# सम्प्रभुता (राजसत्ता) की परिभाषाएं, लक्षण/विशेषताएं, विभिन्न प्रकार एवं आलोचनाएं

सम्प्रभुता (प्रभुता/राजसत्ता) राज्य के आवश्यक तत्वों में से एक महत्वपूर्ण तत्व है। इसके बिना हम उसे राज्य नहीं कह सकते। भले ही उसमें जनसंख्या, भूमि और सरकार तीनों तत्व पाये जाते हैं। सम्प्रभुता दो प्रकार की होती है – (1) आन्तरिक, और (2) बाहरी। आन्तरिक सम्प्रभुता राज्य के अन्दर रहने वाले सभी व्यक्ति तथा संस्थाओं से सम्बन्धित होती है, परन्तु बाहरी प्रभुसत्ता का अर्थ यह है कि राज्य किसी बाहरी देश या संस्था के अधीन नहीं है।

प्रत्येक मानव समूह की अपनी एक सामूहिक इच्छा (Collective will) होती है। राज्य भी एक मानव समूह है। अतः उसकी भी एक स्वतन्त्र इच्छा होती है। उसकी यह इच्छा कानून के रूप में व्यक्त होती है। यह इच्छा सर्वोपरि होती है, जो कानूनों का निर्माण करती है और अन्तिम निर्णय करती है। राज्य की इसी इच्छाशक्ति को सम्प्रभुता कहते हैं। इस प्रकार, राज्य में एक शक्ति होती है, जिसके कारण राज्य अपनी सीमा के अन्तर्गत रहने वाले सभी व्यक्तियों, संस्थाओं और समुदायों से ऊपर हो जाता है और सभी उसकी आज्ञाओं का पालन करते हैं। इसी शक्ति को सम्प्रभुता (Sovereignty) कहते हैं।

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प्रभुसत्ता या सम्प्रभुता की परिभाषाएं :

1. सम्प्रभुता की परिभाषा सबसे पहले बोदां ने की थी। बोदां का कहना था कि “सम्प्रभुता नागरिकों तथा प्रजाजनों पर प्रयुक्त की जाने वाली एक ऐसी सर्वोच्च शक्ति है जो विधि द्वारा नियन्त्रित नहीं होती है।”

2. ग्रोशस का कथन है, “सम्प्रभुता उस शक्ति में निहित एक राजनीतिक शक्ति है जिसके कार्य किसी दूसरे के अधीन न हों तथा जिसकी इच्छा पर नियन्त्रण न किया जा सके।”

3. बर्गेस का कहना है, “राज्य के समस्त व्यक्तियों के समुदायों के ऊपर जो भौतिक, सम्पूर्ण, असीम शक्ति है वह सम्प्रभुता है।”

4. जेलिनेक के कथनानुसार, “सम्प्रभुता राज्य का वह लक्षण है जिसके गुण से यह अपनी इच्छा के अतिरिक्त अन्य किसी से नियन्त्रित नहीं हो सकता है या अपने अतिरिक्त अन्य किसी शक्ति से सीमित नहीं हो सकता है।”

5. विलोबी ने कहा, “सम्प्रभुता राज्य की सर्वोच्च इच्छा है।”

6. ऑस्टिन का कथन है, “यदि कोई निश्चित उच्च सत्ताधारी मनुष्य जो स्वयं किसी वैसे ही उच्च सत्ताधारी के आदेश पालन करने का अभ्यस्त न हो, यदि किसी मानव समाज के अधिकांश भाग से स्थायी रूप से अपनी आज्ञापालन करने की स्थिति में हो वह उच्च सत्ताधारी व्यक्ति उस समाज में सम्प्रभु होता है और वह समाज एक राजनीतिक व स्वाधीन समाज होता है।”

सम्प्रभुता की (लक्षण) विशेषताएं :

उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर सम्प्रभुता के निम्नलिखित लक्षण हैं-

