वन संसाधन (Forest Resources) :
इस पृथ्वी पर विद्यमान सभी जीवधारियों का जीवन मिट्टी की एक पतली पर्त पर निर्भर करता है। वैसे यह कहना अधिक उचित होगा कि जीवधारियों के ‘जीवन-चक्र‘ को चलाने के लिए हवा, पानी और विविध पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है और मिट्टी इन सबको पैदा करने वाला स्रोत है। यह मिट्टी वनस्पति जगत को पोषण प्रदान करती है जो समस्त जन्तु जगत को प्राण-वायु, जल, पोषक तत्व, प्राणदायिनी औषधियाँ मिलती हैं, बल्कि इसलिए भी है कि वह जीवनाधार मिट्टी बनाती है और उसकी सतत् रक्षा भी करती है। इसलिए वनों को मिट्टी बनाने वाले कारखाने भी कहा जा सकता है।
वनों का हमारे जीवन में विशेष महत्व है। अनेक आर्थिक समस्याओं का समाधान इन्हीं से होता है। ईंधन, कोयला, औषधियुक्त तेल व जड़ी-बूटी, लाख, गोंद, रबड़, चन्दन, इमारती सामान और अनेक लाभदायक पशु-पक्षी और कीट आदि वनों से प्राप्त होते हैं।
वन विनाश के कारण एवं उत्पन्न समस्याएं :
वनों के उत्पादों एवं पेड़-पौधों का सतत् एवं अन्धाधुन्ध उपयोग प्राचीन काल से ही जारी है जिसके कारण वन संसाधन का अतिदोहन हो गया है। आज इसके कारण बहुत-सी समस्याएँ उत्पन्न हो गई है। वनों के कुछ प्रमुख उपयोग एवं वन विनाश के कारण व समस्याएँ निम्नलिखित हैं-
1. घरेलू एवं व्यापारिक उद्देश्यों की पूर्ति तथा उत्पन्न समस्याएं
लकड़ी की प्राप्ति के लिए पेड़ों की कटाई वनों के विनाश का वास्तविक कारण है। तेजी से बढ़ती जनसंख्या, औद्योगिक एवं नगरीकरण के तीव्र गति से वृद्धि के कारण लकड़ियों की माँग में दिनों-दिन वृद्धि होती जा रही है। परिणामस्वरूप वृक्षों की कटाई में भी निरन्तर वृद्धि हो रही है।
भूमध्यरेखीय सदाबहार वनों का प्रतिवर्ष 20 मिलियन हेक्टेयर की दर से सफाया हो रहा है। इस शताब्दी के आरम्भ से ही वनों की कटाई इतनी तेज गति से हुई है कि अनेक पर्यावरणीय समस्याएँ पैदा हो गयी हैं। आर्थिक लाभ के नशे में धुत्त लोभी भौतिकवादी आर्थिक मानव यह भी भूल गया कि वनों के व्यापक विनाश से उसका ही अस्तित्व खतरे में पड़ जायेगा। विकासशील एवं अविकसित देशों में ग्रामीण जनता द्वारा नष्टप्राय अवक्रमित वनों से पशुओं के लिए चारा एवं जलाने की लकड़ी के अधिक से अधिक संग्रह करने से बचाखुचा वन भी नष्ट होता जा रहा है।
2. कृषि भूमि तैयार करना
(i) मुख्य रूप से विकासशील देशों में मानव जनसंख्या में तेजी से हो रही वृद्धि के कारण यह आवश्यक हो गया कि वनों के विस्तृत क्षेत्रों को साफ करके उस पर कृषि की जाये ताकि बढ़ती जनसंख्या का पेट भर सके। इस प्रवृत्ति के कारण सवाना घास प्रदेश का व्यापक स्तर पर विनाश हुआ है, क्योंकि सवाना वनस्पतियों को साफ करके विस्तृत क्षेत्रों को कृषि क्षेत्रों में बदला गया है।
(ii) शीतोष्ण कटिबन्धीय घास के क्षेत्रों, यथा- सोवियत रूस के स्टेपी, उत्तरी अमेरिका के प्रेयरी, दक्षिणी अमेरिका के पम्पाज, दक्षिणी अफ्रीका के वेल्ड तथा न्यूजीलैण्ड के डाउन्स की घासों एवं वृक्षों को साफ करके उन्हें वृहद कृषि प्रदेशों में बदलने का कार्य बहुत पहले ही पूर्ण हो चुका है।
