बस्तर का ऐतिहासिक दशहरा विभिन्न विधि-विधानों के संगम का पर्व है। इस पर्व के प्रत्येक विधि-विधान की अपनी ऐतिहासिकता है, जो स्वयमेव ही इस पर्व को ऐतिहासिक भव्यता प्रदान करती है। यह पर्व निरंतर 75 दिनों तक चलती है। संपूर्ण भारत में मनाए जाने वाले दशहरे की प्राचीनता राम-रावण के संघर्ष से प्रेरित है तथा बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है। जबकि बस्तर का दशहरा पर्व इस परिपाटी से परे, उड़ीसा के भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा से प्रेरित एवं देवी दंतेश्वरी की आस्था से ओतप्रोत है। यद्यपि बस्तर दशहरा की मूल ऐतिहासिकता काकतीय (चालुक्य) वंश के चौथे नरेश पुरुषोत्तम देव (1408-1439 ई.) से प्रारंभ होती है।
बस्तर के दशहरा पर्व से संबंधित प्रमुख सांस्कृतिक स्थल :
1. दंतेश्वरी मंदिर व ज्याेति कलश भवन
राजमहल परिसर में स्थित मांई दंतेश्वरी मंदिर शाक्त अनुयायियों की आस्था का प्रमुख केन्द्र है जो सिंहद्वार से लगकर ठीक अंदर ही स्थित है। बस्तर दशहरा पर्व के किसी भी विधि-विधान को प्रारंभ करने से पूर्व दंतेश्वरी मंदिर में पूजा-अर्चना की जाती है। दंतेश्वरी मंदिर परिसर में ही ज्योति कलश भवन, अवस्थित है, जहाँ बस्तर दशहरा पर्व के अवसर पर ‘नवरात्र पूजा’ विधानांतर्गत अश्विन शुक्ल 1 को मनोकामना ज्योति कलश स्थापित किए जाते हैं।
2. सिरहासार
इस सार (भवन) का निर्माण 1914 से 1925 ई. में काकतीय (चालुक्य) वंश के राजा रूद्रप्रताप देव द्वारा कराया गया था। ‘सिरहासार’ का अर्थ होता है – ‘सिरहा’ अर्थात् देवी-देवताओं का पुजारी एवं ‘सार’ अर्थात ठहरने का स्थान। इस भवन में प्रमुख विधि-विधानांतर्गत भाद्र-शुक्ल त्रयोदशी को ‘डेरी गड़ाई’ अश्विन शुक्ल प्रतिपदा के दिन सायं के समय ‘जोगी बिठाई’ की रस्म एवं अश्विन शुक्ल नवमी को ‘जोगी उठाई’ की रस्म सम्पन्न कराई जाती है। संपूर्ण विधि-विधानों में प्रमुख रूप से अश्विन शुक्ल द्वादशी को ‘मुरिया दरबार’ सम्पन्न कराया जाता है।
3. सिरहासार चौक व रथ स्थल
मुख्य मार्ग में स्थित सिरहासार चौराहा, सिरहासार के नाम पर ही ‘सिरहासार चौक’ के नाम से जाना जाता है। दंतेश्वरी मंदिर इस चैराहे से लगभग 150 मीटर की दूरी पर स्थित है। सिरहासार चौक में ही सिरहासार के बगल में रथ स्थल है, जहाँ पूर्व के वर्षों में उपयोग किए गए ‘फूल रथ’ व ‘रैनी रथ’ रखे जाते हैं। नए रथ निर्माण के लिए साल के विशाल लट्ठों की खेप यहीं पर उतारी जाती है व संपूर्ण रथ का निर्माण भी यहीं पर किया जाता है। यहीं से अश्विन शुक्ल द्वितीया से सप्तमी तक फूलरथ की परिक्रमा प्रारंभ होती है।
4. काछिन गुडी़
पथरागुड़ा के भंगाराम चैक में स्थित इस गुड़ी(मंदिर) का निर्माण काकतीय वंश के तेरहवें नृपति दलपतदेव (1716 से 1775 ई) के द्वारा 1772 ई. के आसपास कराया गया था। काछिन गादी पूजा के दिन इस गुड़ी में दंतेश्वरी मंदिर से निकल कर शोभायात्रा मुंडाबाजा एवं आतिशबाजी के साथ पहुंचती है। काछिनगुड़ी के सामने लकड़ी का बना झूला लगाया जाता है, जिसमें काँटे की बनी गद्दी आसन के रूप में लगी होती है। इसी काँटे की गद्दी पर काछिन देवी आरूढ़ित कन्या को लिटाकर झुलाया जाता है।
