भारतीय समाज में अनेक प्रकार की सामाजिक, आर्थिक, असमानताएँ प्राचीन काल से व्याप्त रही हैं, इनमें सर्वाधिक निम्नस्तरीय असमानताएँ वर्ण व्यवस्था पर आधारित रही है। हिन्दू समाज के जातीय ईकाइयों के सम्मिश्रण में जो सबसे नीचे है वे ही, हरिजन या अनुसूचित जाति या परंपरागत रूप से अत्यज या अस्पृश्य कहलाते हैं, साथ ही हिन्दू समाज के निम्न स्तर के लोगों का परंपरावादी व्यवस्था में निम्न सामाजिक और कर्म काण्डीय विभिन्न प्रकार के निर्योग्यताओं से गुजरना पड़ता था इन्हीं को आँग्ल भाषा में अछूत कहा जाता है।
स्वतंत्रता के पूर्व तत्कालीन भारतीय सरकार ने इन जातियों की सामाजिक एवं आर्थिक दशा में सुधार लाने के लिए पहली बार इनकी संख्या सुनिश्चित करने की दृष्टिकोण से 1930-31 की जनगणना में इन्हें एक अलग अनुसूची में दर्ज किया गया। चूँकि तात्कालिक भारतीय समाज में अधिकांश लोग निर्धन और पिछड़े हुए थे, ऐसी स्थिति में यह एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न था कि उक्त मूलभूत दशाओं और विशेषताओं को स्पष्ट किया जाय जिनके कारण इन जातियों को कष्ट सहना पड़ रहा है।
सन् 1930 में भारत सरकार ने लोगों के संबंध में एक उचित शब्द ढूढ़ने की चेष्टा की जिससे इनके संबंध में एक उचित और प्रशासनिक कार्यवाही की जा सके, अतः इनको ‘निम्नवर्गो’ और ‘बाह्य जातियों’ के नाम से पुकारा गया, लेकिन सर्वप्रथम 1935 में सेन्ट साइमन कमीशन के अंतर्गत बहिष्कृत की जाने वाली जातियों को अनुसूचित जाति के नाम से संबोधित किया गया है। महात्मा गाँधी ने बाद में एक निरपेक्ष दृष्टिकोण अपनाते हुए और इन वर्गों को मानवोचित सम्मान देने के लिए इन्हें ‘हरिजन’ के नाम से संबोधित किया।
अनुसूचित जाति की परिभाषा :
किसी राज्य अथवा संघ राज्य क्षेत्र के संबंध में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति का कौन होगा इसकी परिभाषा भारत के संविधान के अनुच्छेद 341 और 342 में दी गई हैं। संगत संवैधानिक अनुच्छेद नीचे उद्धृत किए जाते हैं :-
अनुच्छेद 341 (1) – “राष्ट्रपति, किसी राज्य या संघ राज्यक्षेत्र के संबंध में और जहां वह राज्य है वहां उसके राज्यपाल से परामर्श करने के पश्चात् लोक अधिसूचना द्वारा जन जातियों, मूलवंशों या जन जातियों अथवा जातियों, मूलवंशों या जन जातियों के भागों या उनमें के वर्गों को विनिर्दिष्ट कर सकेगा, जिन्हें इस संविधान के प्रयोजनों के लिए यथास्थिति, उस राज्य या संघ राज्यक्षेत्र के संबंध में अनुसूचित जन जातियां समझा जाएगा।”
अनुच्छेद 341 (2) – “संसद् विधि द्वारा किसी जाति, मूलवंश या जन जाति को अथवा किसी जाति, मूलवंश या जनजाति के भाग या उनमें के ग्रुप को खण्ड (1) के अधीन जारी की गई अधिसूचना में विनिर्दिष्ट अनुसूचित जातियों की सूची में सम्मिलित कर सकेगी या उसमें से अपवर्जित कर सकेगी, किन्तु जैसा ऊपर कहा गया है उसके सिवाय उक्त खण्ड के अधीन जारी की गई अधिसूचना में किसी पश्चातवर्ती अधिसूचना द्वारा परिवर्तन नहीं किया जाएगा।”
अनुच्छेद 342 (1) – “राष्ट्रपति, किसी राज्य या संघ राज्यक्षेत्र के संबंध में और जहां वह राज्य है वहां उसके राज्यपाल से परामर्श करने के पश्चात् लोक अधिसूचना द्वारा उन जन जातियों या जन जाति समुदायों अथवा जन जातियों या जनजाति समुदायों के भागों या उनमें के ग्रुपों को विनिर्दिष्ट कर सकेगा, जिन्हें इस संविधान के प्रयोजनों के लिए यथास्थिति, उस राज्य या संघ राज्यक्षेत्र के संबंध में अनुसूचित जन जातियां समझा जाएगा।”