(ii) रूमसागरीय (भूमध्यसागरीय) जलवायु वाले क्षेत्रों के वनों को बड़े पैमाने पर साफ करके उन्हें उद्यान कृषि (horticulture) भूमि में बदला गया है। इसी तरह दक्षिणी एवं दक्षिणी-पूर्वी एशिया के मानसूनी क्षेत्रों में तेजी से बढ़ती मानव जनसंख्या की भूख मिटाने के लिए कृषि भूमि में विस्तार करने के लिए वन क्षेत्रों का बड़े पैमाने पर विनाश किया गया है।
3. अतिचारण
उष्ण तथा उपोष्ण कटिबन्धीय एवं शुष्क तथा अर्द्ध-शुष्क प्रदेशों के सामान्य घनत्व वाले वनों में पशुओं को चराने से वन क्षय हुआ है तथा हो रहा है। ज्ञातव्य है कि इन क्षेत्रों के विकासशील एवं अविकसित देशों में दुधारू पशु विरल तथा खुले वनों में भूमि पर उगने वाली झाड़ियों, घासों तथा शाकीय पौधों को चट कर जाते हैं, साथ ही साथ ये अपने खुरों से भूमि को इतना रौंद देते हैं कि उगते पौधों का प्रस्फुटन नहीं हो पाता है। अधिकांश देशों में भेड़ों के बड़े-बड़े झुण्डों ने तो घासों का पूर्णतया सफाया कर डाला है।
4. वनाग्नि (दावाग्नि)
(i) प्राकृतिक कारणों से या मानव-जनित कारणों से वनों में आग लगने से वनों का तीव्र गति से तथा लघुतम समय में विनाश होता है। वनाग्नि के प्राकृतिक स्रोतों में वायुमण्डलीय बिजली सर्वाधिक प्रमुख है। मनुष्य भी जाने एवं अनजाने रूप में वनों में आग लगा देता है।
(ii) मनुष्य कई उद्देश्यों से वनों को जलाता है— कृषि भूमि में विस्तार के लिए, झूमिंग कृषि के तहत कृषि कार्य के लिए, घास की अच्छी फसल प्राप्त करने के लिए आदि। वनों में आग लगने के कारण वनस्पतियों के विनाश के अलावा भूमि कड़ी हो जाती है, परिणामस्वरूप वर्षा के जल का जमीन में अन्तःसंचरण (infiltration) बहुत कम होता है तथा धरातलीय वाही जल (surface runoff) में अधिक वृद्धि हो जाती है, जिस कारण मृदा-अपरदन में तेजी आ जाती है। वनों में आये दिन आग लगने से जमीन पर पत्तियों के ढेर नष्ट हो जाते हैं, जिस कारण ह्यूमस तथा पोषक तत्वों की भारी कम हो जाती है। कभी-कभी तो ये पूर्णतया नष्ट हो जाते हैं।
(iii) वनों में आग के कारण मिट्टियों, पौधों की जड़ों तथा पत्तियों के ढेरों में रहने वाले सूक्ष्म जीव मर जाते हैं। स्पष्ट है कि वनों में आग लगने या लगाने से न केवल प्राकृतिक वनस्पतियों का विनाश होता है तथा पौधों का पुनर्जनन अवरुद्ध हो जाता है वरन् जैवीय समुदाय को भी भारी क्षति होती है जिस कारण पारिस्थितिकीय असन्तुलन उत्पन्न हो गया है।
5. वनों का चरागाहों में परिवर्तन
विश्व के रूमसागरीय जलवायु वाले क्षेत्रों एवं शीतोष्ण कटिबन्धीय क्षेत्रों खासकर उत्तरी एवं दक्षिणी अमेरिका तथा अफ्रीका में डेयरी फार्मिंग के विस्तार एवं विकास के लिए वनों को व्यापक स्तर पर पशुओं के लिए चरागाहों में बदल जाता है।