1. निरंकुशता

निरंकुशता या सर्वप्रधानता से तात्पर्य यह है कि राज्य की किसी भी प्रकार सीमित या मर्यादित नहीं की जा सकती। पृथ्वी पर ऐसी कोई शक्ति नहीं जो उसका नियमन या नियन्त्रण कर सके, अर्थात् राज्य की सीमा के अन्तर्गत यह सर्वोच्च शक्ति है। आन्तरिक मामलों में तो राज्य की सत्ता सर्वोच्च है ही, बाहरी मामलों में भी वह सर्वोच्च सम्प्रभु है। राज्य के भीतर रहने वाले सभी व्यक्तियों और व्यक्ति समूहों पर राज्य सर्वोपरि सत्ता रखता है। अन्य राज्य भी सम्प्रभुता सम्पन्न राज्यों के मामलों में न तो किसी प्रकार का हस्तक्षेप कर सकते हैं और न उन पर किसी प्रकार का दबाव डाल सकते हैं।

2. मौलिकता

मौलिकता से तात्पर्य यह है कि वह अपनी स्थिति का आधार स्वयं है। उसको न कोई पैदा करता है और न कोई बनाता है। ऑस्टिन का मत है कि “सम्प्रभुता सदैव मौलिक है। राज्य इसे किसी दूसरे से प्राप्त नहीं करता। यदि सम्प्रभुता अपने अस्तित्व के लिए किसी दूसरे पर निर्भर करती है तो वह सम्प्रभुता नहीं हो सकती।” अतः मौलिकता सम्प्रभुता का विशेष लक्षण है।

3. सर्वव्यापकता

सम्प्रभुता की तीसरी विशेषता उसकी सर्वव्यापकता अर्थात् राज्य की सीमा के अन्तर्गत सार्वभौम सत्ता सर्वोच्च है। राज्य की सीमा में रहने वाले सभी व्यक्ति, संघ, संस्थाएँ आदि सार्वभौम सत्ता के अधीन रहते हैं। डॉ. आशीर्वादम् के अनुसार, “कोई भी व्यक्ति या व्यक्ति समूह अपना अधिकार बताकर सम्प्रभुता से छुटकारा पाने का दावा नहीं कर सकता। ‘फ्री मेसन्स’ जैसी विश्वविख्यात सुसंगठित संस्था भी राज्य के ऊपर होने या राज्य से श्रेष्ठ होने का दावा नहीं कर सकती।”

4. स्थायित्व (Permanency)

स्थायित्व सम्प्रभुता की वह विशेषता है जिससे तात्पर्य है कि सम्प्रभुता स्थिर और अखण्ड है। जब तक राज्य का अस्तित्व है, तब तक सम्प्रभुता बनी रहती है और राज्य तब तक ही स्थिर रहता है जब तक उसकी सम्प्रभुता कायम रहे। एक के अभाव में दूसरे का अस्तित्व सम्भव नहीं है। सार्वभौमिकता के अन्त से राज्य की मृत्यु हो जाती है, परन्तु सम्प्रभु सत्ता की मृत्यु या पदच्युति से सम्प्रभुता का अंत नहीं होता, बल्कि यह एक व्यक्ति के हाथों से दूसरे के हाथों में चली जाती है।

गिलक्राइस्ट के शब्दों में, “राजा या राष्ट्रपति के मरने से केवल सरकार में एक व्यक्ति का परिवर्तन होता है, इससे राज्य के अविरल प्रभाव में उसकी अटूट गति में कोई रुकावट नहीं आती।”

5. अविच्छेद्यता (Inalienability)

इससे तात्पर्य यह है कि कोई सार्वभौम सत्ता अपना विनाश किये बिना किसी सम्प्रभुता को पृथक् नहीं कर सकती। सम्प्रभुता राज्य का प्राण है। वह राज्य की सर्वोच्च सत्ता है, उसका सार है, उसका जीवन है। गार्नर का कहना है कि “सम्प्रभुता राज्य के जीवन का अमर तत्व है और उसे त्यागने का अर्थ है कि राज्य ने आत्महत्या कर ली।”

लीवर ने बताया है कि “जिस प्रकार एक व्यक्ति बिना अपना विनाश किये अपने जीवन और व्यक्तित्व को अपने से अलग नहीं कर सकता, ठीक उसी तरह राज्य को सम्प्रभुता से अलग नहीं किया जा सकता।”

