या उससे विभेद नहीं किया जाएगा, किंतु राज्य पिछड़े हुए नागरिकों के किसी वर्ग के पक्ष में जिनका प्रतिनिधित्व राज्य की राय में राज्याधीन सेवाओं में पर्याप्त नहीं है, नियुक्तियों या पदों के आरक्षण के लिए उपबंध कर सकता है, लेकिन राज्याधीन नौकरियों में आरक्षण के लिए दो शर्ते हैं –
- वर्ग पिछड़ा हो, अर्थात् सामाजिक एवं शैक्षणिक दृष्टि से
- राज्य की राय में राज्याधीन सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व न प्राप्त हो सका हो।
पिछड़ा वर्ग शब्दावली की संविधान में कोई परिभाषा नहीं दी गई है। अनु. 340 राष्ट्रपति को पिछड़े वर्ग की अवधारणा के लिए आयोग की स्थापना करने की शक्ति प्रदान करता है। आयोग इस बात की जाँच करके अपनी सिफारिश राष्ट्रपति को देगा कि कौन सा वर्ग पिछड़े वर्ग की कोटि में आता है। आयोग की रिपोर्ट के आधार पर सरकार पिछड़े वर्ग में आने वाले वर्गों को विनिर्दिष्ट करेगी, सरकार का निर्णय वाद/योग्य विषय होगा अर्थात् न्यायालय इस विषय पर जाँच करेगा कि वर्गीकरण मनमाने ढंग से तो नहीं किया गया या बोधगम में सिद्धांत पर आधारित नहीं है।
बालाजी वाद में न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया था कि जाति को पिछड़ेपन के निर्धारण की कसौटी पर नहीं बनाया जा सकता। इसके लिए गरीबी, पेशा, जन्म स्थान, सामाजिक विचार धारा, आर्थिक उन्नति के साधन, शिक्षात्मक प्रगति आदि सभी बातों पर विचार किया जाना चाहिए। बालाजी के निर्णय को ध्यान में रखते हुए यह प्रश्न स्वाभाविक हो जाता है कि अनुसूचित जनजातियों को अनु. 16 (4) के अंतर्गत पिछड़ा वर्ग समझा जाएगा अथवा नहीं। इस प्रश्न का उत्तर उच्चतम न्यायालय ने महाप्रबंधक दक्षिण रेलवे बनाम रंगाचारी के वाद में दिया, अनुसूचित जातियों को अनु. 16 (4) के अंतर्गत पिछड़े हुए, नागरिकों के वर्गों के अर्थ में ही समाहित माना जाना चाहिए, क्योंकि उनके लिए भी नौकरियों तथा पदों का आरक्षण करने का अधिकार राज्य को इस खंड के अधीन प्राप्त है। ‘अनुसूचित जातियों से बढ़कर पिछड़ा वर्ग कौन हो सकता है।’
उच्चतम न्यायालय के इस अभिमत से यह स्पष्ट हो जाता है कि अनु. 16 (4) के अंतर्गत पिछड़े हुए नागरिकों की श्रेणी में अनुसूचित जातियाँ भी समाहित है। इस आरक्षण की वैधता को स्वीकार करते हुए उच्चतम न्यायालय ने केरल राज्य बनाम एम. एम. टामस के वाद में अभिनिर्धारित किया कि अनुसूचित जातियों के लिए किया गया आरक्षण इस आधार पर भी वैध है, क्योंकि यह अनु. 46 में उपबंधित नीति-निर्देशक तत्व की पूर्ति तथा अनु. 335 में की गई घोषणा को कार्यान्वित करने के उद्देश्य से किया गया एक वैध वर्गीकरण है। इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि अनुसूचित जातियाँ पिछड़े हुए वर्ग में शामिल हैं, और उनको जाति के आधार पर पिछड़े वर्ग से अलग नहीं किया जा सकता किंतु योग्यता के समान मापदंड में ढील दिए बिना अनुसूचित जातियों के लिए रोजगार पाना असंभव था। इसलिए संविधान के द्वारा यह अपेक्षा की गई कि संघ एवं राज्य की सेवाओं और पदों पर नियुक्तियाँ करते समय अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के सदस्यों के दावों को ध्यान में रखा जाएगा। अनुसूचित जाति के इन दावों को ध्यान में रखते हुए उनके लिए पिछड़े वर्ग में आरक्षण की व्यवस्था की गई है। इस प्रकार के किये गए आरक्षण के लिए लोक सेवा आयोग से परामर्श लेने की आवश्यकता नहीं होती।