भारतीय संविधान में अनुसूचित जाति की परिभाषा नहीं दी गई है, केवल इतना ही कहा गया है कि – “अनुसूचित जातियों से अभिप्राय है, ऐसी जातियाँ मूलवंश या जन-जातियों अथवा ऐसी जातियां मूलवंश या जन-जातियों के भाग, जिन्हें इस संविधान के प्रयोजनों के लिए अनु. 341 के अधीन अनुसूचित जातियाँ समझा जाता है।”
संविधान के उपर्युक्त उपबंध से सिर्फ यह स्पष्ट होता है कि अनुसूचित जातियाँ वे हैं जिनका उल्लेख अनु. 341 में हुआ है। अनु. 341 के द्वारा राष्ट्रपति को यह शक्ति दी गई है कि वह प्रत्येक राज्य के राज्यपाल से परामर्श करके अनुसूचित जाति की एक सूची बनाएँ, संसद ही इस सूची का पुनरीक्षण कर सकती है। राष्ट्रपति ने अनु. 341 के अंतर्गत (अनुसूचित जाति) आदेश 1950 पारित किया इस सूची में विभिन्न जातियों के नाम दिए गए हैं।
यह परिभाषा स्पष्ट करती है कि राष्ट्रपति की अधिसूचना के आधार पर ही अनुसूचित जातियाँ अस्तित्व में आती हैं, यद्यपि अनुसूचित जातियों के सदस्य जातियाँ, मूलवंशी या जन-जातियों से ही आते हैं, तो भी राष्ट्रपति की अधिसूचना के आधार पर वे नई हैसियत अर्जित कर लेते हैं।
जनगणना प्रतिवेदन 1931 में संकलित तथ्यों के आधार पर अनुसूचित जातियों की सूची को भारत सरकार के आदेश, 1935 के द्वारा पहली बार प्रकाशित किया गया इसे बाद में भारत के संविधान में “अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति आदेश 1950 के द्वारा” जोड़ा गया। इस अधिनियम को स्वीकार होने के बाद संबंधित सूची में दिए गए सभी जातियों को अनुसूचित जाति कहा जाता है।
अनुसूचित शब्द के पश्चात् आने वाला ‘जाति’ शब्द वास्तव में गलत है और उसका उपयोग नागरिकों के इस विशिष्ट वर्ग को पृथक करने के प्रयोजन के लिए ही किया गया है जिसके पीछे सैकड़ों वर्ष का विशेष इतिहास रहा है। अनुसूचित जातियाँ और अनुसूचित जन-जातियाँ नागरिकों के ऐसे विशेष वर्ग रहे हैं, जिन्हें कि इस प्रकार से शामिल किया गया है, और जिनके बारे में यह उल्लिखित है कि उन्हें नागरिकों के सर्वाधिक पिछड़े हुए वर्गों के रूप में बताया गया है जो कि हमारे देश में रहते हैं संविधान में इन्हें अनु. 366 के खंड (24) और (25) में बताया गया है। अतः ये संवैधानिक उपबंध अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के पक्ष में यह अवधारणा उत्पन्न करते हैं कि वे नागरिकों के पिछड़े हुए वर्ग हैं।
इस संबंध में कोई विवाद नहीं है कि अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के सदस्य संविधान के अनु. 341 और 342 के अधीन निकाली गई। अधिसूचना भी विनिर्दिष्ट किये गए किन्हीं कारणों से उनके बारे में यह समझा जाना चाहिए कि वे संविधान के प्रयोजनों के लिए अनुसूचित जातियाँ और जनजातियाँ हैं।
अनु. 46 का विश्लेषण किया जाय तो इस अनु. में सरकार के लिए इस बात की आज्ञा मौजूद है कि वह लोगों के कमजोर वर्गों के शैक्षणिक और आर्थिक हितों की विशेष परवाह करें और उदाहरण के रूप में, उन व्यक्तियों को जो कि कमजोर वर्ग गठित करते हैं, इस उपबंध में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को अभिव्यक्त रूप से अलग किया गया है।