6. अविभाज्यता (Indivisibility)

सम्प्रभुता पूर्ण असीम तथा सर्वव्यापक होती है। अतः वह अविभाज्य भी है। अविभाज्यता से तात्पर्य यह है कि सम्प्रभुता का विभाजन नहीं हो सकता। वह अखण्ड है, सम्पूर्ण अथवा एक है। एक राज्य में एक ही सम्प्रभु सम्पन्न सत्ता हो सकती है। जिस प्रकार एक म्यान में दो तलवारें नहीं हो सकती। उसी प्रकार एक के सम्प्रभु सम्पन्न राज्य में दो सम्प्रभुताएँ नहीं हो सकती।

गैटेल के शब्दों में, “सम्प्रभुता विभाजन का अर्थ है— राज्य का विभाजन।” कल्हण का कहना है, “सम्प्रभुता एक या समग्र वस्तु है, उसका विभाजन करने का अर्थ है—उसे नष्ट करना। किसी भी राज्य में प्रभुसत्ता सर्वोच्च शक्ति है और आधी सम्प्रभुता कहना ही असंगत और हास्यास्पद है, आधा वर्ग आधा त्रिभुज कहना।” संघात्मक शासन के अन्तर्गत भी शासन शक्तियों के विभाजन के आधार पर सम्प्रभुता का विभाजन नहीं होता। किसी संघ में दो राज्य नहीं होते, अपितु शासनतन्त्र दोहरा होता है। राज्य तो एक ही होता है, अतः सम्प्रभुता एक होगी, दो नहीं हो सकती।

सम्प्रभुता के विभिन्न प्रकार :

1. नाममात्र की सम्प्रभुता

नाममात्र की सम्प्रभुता से तात्पर्य ऐसे शासकों से है जो किसी सर्वोच्च शक्ति का उपभोग करते थे, परन्तु अब उन्होंने वास्तविक शक्ति का प्रयोग छोड़ दिया है। सिद्धान्ततः वे अब भी उन शक्तियों के स्वामी हैं, परन्तु व्यवहार में कोई अन्य पुरुष या व्यक्ति समूह उनकी प्रभुसत्ता का प्रयोग करता है। इसका उत्कृष्ट उदाहरण ब्रिटेन का सम्राट है। विधानतः वह इंग्लैण्ड का सर्वोच्च स्वामी व राजा है और उसकी शक्तियाँ सर्वोपरि हैं। वह समय शक्ति का स्रोत है, परन्तु व्यवहार में सरकार का कोई काम वह नहीं करता। वास्तविक शक्ति का प्रयोग मन्त्रिपरिषद् करती है।

2. वास्तविक प्रभुसत्ता

वास्तविक प्रभुसत्ता उसे कहते हैं जो व्यवहार में शक्ति का उपभोग करता है। इंग्लैण्ड में और भारत में राजा व राष्ट्रपति नाममात्र के सम्प्रभु, परन्तु मन्त्रिमण्डल वास्तविक सम्प्रभु है जो वास्तव में शक्तियों का भोग करते हैं।

3. वैध सम्प्रभुता

वैध या कानूनी सम्प्रभुता से तात्पर्य उस सम्प्रभुता से होता है जिसे कानून द्वारा अन्तिम आदेश जारी करने का अधिकार होता है। कानून प्रभुसत्ता कानून निर्माण की उस शक्ति को कहते हैं जो सर्वोच्च, असीम और अनियन्त्रित हो। उदाहरण के लिए, इंग्लैण्ड की संसद को कानूनी प्रभुसत्ता प्राप्त है। इसके पास कानून निर्माण के सर्वोच्च अधिकार हैं। ब्रिटिश संसद के कानून के अधिकार असीम हैं क्योंकि उसकी कानूनी शक्ति को मर्यादित करने वाली कोई अन्य सत्ता नहीं है।

डायसी के शब्दों में, “ब्रिटिश संसद शिशु को वयस्क बना सकती है, नाजायज बच्चे को जायज बना सकती है या उचित समझे तो किसी को उसके स्वयं के मुकदमे में न्यायाधीश नियुक्त कर सकती हैं।” यही कानूनी सम्प्रभुता।