अखिल भारतीय शोषित कर्मचारी संघ (रेलवे) बनाम भारत संघ के वाद में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि अनुसूचित जातियों को आरक्षण देने से अनु.14 और अनु.16(1) का उल्लंघन नहीं होता, क्योंकि एक तरफ अनुसूचित जाति और दूसरी तरफ शेष भारतीयों के बीच विभाजन करने वाली बहुत बड़ी रेखा विद्यमान है। इसलिए राज्याधीन सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व के प्रयोजन के लिए अवसर की समता के मूलाधिकार को इस तरह पढ़ा जाना चाहिए मानो वह अनुसूचित जातियों के पृथक वर्गीकरण को न्यायसम्मत बना रहा हो।
मण्डल आयोग के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया है कि पिछड़े वर्ग का निर्धारण जाति के आधार पर किया जा सकता है। जाति भी एक सामाजिक वर्ग है। यदि वह सामाजिक रूप पिछड़ा है तो अनु. 16 (4) के प्रयोजन के लिए वह पिछड़ा वर्ग होगा। आर्थिक आधार पिछड़ेपन की एक मात्र कसौटी नहीं हो सकती। अनु.16 (4) में पिछड़े वर्ग में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति तथा अन्य सभी पिछड़े वर्ग के नागरिक, जिसमें सामाजिक एवं पिछड़ा वर्ग भी आता है, सम्मिलित हैं। क्या आरक्षण केवल प्रारंभिक नियुक्तियों तक ही सीमित रहेगा या पदोन्नति में भी आरक्षण किया जा सकता है। इस प्रश्न का उत्तर देते हुए उच्चतम न्यायालय ने मण्डल के वाद में ही यह अभिनिर्धारित किया कि आरक्षण केवल प्रारंभिक नियुक्तियों तक ही सीमित है। पदोन्नति में आरक्षण नहीं किया जा सकता। न्यायालय के इस निर्णय से अनुसूचित जातियों को सामाजिक एवं आर्थिक न्याय दिलाने में अवरोध उत्पन्न हो गया, तदनुसार विधायिका ने एक नया अनु. 16 (4 क ) का निर्माण कर अनुसूचित जातियों के लिए पदोन्नति में आरक्षण को बहाल कर दिया। विधायिका के इस क्रांतिकारी निर्णय ने रुसों के इस अभिकथन “परिस्थितियों के बल की प्रवृत्ति समता को नष्ट करने की होती है, विधान के बल की प्रवृत्ति सदैव उसे बनाये रखने की होनी चाहिए।” को सत्य सिद्ध कर दिया है।
कमिश्नर ऑफ कामर्शियल टैक्स आंध्र प्रदेश हैदराबाद और अन्य बनाम जी. संथुमध्यवा राव और अन्य के वाद में न्यायालय ने संशोधित अनु.16 (4 क) को वैध ठहराते हुए, अनुसूचित जातियों को पदोन्नति में दिए जाने वाले आरक्षण को वैध ठहराया। न्यायालय ने इस तर्क को अस्वीकार कर दिया है कि ऐसा करने से राज्याधीन नौकरियों में अवसर की समानता का उल्लंघन होगा। न्यायालय ने यह तर्क दिया कि अनु. 16 (1) के द्वारा प्रदत्त अधिकार अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों को भी प्राप्त है, और अनु.16 (4), अनु. 16 (1) का अपवाद नहीं है। आरक्षण केवल अनु. 16 (1) में प्रदत्त समानता के अधिकार का ही एक अंग है।
