# भारतीय राजनीति में जातिवाद की भूमिका | Bharat Ki Rajniti Me Jativaad Ki Bhumika

प्रो. मोरिस जोन्स (Moris Jones) ने अपनी पुस्तक ‘भारतीय शासन और राजनीति’ में लिखा है, “शीर्षस्थ नेता भले ही जाति रहित समाज के उद्देश्य की घोषणा करे, परन्तु वह ग्रामीण जनता जिसे मताधिकार प्राप्त किये हुए अधिक दिन नहीं हुए, केवल परम्परागत राजनीति की ही भाषा को समझती है जो जाति के चारों और घूमती है और न जाति शहरी सीमाओं से परे है।”

आज भारतीय राजनीति में ‘जातिवाद‘ परम्परागत राजनीति का प्रमुख निर्धारक तत्व है। जे. वी. के. एन. मेनन ने कहा है कि “स्वतन्त्रता के बाद भारत की राजनीति में जाति का प्रभाव अपेक्षाकृत अधिक बढ़ा है।” स्वतन्त्रता के पश्चात् जब भारतीय राजनीति का स्वतन्त्र और विशिष्ट रूप खिलने लगा तो धीरे-धीरे उसमें जातिवाद की भूमिका एवं महत्व बढ़ते गए। अनेक दृष्टियों से भारतीय जातिवाद ने राजनीति को प्रभावित किया।

डॉ. रजनी कोठारी मानते हैं कि “स्वतन्त्रता के पश्चात् जहाँ एक ओर भारतीय राजनीति पर जातिवाद का प्रभाव बढ़ा है, वहाँ जातिवाद का राजनीतिकरण भी हुआ है। इसलिए भारत में जाति और राजनीति की अंतक्रिया बहुमुखी रही है, एक तरफा नहीं।” आज भारतीय राजनीति में संघ के सभी राज्य इस समस्या (जातिवाद) से ग्रस्त हैं जिसमें बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश प्रमुख हैं।

भारतीय राजनीति में जातिवाद की भूमिका/प्रभाव

भारतीय राजनीति पर जाति के प्रभाव निम्नलिखित हैं-

1. मतदान व्यवहार पर प्रभाव

भारत में मतदान के समय प्रायः मतदाता प्रत्याशी के गुण-दोष की चिन्ता किए बिना अथवा उसकी राजनीतिक विचारधारा का महत्व जाने बिना, सीधे-सीधे जाति के आधार पर मत दे देता है। मतदान व्यवहार का जातिवाद के आधार पर निर्धारण, जातिवाद को एक राजनीतिक शक्ति का रूप प्रदान करना है। डॉ. सुभाष कश्यप के अनुसार, “भारतीय समाज में जातिवाद एक राजनीतिक शक्ति बन गया है।”

2. राजनीतिक दलों के चरित्र का निर्धारण

क्योंकि राजनीतिक दलों ने बार-बार यह महसूस किया कि मतदाता जाति के आधार पर मत देते हैं, इसलिए जातिवाद ने राजनीतिक दलों के चरित्र को बहुत अधिक प्रभावित किया है। अनेक राजनीतिक दलों के महत्वपूर्ण पद जाति के आधार पर दिये जाते हैं। जाति के ही आधार पर प्रत्याशियों का चयन होता है तथा जाति के ही आधार पर राजनीतिक दलों का गठन होता है। उत्तर प्रदेश की बहुजन समाज पार्टी का गठन भी जाति के आधार पर ही हुआ है।

3. दबाव समूहों का गठन

प्रत्येक लोकतन्त्र में अनेक प्रकार के दबाव समूह सक्रिय रहते हैं। भारत में दबाव समूहों की एक विशेषता यह है कि इससे अनेक जातियों के दबाव समूह बन गए हैं और वे शासन पर दबाव डालते हैं। मेयर के शब्दों में, “जातीय संगठन राजनीतिक महत्व के दबाव समूह में प्रवृत्त है।

