# मौलिक अधिकारों के उल्लेख का ऐतिहासिक परिदृश्य

मौलिक अधिकारों के उल्लेख का ऐतिहासिक परिदृश्य :

मौलिक अधिकारों से सम्बन्धित उपबंधों का समावेश आधुनिक लोकतान्त्रिक व्यवस्था का एक आधारभूत लक्षण है। भारतीय संविधान के भाग तीन, जनता की आवश्यक स्वतन्त्रताओं/अधिकारों का मूलभूत प्रपत्र है।

अधिकारों पर विधायी हस्तक्षेप के विरूद्ध व्यक्त प्रतिबन्ध (अनुच्छेद 13) तथा न्यायिक पुनर्विलोकन (अनुच्छेद 32 एवं 226) द्वारा प्रतिबन्धों पर संवैधानिक संस्तुति की व्यवस्था से स्पष्ट है कि मौलिक अधिकार राज्य द्वारा निर्मित साधारण कानूनों से पवित्र एवं श्रेष्ठ हैं।

ऐतिहासिक स्वरूप में, राष्ट्रीय आन्दोलन में ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा 1886 में अधिकारों की मांग की गयी थी एवं अधिकारों के लिए अपने अधिवेशनों में सदैव प्रस्ताव भी पारित किये गये।

1917 से 1919 तक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रस्ताव साक्षी हैं कि कांग्रेस नागरिक अधिकारों के विषय में तथा अंग्रेजों के साथ “अवसर की समानता” के विषय में गम्भीरता से प्रस्ताव पारित करती रही।

मौलिक अधिकारों से सम्बन्धित मांग ऐनी बेसेन्ट द्वारा Common Wealth of India Bill 1925 द्वारा भी की गयी जिसे 1928 में नेहरू समिति द्वारा सर्वसम्मति से पुष्ट किया गया। नेहरू समिति की व्याख्या में स्पष्टतः कहा गया था कि- “मौलिक अधिकारों को भी इस तरह प्रत्याभूत किया जाए जिससे किसी परिस्थिति में उन्हें स्थगित या वापस न लिया जा सके……।

भारतीय नेताओं ने गोलमेज सम्मेलनों में भी अधिकारों के प्रश्न को उठाया और प्रस्तावित संविधान में स्थान देने के लिए प्रयास किए। अल्पसंख्यकों की उपसमिति द्वारा भी इस विषय पर गम्भीर विवेचन किया गया और अपनी प्रथम बैठक, ( 23 दिसम्बर 1930) में ही अधिकारों की घोषणा को भारत के संविधान में स्थान देने की बात की। इसी समिति के सदस्य श्री ए० टी० पाल ने बल देकर कहा था- “मौलिक अधिकारों को स्थान दिया जाना आवश्यक है साथ ही एक ऐसी संरचना भी स्थापित की जाए जो यह सुनिश्चित करें कि इनका उल्लंघन नहीं होगा…।”

इसी समिति के समक्ष गोलमेज सम्मेलन में प्रतिनिधि होकर गये बी० शिवाराव द्वारा 1930 में एक विस्तृत प्रलेख मौलिक अधिकारों के सम्बन्ध में रखा गया था’ विचार विमर्श के समय अम्बेडकर द्वारा भी इन अधिकारों के महत्व एवं स्थान दिये जाने की आवश्यकता को इंगित किया गया था, उनका स्पष्ट मत था कि- “संविधान में ऐसे प्रतिबन्धों की स्थापना की जाय जिससे मौलिक अधिकारों को प्रवर्तित किया जा सके साथ ही, जिसमें उल्लंघन की दशा में निवारण का स्पष्ट उल्लेख हो…।”

भारतीय नेताओं के इन सकारात्मक प्रयासों एवं अधिकारों की आवश्यकता पर बल के कारण गोलमेज सम्मेलन की समाप्ति पर भारत सचिव द्वारा संसद के समक्ष रिपोर्ट प्रस्तुत की गयी जिसके अनुसार- “सरकार भारतीय नेताओं के मौलिक अधिकारों पर दिये गये विचारों को महत्व देती है और संविधान में अधिकारों के लिए पृथक अध्याय के विचार को स्वीकार करती है…।”

यद्यपि संवैधानिक अधिनियम में शासन के द्वारा मौलिक अधिकारों को स्थान नहीं दिया गया परन्तु समय-समय पर दिये गये ज्ञापनों एवं विचार विमर्श के बाद – “1935 के भारतीय शासन अधिनियम द्वारा स्वतन्त्रताओं के विषय में कुछ अधिकार अवश्य सुनिश्चित किये गये।” इसी ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में 1945 में प्रकाशित सप्रू रिपोर्ट को लिया जा सकता है जिसमें “मौलिक अधिकारों की घोषणा को न केवल अल्पसंख्यकों को कुछ आश्वासन देने के लिए बल्कि विधायिका कार्यकारिणी और न्यायालय सभी के लिए आचार संहिता हेतु आवश्यक बताया….।