6. बहु-उद्देशीय नदी-घाटी परियोजनाओं के कार्यान्वयन के समय विस्तृत वन क्षेत्र का क्षय
बहु-उद्देशीय नदी-घाटी परियोजनाओं के कार्यान्वयन के समय विस्तृत वन क्षेत्र का क्षय होता है, क्योंकि बाँधों के पीछे निर्मित वृहत् जलभण्डारों में जल के संग्रह होने पर वनों से आच्छादित विस्तृत भूभाग जलमग्न हो जाता है जिस कारण न केवल प्राकृतिक वन सम्पदा समूल नष्ट हो जाती है वरन् उस क्षेत्र का पारिस्थितिकी सन्तुलन ही बिगड़ जाता है।
7. स्थानान्तरीय या झूमिंग कृषि
झूमिंग कृषि दक्षिणी एवं दक्षिणी-पूर्वी के पहाड़ी क्षेत्रों में वनों के क्षय एवं विनाश का एक प्रमुख कारण है। कृषि की इस प्रथा के अन्तर्गत पहाड़ी ढालों पर वनों को जलाकर भूमि को साफ किया जाता है। जब उस कृषि की उत्पादकता घट जाती है तो उसे छोड़ दिया जाता है।
वन संसाधन का संरक्षण :
मनुष्य इस पृथ्वी का सबसे सफल जीव है और जब से इसकी उत्पत्ति हुई है तभी से यह अपने अस्तित्व को बचाये रखने के लिए प्रयासरत है। इस प्रयास में इसने सबसे अधिक नुकसान वन एवं वन-सम्पदा को पहुंचाया है। इसने अपने लिए भोजन जुटाने में, रहने के लिए मकान के निर्माण में, दवा निर्माण के लिए कारखाने खोलने में, श्रृंगार तथा विलासिता के साधन जुटाने में, वस्त्र निर्माण में, आवागमन हेतु मार्ग बनाने में, खेती के लिए जमीन जुटाने में, सिंचाई के लिए नहर बनाने में, विद्युत तथा आवागमन जैसे दूसरे कई महत्वपूर्ण कार्यों को पूरा करने में अधिक से अधिक वनों की कटाई करके इनको नष्ट किया है।
वनों की उपयोगिता को देखते हुए हमें इसके संरक्षण हेतु निम्नलिखित उपाय अपनाने चाहिए-
- वनों के पुराने एवं क्षतिग्रस्त पौधों को काटकर नये पौधों या वृक्षों को लगाना।
- नये वनों को लगाना या वनारोपण अथवा वृक्षारोपण।
- आनुवंशिकी के आधार पर ऐसे वृक्षों को तैयार करना जिससे वन सम्पदा का उत्पादन बढ़े।
- पहाड़ एवं परती जमीन पर वनों को लगाना।
- सुरक्षित वनों में पालतू जानवरों के प्रवेश पर रोक लगाना।
- वनों को आग से बचाना।
- जले वनों की खाली परती भूमि पर नये वन लगाना।
- रोग प्रतिरोधी तथा कीट प्रतिरोधी वन वृक्षों को तैयार करना।
- वनों में कवकनाशकों तथा कीटनाशकों का प्रयोग करना।
- वन कटाई पर प्रतिबन्ध लगाना।
- आम जनता में जागरूकता पैदा करना, जिससे वे वनों के संरक्षण पर स्वस्फूर्त ध्यान दें।
- वन तथा वन्य जीवों के संरक्षण के कार्य को जन-आन्दोलन का रूप देना।
- सामाजिक वानिकी को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
- शहरी क्षेत्रों में सड़कों के किनारे, चौराहों तथा व्यक्तिगत भूमि पर पादप रोपण को प्रोत्साहित करना।
वनों के संरक्षण के लिए किये गये कार्यों को एक साथ वन प्रबन्धन (Forest management) कहा जाता है अर्थात् वन प्रबन्धन के अन्तर्गत वनों को लगाना, उनके उत्पादों का समुचित उपयोग करना, उनकी उत्पादकता को बढ़ाना एवं वनों के सम्बन्ध में शोधन कार्य करना इत्यादि कार्य आते हैं।