अनु. 46 और अनु. 366 के खंड (24) और (25) को मिलाकर पढ़ने से स्पष्ट रूप से यह दर्शित होता है कि अनुसूचित जातियों और जनजातियों के सदस्यों के बारे में विशिष्टः उस समय जबकि संविधान अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों का उदाहरण समाज के कमजोर वर्ग के रूप में देता है, यह अवश्य ही अवधारणा की जानी चाहिए कि वे नागरिकों के पिछड़े हुए वर्ग हैं ।
भैया लाल बनाम हरिकृष्ण सिंह और अन्य के बाद में न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया था कि क्या अपीलार्थी दोहार जाति का था, जिसे कि अनुसूचित जाति नहीं माना गया था और इसकी यह घोषणा कि यह चमार जाति का था जिसे कि अनुसूचित जाति माना गया था, अनु. 341 के उपबंधों के कारण अनुज्ञात नहीं की जा सकती थी। कोई भी न्यायालय यह निष्कर्ष नहीं निकाल सकता कि कोई जाति या कोई जनजाति अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति है। अनुसूचित जाति अनु. 366 (25) के अधीन यथा अधिसूचित जाति होती है। विस्तृत जाँच के फलस्वरूप अनु. 341 के अधीन राष्ट्रपति द्वारा अधिसूचना जारी की जाती है। अनु. 341 का उद्देश्य अनुसूचित जातियों के सदस्यों को, उस आर्थिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन को, जिससे वे ग्रस्त हैं, ध्यान में रखते हुए संरक्षण प्रदान करना है।
वासव लिंगप्पा बनाम डी. मुनिचिनला के बाद में न्यायालय ने कहा कि अनु. 341 के अंतर्गत एक बार राष्ट्रपति द्वारा अधिसूचना जारी कर दिए जाने के बाद किसी जाति मूलवंश आदि को सूची में सम्मिलित करने या निकालने के लिए उस अधिसूचना में कोई परिवर्तन संसद द्वारा नहीं अर्थात् राष्ट्रपति या केन्द्रीय सरकार द्वारा केवल एक बार उस शक्ति का प्रयोग किया जा सकता है, उसके बाद यह शक्ति संसद को मिल जाती है।
केरल राज्य बनाम एम. एम. टामस के वाद में उच्चतम न्यायालय का विचार था कि अनुसूचित जातियाँ उस अर्थ में जाति नहीं हैं, जिस अर्थ में संविधान के अनु. 15 के खंड (1) और अनु. 16 के खंड (2) में किया गया है। न्यायालय ने अनु. 366 (24) का हवाला देते हुए कहा कि ये जातियाँ उस पिछड़े हुए वर्ग का एक संक्षिप्त नाम है जिनमें कई जातियाँ, मूल वंश केवल इस पर एक संज्ञा के अंतर्गत लाए गए हैं कि ये सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से नितांत पतित हैं, और इन्हें संरक्षण देना तथा इन्हें बढ़ावा देकर सबसे समान बनाने की प्रेरणा और अवसर देना राज्य का निर्धारित कर्तव्य है। अनुसूचित जाति को अभी उस साधारण अर्थ में सम्मिलित नहीं किया जाना चाहिए ।
अखिल भारतीय शोषित कर्मचारी संघ (रेलवे) बनाम भारत संघ के बाद में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि अनुसूचित जाति होने के लिए यह आवश्यक नहीं है कि वह पारंपरिक अर्थों में जाति हो, अनुसूचित जातियाँ ऐसा रूप केवल तब धारण करती हैं जब राष्ट्रपति किन्हीं जातियों, वंशों या जनजातियों के अंतर्गत भागों अथवा समूहों को संविधान के प्रयोजन के लिए विनिर्दिष्ट करते हैं।
न्यायालयों के दिए हुए निर्णयों से यह स्पष्ट हो जाता है कि अनुसूचित जातियों की परिभाषा करने के लिए अस्पृश्यता को मुख्य मुद्दा नहीं माना गया है बल्कि संविधान में राष्ट्रपति द्वारा सूचीबद्ध जातियों को ही अनुसूचित जाति माना गया है।
- भारत सरकार अधिनियम १९३५
- ए.आई.आर. १९५४, एस.सी. १५५७
- ए.आई.आर. १९५४, एस.सी. १२५९
- ए.आई.आर. १९७६ एस.सी. ४९०
- ए.आई.आर. १९८१ एस.सी. २९८