4. निर्णय प्रक्रिया पर प्रभाव

भारत में जातिवाद ने निम्न धरातल से लेकर उच्चतम धरातल तक निर्णय निर्माण की प्रक्रिया को प्रभावित किया है। आरम्भ में पिछड़ी जाति के लिए दस वर्षों तक व्यवस्थापिकाओं में आरक्षण की व्यवस्था की थी, परन्तु यह व्यवस्था बढ़ाते-बढ़ाते अभी तक मौजूद है। इसी तरह और भी अनेक महत्वपूर्ण निर्णय जाति के आधार पर किये जाते हैं।

5. लोक प्रशासन पर प्रभाव

भारत में अनुसूचित जातियों के लिए समस्त सभी शासकीय सेवाओं में आरक्षण की व्यवस्था है उनके लिए पदोन्नति की भी अनेक व्यवस्थाएँ की गई है। अन्य जातियों के लोग भी अपनी जाति के लोगों का शासकीय सेवाओं में भर्ती एवं पदोन्नति के समय विशेष ध्यान रखते हैं। अनेक प्रशासनिक निर्णय जातिवाद के ही आधार पर किये जाते हैं। प्रशासन के शिखर पर बैठे हुए लोग भी जातिवाद से प्रभावित है।

6. स्थानीय स्वशासन पर प्रभाव

भारतीय राजनीति पर जातिवाद का प्रभाव यह भी हुआ है कि राष्ट्रीय स्तर से लेकर स्थानीय स्तर तक राजनीति जातिमय हो गई है। स्थानीय स्तर पर तो जातिवाद की तीव्रता और अधिक हो गई है। परिणाम यह हुआ है हुए लोग कि गाँव-गाँव में राजनीति के कारण जातिवादी संघर्ष की स्थिति निर्मित हो गई है। अनेक स्थानों पर और विशेष रूप से बिहार के कुछ भागों में हिंसक जातीय संघर्ष हुए है।

7. मन्त्रिमण्डल में राजनीति

भारतीय राजनीति में जातिवाद के प्रवेश का परिणाम तो यहाँ तक हुआ है कि राज्य सरकार और केन्द्र सरकार तक में मन्त्रिमण्डल में जातिवाद का प्रभाव दिखाई देने लगा। मन्त्रिमण्डल के सदस्यों की नियुक्ति जातिवादी आधार पर की जाती है। ‘जातीय सन्तुलन’ बनाए रखना, प्रत्येक मुख्यमन्त्री एवं प्रधानमन्त्री के लिए आवश्यक बन गया है।

भारतीय राजनीति में जातिवाद की भूमिका की समीक्षा

भारतीय राजनीति पर बढ़ते हुए जातिवाद के प्रभाव तथा उसकी विस्तृत होती भूमिका पर विद्वानों ने अलग-अलग दृष्टिकोणों से विचार व्यक्त किए हैं। कुछ विद्वानों को इसमें अच्छाई दिखाई दी है और कई विद्वानों ने इस प्रवृत्ति को बहुत खतरनाक माना है। उदाहरणार्थ – रुडोल्फ एवं रूडोल्फ ने लिखा है कि, “अपने परिवर्तित रूप में जाति व्यवस्था ने भारत में कृषक समाज में प्रतिनिधिक लोकतन्त्र की सफलता तथा भारतीयों की आपसी दूरी कम करके, उन्हें अधिक समान बना कर समानता के विकास में सहायता दी है।” दूसरी ओर डी. आर. गाडगिल का कहना है, “क्षेत्रीय दबाव से कहीं ज्यादा खतरनाक बात यह है कि वर्तमान काल में जाति व्यक्तियों को एकता के सूत्र में बाँधने में सफल सिद्ध हुई है।”