5. जिया डोरा
जिया डेरा का निर्माण काकतीय वंश के राजा रूद्रप्रताप देव के द्वारा 20वीं शताब्दी के प्रारंभ में किया गया। जिया डेरा का शाब्दिक अर्थ होता है, ‘जिया’ अर्थात दंतेवाड़ा स्थित दंतेश्वरी मंदिर के पुजारी तथा ‘डेरा’ अर्थात ठहरने का स्थान।
6. निशा जात्रा गुड़ी
इस गुड़ी (मंदिर) का निर्माण काकतीय वंश के 18वें नरेश रूद्रप्रताप देव (1891-1921 ई) के द्वारा 20वीं शताब्दी के प्रारंभ में कराया गया था। संभवतः निशा जात्रा गुड़ी व जिया डेरा का निर्माण एक ही समय सम्पन्न कराया गया जान पड़ता है। दुर्गाष्टमी के दिन अर्धरात्रि में अनुपमा चौक स्थित इस गुड़ी में ‘निशाजात्रा पूजा विधान’ सम्पन्न होता है।
7. कुम्हड़ाकोट रथ स्थल
सिरहासार से दो किलोमीटर दूर कुम्हड़ाकोट में रथ स्थल स्थित है। विजयदशमी के रथ की परिक्रमा जब पूरी हो चुकी होती है, तब भतरे मुरिया वनवासी युवक आठ पहिए वाले रथ को चुराकर प्रथानुसार कुम्हड़ाकोट ले जाते हैं। दूसरे दिन इस कार्यक्रम के उपरांत रथ व देवी-देवताओं का विशाल जूलूस दंतेश्वरी मंदिर की ओर यहीं से प्रस्थान करता है।
8. माड़िया सराय
माड़िया सराय गीदम-दंतेवाड़ा मार्ग पर मुख्य चैराहे से करीब 2.5 कि.मी. की दूरी पर स्थित है, जिसका निर्माण वर्तमान में छत्तीसगढ़ शासन द्वारा कराया गया है। माड़िया सराय अगल-बगल में स्थित दो पक्के भवन हैं जहाँ रथ खींचने वाले किलेपाल के माड़िया ठहरते हैं।
9. मांझी डेरा एवं लोहरा लाड़ी
बस्तर दशहरा पर्व में सम्मिलित होने वाले मांझियों के ठहरने हेतु मांझी डेरा भवन तथा लोहार कारीगरों को लोहे के कार्य करने हेतु ‘लोहारलाड़ी’ का प्रबंध किया जाता है।
10. मावली माता मंदिर
सिरहासार के सामने मावली माता का मंदिर अवस्थित है। मावली माता के मंदिर में मावली परघाव के अवसर पर सभी परगनाओं से आमंत्रित देवी-देवताओं को ठहराया जाता है। रात्रि की बेला में सभी देवी-देवताओं की डोली व छत्र एवं आंगादेवों की शोभायात्रा जिया डेरा तक ले जायी जाती है। दंतेवाड़ा की मावली माता की डोली व दंतेश्वरी माई के छत्र को पुनः विशाल जूलूस के साथ दंतेश्वरी मंदिर में प्रतिष्ठित कर दिया जाता है व पुनः अन्य देवी-देवताओं को मावली मंदिर प्रांगण में स्थान दिया जाता है।
बस्तर दशहरा के प्रमुख विधि विधान/रस्म :
1. पाटा जात्रा विधान
हरियाली अमावस्या पर परंपरागत रूप से ‘पाटा जात्रा विधान’ में रथ निर्माण की पहली लकड़ी पूजी जाती है और इस पूजा विधान के प्रारंभ होने के साथ ही 75 दिवस तक चलने वाले ‘बस्तर दशहरा पर्व’ का शुभारंभ हो जाता है।
रथ निर्माण की प्रथम लकड़ी ग्राम बिलोरी के ग्रामीणों द्वारा लाई जाती है। सैकड़ों वर्षों से यह परंपरा अक्ष्क्षुण बनी हुई है। प्रथम लकड़ी को ‘टुरलु खोटला’ व ‘टीका पाटा’ भी कहा जाता है, जिसे लाकर ग्राम बिलोरी के ग्रामीणों द्वारा मांई दंतेश्वरी मंदिर के समक्ष रखा जाता है।
