राजनीति विज्ञान और नीतिशास्त्र में परस्पर घनिष्ठ संबंध है। इसका सहज कारण यह है कि हम राजनीतिक कार्यों के औचित्य का निश्चय नीतिशास्त्र की मान्यताओं के आधार पर ही करते हैं।
फाॅय का कथन है, ‘‘यदि कोई बात नैतिक दृष्टि से गलत है तो वह राजनीतिक दृष्टि से भी सही नहीं हो सकती।’’ इन दोनों की घनिष्ठता को गाँधी जी ने इस प्रकार व्यक्त किया है, ‘‘धर्महीन राजनीति, राजनीति नहीं होती है, धर्महीन राजनीति मृत्यु जाल है क्योंकि वह आत्मा के पतन का कारण बनती है।’’ किन्तु दूसरी ओर हाॅब्स व मैकियावली जैसे विचारक यह मानते हैं कि राजनीति और नैतिकता में न तो कोई घनिष्ठता होती है और न होनी चाहिए।
राजनीति विज्ञान और नीति शास्त्र में संबंध :
राजनीति विज्ञान व नीतिशास्त्र की पारस्परिकता – राजनीति विज्ञान व नीतिशास्त्र की पारस्परिकता को निम्नानुसार समझा जा सकता है-
1. नीतिशास्त्र की राजनीति विज्ञान को देन
अत्यन्त प्राचीन समय से ही विभिन्न राजनीतिशास्त्रियों का यह विचार रहा है कि राजनीतिशास्त्र को नीतिशास्त्र का अनुसरण करना चाहिए। अरस्तू के अनुसार, ‘‘राज्य सद्जीवन की प्राप्ति के लिए ही अस्तित्व में है।’’ प्लेटो के अनुसार ‘‘राज्य विवेक व आवश्यकताओं पर आधारित संगठित व्यक्तियों का ऐसा समुदाय है जिसका उद्देश्य नैतिक लक्ष्यों की प्राप्ति है।’’ लाॅर्ड एक्टन के शब्दों में, ‘‘राजनीतिशास्त्र नैतिक सिद्धान्त के बिना व्यर्थ है।’’ यद्यपि राज्य के पास असीमित विधिक प्रभुसत्ता है, फिर भी व्यवहार में राज्य ऐसे कानूनों को लागू नहीं कर सकता जिनके पीछे नैतिक बल न हो। क्योंकि नैतिकताविहीन कानून विद्रोहों व आन्दोलनों को जन्म देते हैं। महात्मा गाँधी का भी यह कहना है, ‘‘कानून नैतिकता पर आधारित होना चाहिये और यदि कानून नैतिकताविहीन है तो नागरिकों को कानून की सविनय अवज्ञा का अधिकार है।’’ गेटेल के अनुसार, ’’जब नैतिक विचार स्थाई और प्रचलित हो जाते हैं तो कानून का रूप ले लेते हैं।’’
2. राजनीति विज्ञान की नीतिशास्त्र को देन
राजनीतिशास्त्र ने भी नीतिशास्त्र को विभिन्न रूपों में प्रभावित किया है। राजनीतिशास्त्र उस व्यावहारिक वातावरण को जन्म देता है जिनमें समाज नैतिक जीवन व्यतीत कर सके। राज्य शांति-व्यवस्था की स्थापना करता है। अनैतिक व्यक्तियों से नैतिक व्यक्तियों की रक्षा करता है। प्रत्येक समाज में अनेक कुरीतियाँ परम्परागत नैतिक मूल्यों के रुप में उपस्थित रहती है जो कि समाज की प्रगति में बाधक होती हैं। राज्य इस प्रकार की अवास्तविक नैतिक मान्यताओं को समाप्त करता है और उसके स्थान पर विवेकपूर्ण नैतिक मूल्यों को कानून की सहायता से स्थापित करता है। हींगल और बोसांके जैसे विचारकों का मत है कि राज्य स्वयं नैतिकता का मूर्त रुप है जो कि नैतिकता का निर्धारण करता है। राज्य नैतिकता से ऊपर है और सही अर्थ में वह नैतिक भावना व मूल्यों को जन्म देता है।
राजनीति विज्ञान व नीतिशास्त्र में अन्तर :
प्लेटो, अरस्तू, फाॅय, लार्ड एक्टन, हीगल, मानटेस्क्यू तथा महात्मा गाँधी जैसे विचारक जहाँ राजनीतिशास्त्र व नीतिशास्त्र के मध्य घनिष्ठता को स्वीकारते हैं। वहीं मेकियावली, बोदां, ग्रेशियस तथा हाॅब्स आदि विचारकों ने इन दोनों के बीच पर्याप्त अन्तर को मानते हुए इनके पारस्परिक संबंध को स्वीकार नहीं किया। इन दोनों के मध्य भेद को निम्न बिन्दुओं द्वारा समझा जा सकता है –
1. क्षेत्र की दृष्टि से
अध्ययन क्षेत्र की दृष्टि से नीतिशास्त्र राजनीति की तुलना में अधिक व्यापक है। राजनीतिशास्त्र केवल राजनीतिक क्रियाओं का अध्ययन करता है और वह नैतिक जीवन से परोक्ष रूप से संबंधित है। नीतिशास्त्र सम्पूर्ण सामाजिक वैयक्तिक जीवन से संबंधित है।
2. प्रकृति में अन्तर
राजनीतिशास्त्र नीतिशास्त्र की तुलना में अधिक वर्णनात्मक और व्यावहारिक शास्त्र है जबकि नीतिशास्त्र आदर्शात्मक व सैद्धान्तिक शास्त्र है। राजनीतिशास्त्र में मूर्त व प्रत्यक्ष बातों का अध्ययन किया जाता है जबकि नीतिशास्त्र अमूर्त व अप्रत्यक्ष बातों का अध्ययन करता है।
3. भौतिक व नैतिक बल की दृष्टि से अन्तर
राजनीतिक आदेशों व कानूनों के पीछे राज्य की भौतिक शक्ति या प्रबुद्ध शक्ति होती है किन्तु नैतिक मूल्यों व नियमों के पीछे केवल नैतिक बल होता है।
उपरोक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि राजनीति विज्ञान व नीतिशास्त्र में परस्पर घनिष्ठता होते हुए भी कुछ आधारभूत और महत्वपूर्ण अन्तर भी है।