संविधान और जातिवाद

सही या गलत भारत का संविधान स्वयं भारतीय जातिवाद व्यवस्था को मान्यता देता है। संविधान में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के विकास के विशेष प्रावधान किए गए हैं। संविधान द्वारा व्यवस्थापिकाओं में उनके लिए आरक्षित स्थानों की व्यवस्था की गई है। शासकीय सेवाओं में उनके लिए सुरक्षित स्थानों को वैधानिकता प्रदान की है। शताब्दियों तक भारत में कई पिछड़ी जातियों की जो उपेक्षा हुई, संविधान द्वारा उनके उत्थान को उचित माना गया है और वास्तव में राजनीतिक प्रभाव के कारण अनेक जातियों की स्थिति और मानसिकता में अन्तर भी आया है। उनमें स्वाभिमान भी जागा है।

जातिवाद के दुष्परिणाम :

दूसरी ओर भारतीय राजनीति पर जातिवाद के बढ़ते प्रभाव ने अनेक दुष्परिणामों को भी जन्म दिया है। मुख्य दुष्परिणाम निम्न प्रकार हैं-

1. राजनीतिक संस्थाओं में विकृति

भारतीय राजनीति में जातिवाद का एक भयंकर दुष्परिणाम यह हुआ है कि सभी उल्लेखनीय राजनीतिक संस्थाओं का स्वरूप विकृत हो गया है। जिन कार्यों के लिए जिन मान्यताओं के आधार पर राजनीतिक संस्थाओं का गठन हुआ था वे कार्य और वे मान्यताएँ गौण हो गईं, जातियाँ प्रमुख हो गई हैं।

2. राष्ट्रीय एकता में बाधक

जातिवाद ने भारतीय समाज को अनेक टुकड़ों में बाँट दिया है। विभिन्न स्तरों पर, विभिन्न धरातलों पर यह समाज खंडित हो गया है। परिणामस्वरूप भारत की राष्ट्रीय एकता की भावना प्रभावित हुई है। राष्ट्रीय एकता के मार्ग में बाधक बन गया है।

3. अयोग्यता को बढ़ावा

जातिवाद ने लोक प्रशासन को भी प्रदूषित किया है। नतीजा यह है कि शासकीय पदों पर नियुक्ति के समय योग्यता के स्थान पर जाति को अधिक महत्व दिया जाने लगा है। इससे प्रशासन की क्षमता प्रभावित हुई है।

4. हिंसात्मक संघर्ष

जातिवादी भावना से अनेक स्थानों पर उग्र एवं हिंसात्मक संघर्ष होने लगे हैं। इन हिंसात्मक संघर्षों में शासन प्रायः मूकदर्शक बना रहता है और कानून एवं व्यवस्था की स्थिति चौपट हो जाती है।

5. असमानता की स्थिति

भारत में जातिवाद ने समाज को अनेक ऊँचे एवं नीचे धरातलों में बाँट दिया है। ऊँची और नीची जातियों की भावना से सारे समाज को असमानता के शिकंजे में जकड़ रखा है। राजनीतिक दलों द्वारा जातिवाद को परोक्ष रूप से मान्यता देने के कारण समाज में व्याप्त शोषण एवं असमानता को मान्यता मिली है।

6. विचारधाराओं की दुर्गति

जातिवाद का एक भयंकर दुष्परिणाम यह हुआ है कि भारत में राजनीतिक विचारधाराओं की बहुत दुर्गति हुई है। साम्यवादी और समाजवाद भारतीय जातिवाद के दल-दल में फँसकर नष्ट हो रहे हैं। आर्थिक एवं वैचारिक चिन्तन निरर्थक हो गया है।

अतः भारतीय राजनीति में जातिवाद की भूमिका पर्याप्त विनाशकारी रही है। इस स्थिति को समाप्त किया जाना चाहिए।