4. राजनैतिक सम्प्रभुता

कानूनी सम्प्रभुता की असीम सत्ता केवल सैद्धान्तिक है, व्यावहारिक रूप से यह आज सम्भव नहीं है। उसकी असीम शक्ति अनेक कारणों से मर्यादित रहती है। अतः कानूनी सम्प्रभुता से भी अधिक महत्वपूर्ण एक अन्य शक्ति है जिसे राजनैतिक सम्प्रभुता कहते हैं और जो सम्प्रभुता के पीछे रहते हैं। उदाहरण के लिए, मतदाताओं के हाथ में राजनैतिक सम्प्रभुता है और कानूनी सम्प्रभुता उनकी इच्छा का पालन ही करती है।

5. सार्वजनिक सम्प्रभुता

इससे तात्पर्य है कि यदि किसी देश की समस्त बालिग जनता राजकाज में भाग ले और स्वयं कानून बनाये, तो उस देश को लोकप्रिय राजसत्ता अर्थात् सार्वजनिक सम्प्रभुता प्राप्त रहती है। अमेरिका के संविधान की प्रस्तावना में इसे स्वीकार किया गया है। उस समय से यह प्रजातन्त्र का आधार बन गया और जैसा कि ब्राइस का कहना है, “यह लोकतन्त्र का आधार और पर्याय है। इसमें राज्य की शक्ति एक व्यक्ति या व्यक्ति समूह में न रहकर पूरी जनता में रहती है।” गिलक्राइस्ट कहता है, “सार्वजनिक सम्प्रभुता एक व्यक्तिगत शासन के मुकाबले जनता की शक्ति है। वयस्क मताधिकार व जनता के प्रतिनिधियों द्वारा विधानमण्डल का नियन्त्रण इसके उपलक्षण हैं।”

बहुलवादियों द्वारा सम्प्रभुता सिद्धान्त की आलोचना :

बहुलवादियों द्वारा सम्प्रभुता सिद्धान्त की आलोचना निम्नलिखित आधारों पर की जाती है—

1. राजसत्ता का विभाजन

बहुलवादियों का कहना है कि राज्य समाज की अन्य सभी संस्थाओं के ऊपर नहीं है। इसलिए केवल राज्य को ही राजसत्ता का उपभोग करने की स्वतन्त्रता नहीं होनी चाहिए। वास्तव में राजसत्ता का विभाजन होना चाहिए।

2. नैतिकता की दृष्टि से अनुचित

बहुलवादी विचारक लॉस्की नैतिकता की दृष्टि से भी इस सिद्धान्त को अनुचित मानते हैं, क्योंकि यह बिना सोचे-समझे राज्य के प्रत्येक आदेश को मानना व्यक्ति के लिए अनिवार्य मानता है। राज्य के प्रति अन्ध-भक्ति की माँग करते हुए सम्प्रभुता को नैतिकता-अनैतिकता के बारे में सोचने का मौका ही नहीं देती है। सम्प्रभुता की इस मान्यता के आधार पर तो हिटलर या मुसोलिनी या साम्यवादी शासन के अत्याचार भी चुपचाप सह लेने चाहिए, क्योंकि वे सम्प्रभु हैं।

3. अन्य समुदायों का महत्व

बहुलवादियों का कहना है कि राज्य की भाँति अन्य समुदाय भी व्यक्ति के व्यक्तित्व को प्रभावित करते हैं, इसलिए केवल राज्य को ही व्यक्तियों की भक्ति का अधिकार नहीं मानते हैं।

4. राज्य की क्षमता का अभाव

आधुनिक समाज जटिलता की ओर बढ़ता जा रहा है, इसलिए राज्य व्यक्ति के हित के सभी कार्य नहीं कर सकता। ऐसी दशा में राज्य को चाहिए कि वह अपने बहुत से कार्य व्यावसायिक संगठनों को सौंप दे और प्रशासकीय कार्यों के सम्पन्न करने में कुशलता प्राप्त करे।