लकड़ी लाने के लिए ग्राम बिलोरी के कोटवार द्वारा सर्वप्रथम मुनादी करा दी जाती है। मुनादी उपरांत सभी ग्रामीण एकत्रित होकर जंगल प्रस्थान करते हैं और ‘टीका पाटा’ लेकर गाँव वापस लौटते हैं। इसे निजी साधन यथा बैलगाड़ी अथवा शासकीय वाहन की सहायता से सिंह ड्योढ़ी तक पहुंचाते हैं।
इस पूजा विधान के अवसर पर सर्वप्रथम लकड़ी के लट्ठे की सिंह द्वार के समीप विधिवत् पूजा की जाती है। कुछ दिनों पश्चात शासन से अनुमति अनुसार रथ निर्माण के लिए बहुतायत में लकड़ियाँ लाई जाती है। अतः इस प्रथा के माध्यम से बस्तर का जनजीवन लकड़ी के प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करता है।
2. डेरी गड़ाई विधान
बस्तर दशहरा का दूसरा महत्वपूर्ण विधान ‘डेरी गड़ाई विधान’ है, जो भादों मास शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी तिथि को मनाया जाता है। इस रस्म हेतु ग्राम बिरिनपाल के ग्रामीणों द्वारा लाई गई साल वृक्ष की दो टहनियों को पूरे पूजा विधान के साथ सिरहासार भवन में मोंगरी मछलियों की बलि चढ़ाकर लगा दिया जाता है। साथ ही बस्तर की आराध्य देवी दंतेश्वरी से दशहरा पर्व के निर्विध्न सम्पन्न होने की कामना की जाती है। इस विधान का संचालन तथा पूजन माँई दंतेश्वरी के मुख्य पुजारी द्वारा वर्षों से किया जा रहा है।
इस पूजा विधान के पश्चात सिरहासार रथ निर्माण करने वाले कारीगरों का डेरा अर्थात् अस्थाई निवास बन जाता है। वे यहाँ निवासरत रहते हुए रथ निर्माण का कार्य सम्पन्न करते हैं। प्रतिवर्ष सिरहासार भवन प्रांगण में बढ़ई व लोहार कारीगरों द्वारा रथ निर्माण कार्य सामूहिक सहयोग की भावना से पूर्ण किया जाता है।
3. बारसी उतारनी रस्म
बारसी उतारनी रस्म के साथ ही बस्तर दशहरा पर्व में लकड़ी के नए रथ का निर्माण प्रारंभ हो जाता है। इसमें सर्वप्रथम रथ के निर्माण में उपयोग किए जाने वाले औजारों की पूजा की जाती है, तत्पश्चात नए रथ का निर्माण कार्य प्रारंभ किया जाता है इस पर्व में उपयोग किया जाने वाला ‘फूलरथ’ एवं ‘रैनी रथ’ (विजयरथ) आवर्ती रूप से नया बनाया जाता है अर्थात् एक वर्ष रैनी रथ तथा दूसरे वर्ष फूल रथ का निर्माण किया जाता है।
परंपरानुसार रथ निर्माण के प्रथम चरण में ‘बेडाउमरगाँव’ व ‘झार उमरगाँव’ के लगभग पचास हुनरमंद ग्रामीण नए रथ को आकार देने हेतु पहुंचते हैं। जिनके ठहरने की व्यवस्था सिरहासार में प्रतिवर्ष की जाती है। अगले चरण में अन्य कारीगर भी शहर पहुंचकर रथ निर्माण में अपना योगदान देते हैं, इस प्रकार लगभग सौ ग्रामीण दिन-रात जुटकर आठ पहिए वाले रैनी रथ व चार पहिए वाले फूलरथ को आकार देते हैं।
4. नार फोड़नी रस्म
बारसी उतारनी रस्म के पश्चात ‘नार फोड़नी रस्म’ पूरी की जाती है। रथ के निर्माणाधीन पहिए में छेद करने की यह प्रथा ‘नार फोड़नी रस्म’ कहलाती है। इस रस्म के पश्चात रथ निर्माण में लोहे का उपयोग प्रारंभ किया जाता है। साथ ही लोहार कारीगरों द्वारा रथ के पहियों के विभिन्न हिस्सों को लोहे की पट्टियों तथा छल्लों की सहायता से निश्चित आकार प्रदान करते हैं। साथ ही रथ निर्माण में लगने वाले लोहे के सामान कील, पट्टा आदि को आकार दिया जाता है.