जातिवाद की राजनीति को समाप्त करने के लिए सुझाव

जातिवाद की राजनीति को निम्नलिखित उपायों द्वारा समाप्त किया जा सकता है –

1. सभी लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष एवं जाति निरपेक्ष दलों को जातिवाद को  प्रोत्साहन नहीं देने का निश्चय करना चाहिए।
2. सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त शिक्षा संस्थाओं, प्रतिनिधि निकायों तथा सार्वजनिक संस्थाओं के जाति बोधक नामों को समाप्त कर देना चाहिए।
3. सरकार को चाहिए कि विभिन्न जातियों तथा वर्गों द्वारा प्रकाशित पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन पर जो जाति भावनाओं को उभरने में सहायता देती हो, प्रतिबन्ध लगा दे।
4. जातियों तथा सम्प्रदाय के नाम से संचालित समस्त स्कूल, कॉलेजों तथा विश्वविद्यालयों से इनके प्रबन्ध मण्डलों में से विशिष्ट जातियों के प्रतिनिधित्व को समाप्त किया जाये।
5. सरकार कानून पारित कर जाति के नाम पर बनी विभिन्न संस्थाओं, जैसे-वैश्य सभा, ब्राह्मण सभा, त्यागी सभा, माहेश्वरी सभा, जाट सभा आदि पर प्रतिबन्ध लगा दे।

निष्कर्ष-

निस्संदेह भारतीय राजनीति में जाति की विशेष भूमिका रही है, तथापि लोकसभा तथा विधानसभा के चुनावों में भारतीय मतदाता यद्यपि राष्ट्रीय नीतियों तथा कार्यक्रमों के आधार पर ही अपना मत देते हैं, पर स्थानीय निकाय चुनावों में आज भी जातिवाद की राजनीति का प्रभुत्व है।

The premier library of general studies, current affairs, educational news with also competitive examination related syllabus.

Related Posts

# भारतीय संविधान में किए गए संशोधन | Bhartiya Samvidhan Sanshodhan

Home / Constitution / PoliticalScience / QnA / # भारतीय संविधान में किए गए संशोधन | Bhartiya Samvidhan Sanshodhanभारतीय संविधान में किए गए संशोधन : संविधान के…

# भारतीय संविधान की प्रस्तावना | Bhartiya Samvidhan ki Prastavana

Home / Constitution / History / PoliticalScience / # भारतीय संविधान की प्रस्तावना | Bhartiya Samvidhan ki Prastavanaभारतीय संविधान की प्रस्तावना : प्रस्तावना, भारतीय संविधान की भूमिका…

# अन्तर्वस्तु-विश्लेषण प्रक्रिया के प्रमुख चरण (Steps in the Content Analysis Process)

Home / PoliticalScience / QnA / # अन्तर्वस्तु-विश्लेषण प्रक्रिया के प्रमुख चरण (Steps in the Content Analysis Process)अन्तर्वस्तु-विश्लेषण संचार की प्रत्यक्ष सामग्री के विश्लेषण से सम्बन्धित अनुसंधान…

# अन्तर्वस्तु-विश्लेषण का अर्थ, परिभाषा, विशेषताएं, उद्देश्य, उपयोगिता एवं महत्व (Content Analysis)

Home / PoliticalScience / QnA / # अन्तर्वस्तु-विश्लेषण का अर्थ, परिभाषा, विशेषताएं, उद्देश्य, उपयोगिता एवं महत्व (Content Analysis)अन्तर्वस्तु-विश्लेषण संचार की प्रत्यक्ष सामग्री के विश्लेषण से सम्बन्धित अनुसंधान…

# हॉब्स के सामाजिक समझौता सिद्धांत (Samajik Samjhouta Ka Siddhant)

Home / PoliticalScience / QnA / # हॉब्स के सामाजिक समझौता सिद्धांत (Samajik Samjhouta Ka Siddhant)सामाजिक समझौता सिद्धान्त : राज्य की उत्पत्ति सम्बन्धी सिद्धान्तों में सामाजिक समझौता…

# राज्य के कार्यक्षेत्र की सीमाएं (limits of state jurisdiction)

Home / QnA / PoliticalScience / # राज्य के कार्यक्षेत्र की सीमाएं (limits of state jurisdiction)राज्य के कार्यक्षेत्र की सीमाएं : राज्य को उसके कार्यक्षेत्र की दृष्टि…

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

3 × 1 =