5. राज्य सत्ता की केवल कल्पना

कुछ विद्वानों ने कहा है कि राज्य की प्रभुसत्ता को समाज में कार्यरत अन्य समुदायों के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। इस सम्बन्ध में रिग्स का कथन है, “बल्कि यह एक समुदाय बालू के कणों की भाँति एक ढेर नहीं है, जो केवल राज्य द्वारा सम्बन्धित है, बल्कि यह एक समुदाय का ऊपर चढ़ता हुआ पद-सोपान है।” इस विद्वान के कथनानुसार राजसत्ता का प्रचलित सिद्धान्त केवल एक कल्पना मात्र है। प्रो. लॉस्की ने कहा है, “राजसत्ता का प्रभुता सम्बन्धी सिद्धान्त केवल इस सम्बन्ध कल्पना मात्र है। “

6. राज्य शक्तिमान नहीं

राज्य की प्रभुसत्ता के सिद्धान्त में राज्य को सर्व-शक्तिमान संस्था माना है, किन्तु बहुलवादियों का कहना है कि धार्मिक संगठन तथा अन्य व्यावसायिक संगठन व्यक्ति के जीवन में राज्य से भी अधिक प्रभावशाली हैं। इसलिए केवल राज्य को ही सर्वशक्तिमान संस्था नहीं माना जा सकता, वह केवल विभिन्न समुदायों में सामंजस्य स्थापित करने वाली एक संस्था है। इस सम्बन्ध में बार्कर ने कहा है, “ऐसे समुदाय कितने है भी अधिकार प्राप्त क्यों न कर लें, राज्य फिर भी एक सामंजस्य स्थापित करने वाली शक्ति बना रहेगा।”

7. राज्य संगठनों का संगठन

राज्य सम्पूर्ण सत्ताधारी संगठन नहीं है, बल्कि एक विद्वान लिण्डले ने कहा है कि “राज्य संगठनों का संगठन है, जिसका महत्वपूर्ण कार्य जनता के हितों की रक्षा करना है।”

8. अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों पर प्रभाव

आधुनिक युग में कोई भी राष्ट्र दूसरे राष्ट्रों से सहयोग प्राप्त किये बिना जीवित नहीं रह सकता, ऐसी दशा में राज्य की प्रभुसत्ता बाह्य क्षेत्र में स्वतन्त्र नहीं है। इस सम्बन्ध में प्रभुसत्ता के प्रमुख विचारक बोदां का कथन है कि “राज्य की राजसत्ता दूसरे राज्य के प्रति नैतिक कर्त्तव्यों से सीमित है।”

9. कानून राज्य की कृति नहीं

राज्य की प्रभुसत्ता के सिद्धान्त में ऑस्टिन जैसे विद्वानों ने यह माना है कि सत्ताधारी शासक के आदेश को ही कानून कहते हैं। बहुलवादियों का कहना है कि हमारी सामाजिक आवश्यकताएँ कानून का निर्माण करती हैं।

10. कानून भय पर आधारित नहीं

प्रभुसत्ताधारियों का कहना है कि हम कानून का पालन इसीलिए करते हैं कि कानून का उल्लंघन करने पर हमें राज्य की प्रभुसत्ता द्वारा दण्डित किया जायेगा। इसके विपरीत, बहुलवादियों का मत है कि हम कानून का पालन इसलिए करते हैं कि ऐसा करने में हमारा हित निहित नहीं है।

11. राजसत्ता पर कानून का प्रतिबन्ध

प्रभुसत्ताधारियों का मत है कि शासन कानून से परे है, किन्तु बहुलवादियों का कहना है कि राज्य का मुख्य कार्य समाज-सेवा है और राज्य प्रभुसत्ता कानून में सीमित है। इसलिए यह कहना भी उचित होगा कि कानून ही राज्य को जन्म देता है और राज्य की प्रभुसत्ता कानून के अधीन है। इसलिए सम्बन्ध में एक प्रसिद्ध विद्वान मैकाइवर का मत है, “राज्य कानून की अवहेलना नहीं कर सकता, यह कानून के अधीन रहता है।”

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