5. काछिन गादी पूजा विधान
बस्तर दशहरे का शुभारंभ हरियाली अमावस्या के दिन से माना जाता है, परंतु इसकी औपचारिक घोषणा काछिनगादी पूजा विधान के माध्यम से की जाती है।
काछिनगादी का कार्यक्रम अश्विन मास की अमावस्या के दिन आयोजित किया जाता है। इस कार्यक्रम के लिए राजा अथवा राजा का प्रतिनिधि संध्या के समय धूमधाम से जूलूस लेकर ‘काछिनगुड़ी’ पहुंच जाता है। आज भी दंतेश्वरी मंदिर के पुजारी द्वारा काकतीय राजवंश की ओर से इस कार्यक्रम की अगुवाई की जाती है। मान्यता के अनुसार ‘‘काछिन देवी’’ (रण की देवी) धन-धान्य की रक्षा करती है। कार्यक्रम के तहत एक भैरम भक्त सिरहा आव्हान करता है और मिरगान जाति की कुंवारी कन्या पर काछिन देवी आरूढ़ हो जाती है। देवी आरूढ़ हो जाने पर कन्या को एक कांटेदार झूले पर लिटाकर सिरहा उसे झूलाता है। तत्पश्चात देवी की पूजा अर्चना की जाती है और उनसे दशहरा पर्व मनाने की स्वीकृति प्राप्त की जाती है। काछिन देवी से स्वीकृति सूचक पुष्प रूपी प्रसाद मिलने के पश्चात बस्तर का दशहरा पर्व धूमधाम से प्रारंभ हो जाता है।
6. रैला पूजा
काछिन गुड़ी में ‘काछिन गादी पूजा विधान’ हो जाने के बाद जगदलपुर के गोल बाजार में रात्रि को ‘रैला पूजा’ होती है। रैला पूजा मिरगान जाति की पूजा है। रैला पूजा के अंतर्गत मिरगान महिलाएँ अपनी मिरगानी बोली में एक गीत कथा प्रस्तुत करती है, जिसमें रैला देवी का कारूणिक चित्रण मिलता है।
7. कलश स्थापना विधान
अश्विन शुक्ल 1 को संपूर्ण भारत में नवरात्र पर्व के प्रथम दिवस को शाक्त भक्त मंदिरों में मनोकामना ज्योति कलश स्थापित करते हैं। इसी दिन बस्तर दशहरा पर्व में भी नवरात्र उत्सव प्रारंभ किया जाता है। इस अवसर पर दंतेश्वरी मंदिर से लगे ज्योति कलश भवन में कलश स्थापित किए जाते हैं।
8. जोगी बिठाई विधान
अश्विन शुक्ल 1 से सिरहासार में जोगी बिठाने की प्रथा पूरी की जाती है। सिरहासार भवन के विशाल कक्ष में बने आयताकार गड्ढे में आगामी नौ दिनों तक निराहार जोगी बैठता है। परंपरानुसार बड़े आमाबाल परगना के ग्रामीण ही जोगी बनते हैं। सायंकाल के समय जोगी मांई दंतेश्वरी के दर्शन कर, मावली माता मंदिर में पूजा-अर्चना के पश्चात माता के खड्ग के साथ गड्ढे में समाधि अवस्था में बैठ जाता है। माना जाता है कि योग साधना में बैठे जोगी को माता का खड्ग शक्ति प्रदाय करता है। जोगी के दर्शनार्थ सैकड़ों लोग प्रतिदिन आते हैं।
9. मगरमुंही चढ़ानी रस्म
बस्तर दशहरा पर्व में निर्माणाधीन आठ पहिए वाले विजय रथ के निर्माण का प्रमुख विधान ‘मगरमुंही चढ़ानी’ अश्विन शुक्ल 3 को मनाया जाता है। सिरहासार परिसर में तेजी से आकार पा रहे रथ के आठों पहिए जब बनकर तैयार हो जाते हैं तब इन्हें आपस में जोड़कर मगरमुंही चढ़ानी की रस्म रथ निर्माण दल के द्वारा विधि-विधान से पूरी की जाती है। रथ को आकार देने वाली तीन विशाल काष्ठ खंडों को मगरमुंही की संज्ञा दी गई है, जिस पर टनों वजनी दुमंजिला रथ का भार टिका होता है। मगरमुंही में ही रस्सियां बांधकर रथ खींचा जाता है।
10. फूल रथ की परिक्रमा
जोगी बिठाई रस्म के दूसरे दिन से अर्थात् अश्विन शुक्ल पक्ष 2 (द्वितीया) से फूल रथ की परिक्रमा प्रारंभ होती है। रथ रैनी रथ से छोटा तथा दुमंजिला होता है जिसे सजाने हेतु फूलों का प्रयोग किया जाता है इसलिए इसे ‘फूलरथ’ कहा जाता है। दशहरा पर्व के अवसर में इस रथ पर माँई दंतेश्वरी के छत्र को ससम्मान आरूढ़ित कर परंपरानुसार गोलबाजार क्षेत्र की परिक्रमा कराई जाती है। इसी क्रम के सैकड़ों ग्रामीणों द्वारा रथ खींचा जाता है।
