राजनीति विज्ञान और समाजशास्त्र परस्पर घनिष्ठ रुप से सम्बन्धित हैं और एक-दूसरे पर आश्रित हैं। इन दोनों शास्त्रों की घनिष्ठता को गार्नर ने इन शब्दों में व्यक्त किया है, ‘‘राजनीति सामाजिकता में सन्निविष्ट है और यदि राजनीति शास्त्र समाजशास्त्र से भिन्न है तो इसका कारण विषय के क्षेत्र की व्यापकता है न कि यह कारण कि उसे समाजशास्त्र से अलग करने के लिए किसी प्रकार की सीमायें है।”
प्रो. कैटलिन का भी यही कथन है कि ‘‘राजनीति शास्त्र और समाज शास्त्र अभिन्न हैं और वास्तव में ये एक वस्तु के दो पहलू हैं।’’ किन्तु कुछ अन्य विद्वान इन दोनों में पर्याप्त अन्तर को भी स्वीकार करते हैं।
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राजनीति विज्ञान तथा समाजशास्त्र में अन्तर
यद्यपि राजनीति विज्ञान तथा समाजशास्त्र में घनिष्ठ सम्बन्ध है फिर भी गहराई से देखने पर दोनों में अन्तर दिखाई पड़ता है। दोनों शास्त्रों के मध्य भेद को निम्न प्रकार समझा जा सकता है –
1. क्षेत्र की दृष्टि से अन्तर – समाजशास्त्र का क्षेत्र व्यापक है। समाजशास्त्र के क्षेत्र के अन्तर्गत समस्त सामाजिक संस्थाओं की उत्पत्ति और उनका स्वरूप आ जाता है। राजनीति शास्त्र के अध्ययन का प्रमुख विषय राज्य भी उनमें से एक है जबकि राजनीति विज्ञान केवल राज्य के संगठन और उसकी सत्ता से संबधित मतों का ही अध्ययन करता है।
2. प्राचीनता में अन्तर – समाजशास्त्र राजनीति विज्ञान की अपेक्षा अधिक प्राचीन है। समाजशास्त्र संगठित और असंगठित समुदायों का अध्ययन करता है। यह सर्वविदित है कि संगठन से पूर्व असंगठित समाज की स्थिति रही होगी। इस प्रकार निश्चय ही राजनीतिशास्त्र का जन्म समाजशास्त्र के पश्चात हुआ होगा।
3. दृष्टिकोण में अन्तर – समाजशास्त्र में वैधानिक सम्बंधों के साथ-साथ प्रथाओं, शिष्टाचार तथा नैतिकता आदि के दृष्टिकोण से भी विचार किया जाता है जबकि राजनीति विज्ञान में केवल मनुष्यों के वैधानिक सम्बन्धों का ही अध्ययन किया जाता है।
4. विषय वस्तु में अन्तर – समाजशास्त्र में मनुष्य तथा सामाजिक संस्थाओं के विकास तथा उत्पत्ति के कारणों की खोज की जाती है। इस प्रकार समाजशास्त्र के अध्ययन का विषय व्यक्ति तथा समाज है। राजनीति विज्ञान समाजशास्त्र की भाँति सामाजिक तथ्यों की खोज नहीं करता है वह तो प्रारम्भ से ही यह मानकर चलता है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। साथ ही राजनीति विज्ञान का अध्ययन विषय राज्य है।
5. यथार्थ और आदर्श का अन्तर- समाजशास्त्र में हम तथ्यों का अध्ययन करते हैं और उसमें हम देखते हैं कि क्या हो चुका है और क्या होने जा रहा है जबकि राजनीति विज्ञान में हम अध्ययन करते हैं कि क्या होना चाहिए। इस प्रकार समाजशास्त्र वर्णनात्मक विषय है जबकि राजनीति विज्ञान आदर्शात्मक विषय है।
राजनीति विज्ञान और सामाजशास्त्र में संबंध
1. समाजशास्त्र की राजनीति शास्त्र को देन-
समाजशास्त्र का अध्ययन बहुत विस्तृत है। इसके अन्तर्गत मनुष्य के समस्त सामाजिक संबंधों पर विचार किया जाता है चाहे वे राजनैतिक हों, आर्थिक या नैतिक। इस अर्थ में समाजशास्त्र को अन्य सामाजिक शास्त्रों के समान ही राजनीतिशास्त्र का भी आधार कहा जा सकता है। समाजशास्त्र ने राजनीतिशास्त्र के अध्ययन में अत्यधिक सहायता की है। राज्य की उत्पत्ति, विकास एवं संगठन को समझने में राजनीतिशास्त्र को समाजशास्त्र से अत्यधिक मदद मिली है। वर्तमान काल में राजनीति शास्त्र में राजनीतिक व्यवहार को बहुत अधिक महत्व दिया जा रहा है। जिसके अध्ययन में समाजशास्त्रीय अध्ययन पद्धतियाँ अत्यन्त सहायक सिद्ध हुई हैं।
2. राजनीति शास्त्र की समाजशास्त्र को देन-
राजनीतिशास्त्र भी समाजशास्त्र के अध्ययन में सहयोग करता है। राजनीति शास्त्र समाजशास्त्र को वे तथ्य प्रदान करता है जिनकी सहायता से समाजशास्त्र समाज के राजनीतिक जीवन का कुशलतापूर्वक अध्ययन करता है। समाजशास्त्र राज्य की उत्पत्ति, संगठन व कार्य आदि का ज्ञान राजनीतिशास्त्र से ही प्राप्त करता है।
उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि समाजशास्त्र व राजनीति शास्त्र में जहाँ घनिष्ठ संबंध है वहाँ अन्तर भी है। उनकी पारस्परिक घनिष्ठता के संबंध में एच. गिडिंग्स का यह कथन है, ‘‘समाजशास्त्र के प्राथमिक सिद्धान्तों से अनजान व्यक्ति को राजनीतिशास्त्र पढ़ाना वैसा ही है जैसा कि न्यूटन के गति संबंधी नियमों से अनजान व्यक्ति को अंतरिक्ष शास्त्र या ऊष्मा गति को पढ़ाना।’’ गिलक्राइस्ट का कथन है, ‘‘राजनीति विज्ञान विशिष्ट शास्त्र है, जबकि समाजशास्त्र एक विस्तृत शास्त्र है।’’
बार्कर ने दोनों शास्त्रों के बीच अन्तर को इस प्रकार प्रकट किया है, ‘‘राजनीतिशास्त्र सिर्फ राजनीति के समुदायों का अध्ययन करता है जो एक संविधान द्वारा संयुक्त किये गये हैं और एक ही सरकार के अन्तर्गत हैं। समाजशास्त्र सभी समुदायों का अध्ययन करता है। राजनीतिशास्त्र एक सिद्धान्त के रूप में स्वीकार कर लेता है कि मनुष्य एक सामाजिक राजनीतिक प्राणी है। वह समाजशास्त्र की भाँति यह बताने का प्रयास नहीं करता कि वह ऐसा प्राणी क्यों है?’’
अन्त में यह कहा जा सकता है कि इन दोनों शास्त्रों का पारस्परिक सहयोग ज्ञान के विकास के लिए आवश्यक है। इन दोनों शास्त्रों का सहयोग ज्ञान की एक नई शाखा के रूप में विकसित हो रहा है जिसे ‘‘राजनीतिक समाजशास्त्र’’ का नाम दिया जाता है।
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