सप्रू समिति ने दो प्रकार के अधिकारों न्यायिक अधिकारों एवं अन्यायिक अधिकारों की पृथक रूप से विवेचना की और भावी संविधान हेतु यद्यपि अधिकारों की एक विस्तृत सूची प्रस्तुत नहीं की लेकिन सार्थक प्रयास अवश्य किया। सप्रू समिति ने मौलिक अधिकारों का स्वरूप निश्चित किया जाना “संविधान निमात्री सभा” के लिए छोड़ दिया।

सारांशतः स्वतन्त्रता पूर्व मौलिक अधिकारों के प्रति जागृति और उनके स्वरूप निर्धारण के विषय में प्रबल प्रयास किए गये। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् संविधान निमात्री सभा द्वारा जनता की आंकाक्षाओं के अनुरूप संविधान में मौलिक अधिकारों को स्थान देना सुनिश्चित किया गया। मौलिक अधिकारों के लिए गठित उपसमिति, जिसकी प्रथम बैठक, 27 फरवरी 1947 को हुई, द्वारा मौलिक अधिकारों के स्वरूप एवं प्रकृति पर सदस्यों के मत एवं सुझाव लिए गये। समिति के सदस्य के० एम० मुंशी का मत था- “समिति को न्यायिक अधिकारों पर ही एकाग्रता रखनी है जिस हेतु न्यायालयों को आदेश या रिट जारी करने के लिए अधिकृत किया जाना चाहिए।”

सदस्यों के आपसी व्यापक विचार विमर्श के बाद जो प्रारूप व्याख्या तैयार की गयी उसके अनुसार- “मूल अधिकारों” और “शासन के मौलिक नियम” दोनों को एक ही शीर्षक- ‘मौलिक अधिकार’ के अन्तर्गत रखा गया जिसका प्रथम भाग न्यायिक अधिकारों से तथा दूसरा अन्यायिक अधिकारों से सम्बन्धित था…।”

संविधान की “प्रारूप समिति” के समक्ष उक्त व्याख्या विचारार्थ लाये जाने पर उसने प्रथम भाग को मौलिक अधिकार शीर्षक दिया एवं दूसरे भाग को नीति-निदेशक तत्वों के स्वरूप में रखा।

इस प्रकार भारत के संविधान में उल्लिखित मौलिक अधिकार व्यापक विचार विमर्श, सतत् संघर्ष एवं भारतीय नेताओं के सद् प्रयासों के परिणाम थे।

The premier library of general studies, current affairs, educational news with also competitive examination related syllabus.

Related Posts

# जनांकिकी संक्रमण का क्या अर्थ है ? (Meaning of Demography Transit)

Home / QnA / # जनांकिकी संक्रमण का क्या अर्थ है ? (Meaning of Demography Transit)जनांकिकी संक्रमण का अभिप्राय : विश्व के किसी भी जनसमूह को जनांकिकी…

# एंजिल का नियम क्या है और यह नगरों पर कैसे लागू होता है? | Angel’s Rule of Consumption

Home / QnA / # एंजिल का नियम क्या है और यह नगरों पर कैसे लागू होता है? | Angel’s Rule of Consumptionएंजिल का उपभोग का नियम…

# ओजोन परत : आशय, क्षरण के कारण/क्षय प्रक्रिया, दुष्परिणाम | Ozone Layer (Ozone Depletion)

Home / QnA / # ओजोन परत : आशय, क्षरण के कारण/क्षय प्रक्रिया, दुष्परिणाम | Ozone Layer (Ozone Depletion)ओजोन परत क्या है/आशय : हमारे वायुमण्डल में 15…

# आधुनिक तकनीक सभ्यता को कैसे प्रभावित करती है?

Home / QnA / # आधुनिक तकनीक सभ्यता को कैसे प्रभावित करती है?आधुनिक तकनीक और सभ्यता : प्रौद्योगिकी ने आम आदमी को सशक्त बनाने में अहम् भूमिका…

# नई प्रौद्योगिकी मानव समाज (सभ्यता) को किस तरह प्रभावित कर रही है?

Home / QnA / # नई प्रौद्योगिकी मानव समाज (सभ्यता) को किस तरह प्रभावित कर रही है?प्रौद्योगिकी और मानव समाज (सभ्यता) : मानव समाज की जीवन शैली…

# इतिहास शिक्षण के शिक्षण सूत्र (Itihas Shikshan ke Shikshan Sutra)

Home / History / QnA / # इतिहास शिक्षण के शिक्षण सूत्र (Itihas Shikshan ke Shikshan Sutra)शिक्षण कला में दक्षता प्राप्त करने के लिए विषयवस्तु के विस्तृत…

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

five × 5 =