11. दशहरा में पधारने माई जी को नेवता रस्म
संपूर्ण बस्तर दशहरा पर्व के आराध्यों में मांई दंतेश्वरी का स्थान सर्वोपरि है, इसलिए दंतेवाड़ा शक्तिपीठ में विराजी माई दंतेश्वरी को बस्तर दशहरा में सम्मिलित होने संबंधी न्यौता प्रेषित किया जाता है। साथ ही बड़ेडोंगर व छोटे डोंगर में प्रतिष्ठित देवी दंतेश्वरी को पर्व में पधारने हेतु भी निमंत्रण भेजी जाती है। निमंत्रणोपरांत नवरात्री के नवमी तिथि को दंतेवाड़ा से देवी जी की डोली व छत्र का नगर आगमन होता है, जिनके स्वागत व सम्मान में बस्तर दशहरा की मावली परघाव की रस्म पूरी की जाती है।
12. बेल न्यौता व बेल पूजा विधान
सप्तमी के पूर्व छठवें दिवस अर्थात् फूलरथ की पाँचवें दिन की परिक्रमा समाप्त हो जाने के बाद जगदलपुर के समीप स्थित ग्राम सरगीपाल जहाँ एक बेल वृक्ष जाे लंबे समय से विद्यमान है, वहां आवश्यक रस्म के पश्चात उस पेड़ से एक जोड़ा बेल का फल तोड़कर दंतेश्वरी मंदिर में स्थापित कर दिया जाता है।
13. महाअष्टमी पूजा विधान
अश्विन शुक्ल 8 को दुर्गाष्टमी के दिन दंतेश्वरी मंदिर में महाअष्टमी पूजा विधान संपन्न कराया जाता है। संपूर्ण स्थापित कलशों की पूजा तथा शास्त्रोचित मंत्रों के उच्चारण के साथ ही मुख्य पुजारी द्वारा यह विधान सम्पन्न कराया जाता है।
14. निशा जात्रा पूजा विधान
अश्विन शुक्ल 8 को ही निशा जात्रा (रात्रि शोभा यात्रा) का कार्यक्रम सम्पन्न होता है। रात्रि में पूजा मंडप तक निशा जात्रा का जूलूस पहुंचता है। वहाँ दुर्गापूजा की जाती है। निशा जात्रा गुड़ी में बकरों की बलि दी जाती है।
15. कुंवारी पूजा विधान
दुर्गाष्टमी के अगले दिन अर्थात् अश्विन शुक्ल 9 (नवमी) को कुंवारी पूजा विधान सम्पन्न होता है। इसके अंतर्गत दंतेश्वरी मंदिर में सर्वप्रथम नौ कुंवारी कन्याओं को पूर्णरूपेण श्रृंगारित कर उन्हें देवी रूप में परिणीत करने के पश्चात पूजा-अर्चना कर नियत स्थान में आसन दिया जाता है। तत्पश्चात सभी कन्याओं को भेंट आदि प्रदान कर आशीर्वाद प्राप्त करने के उपरांत उन्हें ससम्मान बिर्दाइ दी जाती है।
16. जोगी उठाई पूजा विधान
अश्विन शुक्ल 1 से सिरहासार के आयताकार गड्ढे में बैठे जोगी को उठाने की प्रथा अश्विन शुक्ल 9 को सम्पन्न कराई जाती है। ज्ञातव्य हो कि सिरहासार के विशाल प्रांगण में बने गड्ढे में आमाबाल परगना के एक व्यक्ति को चिन्हित कर, जो विगत वर्षों से जोगी के रूप में बैठता आ रहा है, को जोगी के रूप में प्रतिष्ठित किया जाता है जिसे नवमी को संध्या बेला में विधि पूर्वक उठाया जाता है।
17. मावली परघाव
अश्विन शुक्ल 9 को ही बस्तर दशहरे का लोकप्रिय व श्रृद्धा से परिपूरित ‘मावली परघाव’ विधान सायं के समय ‘जोगी उठाई’ के पश्चात पूरा होता है। ‘मावली परघाव’ का अर्थ होता है – मावली देवी का सत्कार। मावली नाम संस्कृत के ‘मौली’ शब्द का अपभ्रंश मालूम पड़ता है। मौली शब्द का अर्थ होता है शीर्षस्थ। इस कार्यक्रम के अंतर्गत सर्वप्रथम मावली माता की डोली व छत्र दंतेवाडा से जगदलपुर स्थित प्राचीन ‘जिया डेरा’ में लाई जाती है, जहाँ आत्मीय स्वागतोपरांत अस्थाई रूप से यहाँ रखा जाता है। फिर मावली माता की डोली व छत्र का परघाव कर उसे कंधा देकर मावली मंदिर पहुंचाते हैं, फिर दंतेश्वरी मंदिर में प्रतिष्ठित कर दिया जाता है।
18. ‘भीतर रैनी’ विधान