इसी प्रकार विलसम्मानपाल बनाम कोचिन विश्वविद्यालय के वाद में न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि जब को ई सामान्य वर्ग का व्यक्ति दलित या पिछड़े वर्ग का बन जाता है। और वह उसी तरह की निर्योग्यताओं को भुगतता है, तो उसे भी आरक्षण की सुविधा प्राप्त होनी चाहिए, लेकिन साथ ही न्यायालय ने यह भी कहा है कि एक व्यक्ति जो सवर्ण है, और जो सुविधा पूर्ण जीवन प्रारंभ करता है, और बाद में गोद, विवाह या जाति परिवर्तन के द्वारा पिछड़ी जाति का सदस्य बन जाता है तो उसे आरक्षण का अधिकार नहीं प्राप्त होगा।
सुपरिटेन्डिग इंजीनियर पब्लिक हेल्थ चंडीगढ़ बनाम कुलदीप सिंह के वाद में भारत सरकार ने 12 जून 1986 के एक पत्र द्वारा चंडीगढ़ प्रशासन को यह निर्देश दिया कि, यदि पदोन्नति के लिए अनुसूचित जनजाति का अभ्यार्थी उपलब्ध नहीं है, तो वह पदोन्नति अनुसूचित जाति के अभ्यार्थी को वैकल्पिक परिवर्तन के आधार पर दे दी जाए। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि यदि अनुसूचित जनजाति के सदस्य उपलब्ध न हों तो नियमों के अनुसार अनुसूचित जाति के सदस्यों को वरिष्ठता और दक्षता के आधार पर विचार किया जाना चाहिए। यदि अनुसूचित जाति का उपयुक्त अभ्यार्थी उपलब्ध है तो पदोन्नति उसे ही मिलनी चाहिए, और सामान्य वर्ग के लोगों को वरीयता नहीं दी जा सकती।
नियोजनों में आरक्षण की सीमा क्या होगी। इस प्रश्न का उत्तर हमें बालाजी के वाद से ही मिलता है। जहाँ आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत निश्चित कर दी गई थी। मण्डल के वाद में भी उच्चतम न्यायालय ने बालाजी के निर्णय को उचित ठहराया है, लेकिन न्यायालय ने यह माना है कि विशेष परिस्थितियों में आरक्षण कुछ अधिक हो सकता है। विशेष तौर पर दूर के राज्यों में जैसे कि मणिपुर, नागालैंड, आदि जहाँ कोई विशेष परिस्थिति हो किंतु न्यायालय ने सावधान किया है कि ऐसा करते समय विशेष सावधानी बरतनी होगी।
आरक्षण के बारे में अनुसूचित जातियों को संवैधानिक संरक्षण एवं न्यायपालिका के दृष्टिकोण के अवलोकन करने के बाद कार्यपालिका का आरक्षण को लागू करने में क्या भूमिका रही है। इसका विश्लेषण करने पर हम पाते हैं कि अखिल भारतीय स्तर पर खुली प्रतियोगिता परीक्षा के जरिये सीधी भर्ती से भरे जाने वाले पदों में अनुसूचित जातियों के लिए 15 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था है। खुली प्रतियोगिता को छोड़कर अन्य तरीकों से अखिल भारतीय आधार पर सीधी भर्ती से भरे जाने वाले पदों में अनुसूचित जाति के लिए 16 2/3 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था है। पदोन्नति के मामले में अनुसूचित जातियों के लिए 15 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था है, लेकिन इसके साथ शर्त यह है कि सीधी भर्ती से भरे जाने वाले पदों की संख्या 75 प्रतिशत से अधिक नहीं होनी चाहिए। अनुसूचित जातियों को नौकरियों में पर्याप्त प्रतिनिधित्व प्रदान करने के लिए कुछ छूट और रियायतें दी गई हैं। इनमें से कुछ इस प्रकार हैं-
- अनुसूचित जातियों के लिए अधिकतम आयु सीमा में 5 वर्ष की छूट।