अश्विन शुक्ल 9 को आठ पहिए वाले रैनी रथ का निर्माण सायं काल तक पूर्णता की ओर होता है और अश्विन शुक्ल 10 तक प्रातः यह पूर्ण कर लिया जाता है। विजय दशमी के कार्यक्रम को ‘भीतर रैनी’ कहते हैं। इस दिन आठ पहिए वाला बड़ा रैनी रथ शाम को 4 बजे से नगर के भीतर ही अपने पूर्ववर्ती ‘फूलरथ’ की परिधि को दो बार घूम लेता है। इसके पश्चात वह सिंहड्योढ़ी पहुंचता है, वहाँ अभिवादन हो लेने के पश्चात कार्यक्रम सम्पन्न हो जाता है।
भीतर रैनी का कार्यक्रम पूरा हो जाने के बाद भतरे मुरिया आदिवासी युवक आठ पहिए वाले रैनी रथ को चुराकर प्रथानुसार कुम्हड़ाकोट ले जाते हैं। कुम्हड़ाकोट सिरहासार से दो किलोमीटर दूर पड़ता है, जो लालबाग नामक स्थान के समीप स्थित है।
19. रथ यात्रा पूजा विधान (बाहर रैनी)
अश्विन शुक्ल 11 को सर्वप्रथम राजपरिवार कुम्हड़ाकोट में स्थित गुड़ी में अपनी ईष्ट देवी को नया अन्न चढ़ाकर, उस अन्न को प्रसाद के रूप में ग्रहण करते हैं। इसके पश्चात नवाखानी की रस्म पूरी की जाती है और इसके बाद ही संपूर्ण बस्तर में नवाखानी का पर्व मनाया जाता है। दशहरे वाली रात्रि को भतरे आदिवासी युवकों द्वारा चुराकर लाए गए रैनी रथ को दूसरे दिन नवाखानी के पश्चात माई जी के छत्र की पूजा-अर्चना कर उसे ससम्मान रथारूढ़ कर सायं करीब 5 बजे रैनी रथ सिंहड्योढ़ी के लिए रवाना किया जाता है। इसी क्रम में अन्य आगमित देवी-देवताओं का भी सम्मान पूजा-अर्चना के माध्यम से कर उन्हें भी इस रथयात्रा में सम्मिलित कर लिया जाता है।
रैनी रथ सैकड़ों की संख्या में पहुंचे बड़ेकिलेपाल नामक स्थान के मड़ियाओं द्वारा खींचा जाता है। देर रात तक रैनी रथ सिंहड्योढ़ी पहुंचता है, जहाँ रीति-रिवाज के साथ ससम्मान मांई जी के छत्र को उतारकर दंतेश्वरी मंदिर ले जाया जाता है।
20. मुरिया दरबार
बस्तर दशहरा अवसर पर आयोजित होने वाला महत्वपूर्ण पंचायत ‘मुरिया दरबार’ के नाम से जाना जाता है। 8 मार्च 1876 ई. को सर्वप्रथम जगदलपुर में मुरिया दरबार की व्यवस्था की गई, जहाँ सिंरोचा के डिप्टी कमिश्नर मैकजार्ज ने बस्तर के प्रशासन की कमजोरियों व समस्याओं को दूर करने का संकल्प लिया। तब से उक्त मुरिया दरबार, बस्तर दशहरा के अवसर पर आयोजित होने वाले प्रजातांत्रिक पंचायत के रूप में प्रचलित है।
आज भी यह कार्यक्रम अल्प परिवर्तन के साथ ठीक उसी प्रकार चला आ रहा है जैसा रियासत काल में हुआ करता था। प्राचीन रियासतकालीन राजा-महाराजाओं के स्थान पर अब जनप्रतिनिधि, बस्तर महाराजा, सांसद, विधायक एवं कभी-कभी राज्य के मुख्यमंत्री भी सम्मिलित होते हैं। यहाँ जनता की समस्याओं पर मंत्रणा कर उसके निराकरण का प्रयास किया जाता है। मुरिया दरबार में मांझी, चालकी-पालकी, मेम्बर-मेम्बरिन नामक पदाधिकारी अपनी व अपने क्षेत्र की जनता की समस्याओं को प्रस्तुत करते हैं।
21. काछिन जात्रा एवं कुटुम्ब जात्रा पूजा विधान
दशहरा पर्व निर्विध्न संपन्न होने की खुशी में काछिन जात्रा तथा दशहरे में आमंत्रित देवी-देवताओं के सम्मान में विदाई के पूर्व कुटुम्ब जात्रा के शिष्टाचार मूलक कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। पथरागुड़ा जाने के रास्ते पर काछिनगुड़ी के निकट एक पुराना काछिन मंडप बना हुआ है, वहाँ जात्रा पूजन के द्वारा काछिन देवी के प्रति आभार व्यक्त किया जाता है। उल्लेखनीय है कि दशहरा पर्व प्रारंभ होने के पूर्व अनुमति स्वरूप प्रतीक पुष्प काछिन देवी से ही प्राप्त किए जाते हैं। गंगामुंडा तालाब के पास बने पुराने मंडप पर कुटुम्ब जात्रा का कार्यक्रम होता है। ग्रामीण देवी-देवताओं का कुटुम्ब गंगामुण्डा में सुबह से ही जमा होने लगता है। यहाँ का वातावरण देव-धामियों के सम्मेलन सदृश्य प्रतीत होने लगता है।
22. दंतेश्वरी देवी का छत्र व मावली माता की डोली का बिदाई कार्यक्रम (ओहाड़ी)
दशहरा पर्व के अंत में दंतेश्वरी देवी के छत्र व मावली माता की डोली की बिदाई का कार्यक्रम भव्य होता है। प्रातःकाल से ही सिंहड्योढ़ी के समक्ष बने मंच पर देवी की डोली व छत्र को श्रृद्धालुओं के दर्शनार्थ ससम्मान रखा जाता है। यह कार्यक्रम कार्तिक कृष्ण पक्ष 1 को सम्पन्न होता है। दर्शन पूजन के पश्चात् सामूहिक आरती होती है। सिंहड्योढ़ी से जियाडेरा तक भव्य शोभायात्रा निकाली जाती है। जियाडेरा से सशस्त्र. सलामी के पश्चात फूलों से सुसज्जित वाहन में देवी की डोली व छत्र को दंतेवाड़ा के लिए रवाना कर दिया जाता है। रात्रि में मार्ग में आंवराभाटा में विश्राम के पश्चात् अगले दिन डोली व छत्र को आरूढ़ित कराया गया वाहन दंतेवाड़ा के मावली मंदिर पंहुचता है।
बस्तर दशहरा में जनजातीय भागीदारी :
छत्तीसगढ़ राज्य के सुदूर दक्षिण में स्थित बस्तर संभाग आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र के रूप में विख्यात है। इस आदिवासी क्षेत्र की अपनी पृथक संस्कृति, सभ्यता, रहन-सहन, खानपान एवं परंपराएँ हैं। आदिवासियों की विशाल संख्या के साथ-साथ इनकी विभिन्न पर्व-त्योहारों में संपृक्तता व अंचल में जनजातीय पर्वो की बाहुल्यता स्वभाविक ही जान पड़ती है।
शाक्त भक्ति से श्रद्धापूरित बस्तर की जनता देवी दंतेश्वरी के प्रति अपनी आस्था से वशीभूत स्वयं के निजी स्वार्थ से परे बस्तर के दशहरा पर्व में विभिन्न विधि-विधानों के अवसर पर अपना अर्थ व बल प्रदान करती है। इसका ज्वलंत उदाहरण बेड़ाउमरगाँव व झारउमरगाँव के आदिवासी बढ़ई कारीगरों के द्वारा सैकड़ों की संख्या में आकर निःस्वार्थ भावना से देवी दंतेश्वरी की श्रद्धा में आल्हादित होकर कई दिनों तक लकड़ी के विशाल रथ का निर्माण किया जाता है। इस कार्य के लिए उन्हें न कोई मेहनताना दिया जाता है और सीमित भोज्य पदार्थो के अतिरिक्त न ही कोई अर्थ लाभ।
इस संबंध में उनका मंतव्य स्पष्ट है कि वे देवी दंतेश्वरी के प्रति कृतज्ञ हैं जिनके प्रताप से उन्हे व उनके पूर्वजों को रथ निर्माण का सौभाग्य प्राप्त हुआ। रथ निर्माण का कार्य देवी दंतेश्वरी की सेवा का एक माध्यम है, जिसके बदले अर्थ लाभ की कामना से देवी के संभावित प्रकोप से भी वे भयाक्रांत हो जाते हैं।
बस्तर दशहरा महापर्व में आदिवासी युवकों का सबसे बड़ा योगदान ‘रैनीरथ’ को खींचने में होता है। रियासतकालीन परंपरानुरूप किलेपाल क्षेत्र के माड़िया रथ खींचने हेतु आमंत्रित किए जाते हैं। इस कार्य हेतु 30 परगना के 2000 से 3000 माड़िया युवक 8 पहिए के रैनी रथ को खींचते हैं। यद्यपि रथ कई टन वजनी होता है तथा उसे खींचने के लिए अत्याधिक मानव बल की आवश्यकता होती है।
बाहर रैनी विधान सम्पन्न होने के पश्चात् माड़ियाओं की इस विशाल संख्या जो उत्सव के अवसर पर माड़िया सराय में विश्रामित होती है, और गंगामुंडा जात्रा के पश्चात् विदाई दे दी जाती है। इस कार्य के लिए ये न कोई आर्थिक लाभ प्राप्त करते हैं और न ही किसी स्वार्थपरक गतिविधियों को लेकर इस पर्व में सम्मिलित होते हैं। अपितु उत्साह व उमंग के साथ-साथ देवी दंतेश्वरी के प्रति प्रगाढ़ श्रद्धा इन्हें यहाँ तक खींच लाती है।