- अनुसूचित जातियों को चयन के आधार पर पदोन्नति के मामले में उपयुक्तता के मापदंड में छूट, बशर्ते वे पद के लिए अयोग्य न हो।
- अनुसूचित जातियों के उम्मीदवारों को सीधी भर्ती के मामलों को जहाँ जरूरी हो वहाँ अनुभव संबंधी योग्यता में छूट और अनुसूचित जातियों के उम्मीदवारों को आवेदन शुल्क से छूट।
आरक्षण व्यवस्था लागू करने के लिए खाली पदों के आधार पर आदर्श आरक्षण सूची (रोस्टर) तैयार किये गए हैं। आर. के. सभरवाल के वाद में उच्चतम न्यायालय के निर्णय के बाद इन रोस्टरों के स्थान पर 2 जुलाई 1997 के आदेशानुसार पदों पर आधारित रोस्टर लागू किये गए।
आरक्षण की यह प्रणाली राष्ट्रीयकृत बैंकों समेत सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में भी अपनाई जा रही है। आरक्षण और छूट के कारण अनुसूचित जाति का प्रतिनिधित्व केन्द्रीय और राज्य सरकार की सेवाओं में बढ़ रहा है, परंतु अभी भी उनका प्रतिशत कम है। इस कथन की सत्यता के लिए अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों का केन्द्रीय सेवा में प्रतिनिधित्व पर एक दृष्टि डालना आवश्यक है, ताकि आरक्षण के लाभों का सही मूल्याँकन हो सके।
आरक्षण नीति के परिणाम अब स्पष्ट होने लगे हैं। कुछ वर्ष पहले आरक्षित पदों के लिए उपयुक्त व्यक्ति नहीं प्राप्त होते थे, पर अब न केवल अधिकाँश पदों के लिए आवेदकों की भीड़ होती है, बल्कि इन वर्गों में भी बेरोजगारी की समस्या बिकराल रूप धारण कर रही है। इस संदर्भ में यह जान लेना आवश्यक है कि अनुसूचित जाति ऐसी ईकाई नहीं है जिसका आर्थिक एवं सामाजिक विकास एक समान हो। इन दलित वर्गों में भी अनेक छोटी-बड़ी जातियाँ हैं, जो आर्थिक, सामाजिक एवं शैक्षणिक दृष्टि से सर्वथा भिन्न हैं और जिनके विकास की गति बराबर नहीं है। ऐसी परिस्थितियों में विकास के अवसर के लाभ ऐसी ही जातियाँ उठा सकती हैं, जो उच्च वर्गों के संपर्क में रही हों, या जिन्होंने हिन्दू अथवा ईसाई संस्कृतियों को आत्मसात् कर लिया हो जो जातियाँ अभी जंगलों एवं पहाड़ों में रहने के कारण मुख्य संस्कृति से कटी हुई हैं या जो अभी तक समाज उच्च वर्गों द्वारा प्रताड़ित एवं उत्पीड़ित होती रही हैं, उनको आरक्षण का कोई लाभ मिला हो ऐसा देखने को नहीं मिलता। विभिन्न राज्यों में अनुसूचित जातियों पर आरक्षण के प्रभाव का समाज वैज्ञानिकों के द्वारा अध्ययन किया गया है उनसे पता चलता है कि विगत 50 वर्ष में दलित वर्गों की कुछ जातियों का ही उन्नयन हो सका है, विकास कार्यक्रम का संपूर्ण लाभ विकासोन्मुख एवं शिक्षित जातियों को ही हुआ है। कहीं-कहीं तो आरक्षण का प्रत्यक्ष लाभ इन वर्ग के ऐसे व्यक्तियों को प्राप्त हुआ है जो किसी भी अर्थ में पिछड़े नहीं माने जा सकते।
अतः हम इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि भारतीय समाज में व्याप्त बिभेद और विषमता को दूर करने के लिए उपरोक्त सांविधानिक उपबंधों को लागू करने में राज्य अपनी विशेष भूमिका का उचित ढंग से निर्वाह करें जिससे समाज में पीड़ित और असहाय लोगों को बराबरी का दर्जा दिया जा सके और एक समतामूलक समाज की स्थापना की जा सके।