दशहरा निर्विघ्न सम्पन्न कराने हेतु बस्तर का राजपरिवार ही नहीं अपितु बस्तर का प्रत्येक जनजातीय – गैरजनजातीय व्यक्ति भी प्रतिबद्ध होता है। इसी उद्देश्य से आमाबाल परगना का एक ग्रामीण आदिवासी युवक नौ दिनों तक जोग (तपस्या) में बैठता है। यह युवक इस कार्य हेतु राजा का प्रतिनिधि माना जाता है तथा नौ दिनों तक निराहार रहकर दशहरा पर्व के निर्विघ्न सम्पन्न होने की कामना करता है।
पर्व के अवसर पर छोटे सहयोगात्मक कार्यो यथा रथ खींचने हेतु ‘सियाडी’ (वृक्ष) की रस्सी निर्माण, रथ निर्माण की पहली लकड़ी लाना, लोहे के कार्य हेतु कोयला लाना आदि कार्य भी आदिवासियों द्वारा ही सम्पन्न किए जाते हैं।
चुंकि बस्तर दशहरा पर्व के लगभग प्रत्येक विधि-विधानों में जनजातीय भागीदारी होती है अतएव इसे बस्तर का जनजातीय भागीदारी महापर्व निरूपित करने में कोई अतिश्योक्ति नही होगी। जिस प्रकार आदिवासी निःस्वार्थ भावना से अपना सहयोग प्रदान करते हैं निःसंदेह उनकी यह सक्रियता इस सभ्य समाज हेतु आदर्श व प्रशंसनीय है।
बस्तर दशहरा पर्व में शासन की भूमिका :
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के अनुसार चालुक्य नृपति पुरूषोत्तम देव (1408-1439 ई.) के काल से बस्तर के दशहरा पर्व में रथों का प्रयोग प्रारंभ हुआ। जगन्नाथ पुरी से लौटने के पश्चात् उन्होने दशहरा पर्व के साथ-साथ गोंचा पर्व में भी रथों का प्रयोग आरंभ करवाया। तद्नुसार संपूर्ण दशहरा खर्च, जिसमें मूलतः रथ निर्माण का खर्च प्रमुख है, राजा के द्वारा ही दिया जाता था। भारत की स्वतंत्रता के पश्चात् तथा रियासतों के विलीनीकरण के उपरांत बस्तर दशहरा का संपूर्ण व्यय शासन द्वारा दिया जाने लगा।
स्वतंत्र भारत के अंतर्गत विलयित बस्तर रियासत के प्रथम महाराजा प्रवीरचंद्र भंजदेव को शासन के झगड़े व विभिन्न मुद्दों पर विरोधाभास होने के कारण 1961 ई. में महाराजा के पद से हटाकर महाराजा की पदवी उनके अनुज विजयचंद्र भंजदेव को प्रदान कर दी गई। इसी वर्ष दशहरा विवाद हुआ। सरकारी राजा द्वारा दशहरा मनाए जाने पर ही शासन सहायता देने को तत्पर था। परंतु बस्तर के आदिवासी प्रवीरचंद भंजदेव के साथ ही दशहरा मनाना चाहते थे। परिणामस्वरूप लाखों की संख्या में उनके आदिवासी समर्थकों ने दशहरा का खर्च दिया तथा श्रेष्ठ व्यवस्था की। आदिवासियों के सहयोग से बस्तर दशहरा का आयोजन प्रवीरचंद भंजदेव की मृत्यु पर्यन्त 1964 ई. तक होता रहा। इसके पश्चात् अद्य पर्यन्त तक दशहरा पर्व मनाने हेतु राशि का आवंटन प्रदेश सरकार द्वारा प्राप्त हो रहा है।
बस्तर दशहरा समिति :
बस्तर दशहरा पर्व को सम्पन्न कराने व संपूर्ण व्यवस्था को संचालित व नियंत्रित करने हेतु बस्तर दशहरा समिति का प्रतिवर्ष गठन किया जाता है। इतनी वृहद् व्यवस्था के संचालन के उद्देश्य से यह सर्वोच्च पदासीन पदाधिकारी अध्यक्ष कहलाता है जो बस्तर लोकसभा क्षेत्र के तात्कालिन लोकसभा सांसद या उनकी अनुपलब्धता अथवा विशेष परिस्थितियों में बस्तर क्षेत्र के सबसे अनुभवी विधायक अथवा जनप्रतिनिधि को अध्यक्ष चुना जाता है।
बस्तर दशहरा समिति में सर्वोच्च कार्यपालिका पद बस्तर दशहरा समिति के सचिव का होता है। जगदलपुर तहसील के तहसीलदार इस पद के दायित्व का निर्वहन करते हैं। दशहरा पर्व के संचालन हेतु अनेक अधिकारी-कर्मचारियों को कर्तव्य निर्वहन के लिए नियमानुसार बस्तर जिले के जिलाधीश द्वारा लिखित में आदेशित किया जाता है।
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