धातु शिल्पकला :
छत्तीसगढ़ में धातु शिल्प की सुदीर्घ परंपरा रही है। आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों में तथा लोकांचलों में कलाकार पारंपरिक रूप से धातु की ढलाई का कार्य करते रहे हैं। मुख्यतः बस्तर और सरगुजा क्षेत्र के जनजातीय ग्रामीणों में लौह और मिश्र धातुओं के शिल्प की प्राचीन परम्परा रही है। धातु शिल्पियों में रायगढ़ के झारा, सरगुजा के मलार और बस्तर के घड़वा शिल्पियों ने अपने कलात्मकता और कल्पनाशीलता को अपने शिल्प के माध्यम से प्रदर्शित किया है।
प्रत्येक शिल्प अपने क्षेत्र के परम्परा और सभ्यता व विचारों का प्रतिनिधित्व करता है। समकालीन रीति-रिवाजों की शिल्पकला में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। छत्तीसगढ़ की लोक धातुशिल्पों में भी यह तथ्य देखने को मिलता है।
बस्तर का घड़वा शिल्प कला :
बस्तर अपनी संस्कृति और विशिष्ट सभ्यता के लिए अपनी अलग पहचान रखती है, यहां पर मिश्र धातुओं के ढलाई द्वारा मूर्तियां, आभूषण आदि का निर्माण प्राचीन काल से हो रहा है। बस्तर के धातु शिल्प की घड़वा का अर्थ है- घड़ना, गढ़ना या सृजन करना। इस कला को घड़वा जाति के लोगों द्वारा अपनाया गया है। घड़वा कर्मगत विशेषण होते हुए भी धीरे धीरे जाति के अर्थ में प्रचलित होता जा रहा है।
घड़वा शिल्पी बर्तन और आभूषणों का ढलाई द्वारा निर्माण करते हैं। आधुनिक काल में अन्य धातु के बर्तनों की मांग के कारण अब इनका मुख्य कार्य आभूषणों के निर्माण का हो गया है। पैरी, एंठी, पहुंची, फुल्ली, विलप, कौड़ी और घुंघरू जैसे आभूषणों का निर्माण घड़वा शिल्प की विशेषता है। अनुष्ठानिक उपयोग के लिए सर्प, हाथी, घोड़ा कलश आदि भी इनके द्वारा बनाया जाता है।
घड़वा कला में प्रयुक्त औजार सामान्यतः स्थानीय लोहार और बढ़ईयों के द्वारा बनाए जाते है, कुछ औजारों का निर्माण घड़वा स्वयं भी अपनी आवश्यकतानुसार कर लेते हैं। इनके औजार सामान्य होते है, जिन्हें बनाने में आसानी होते है।
घड़वा शिल्प कला की तकनीक ऐतिहासिक है, इस विधि से मूर्तियां बनाने का प्राचीनतम प्रमाण सिंधु घाटी की सभ्यता से प्राप्त अवशेषों से मिलता है। मोहनजोदड़ो से प्राप्त नर्तक व अन्य प्रतिमाएं भी संभवतः इसी विधि से बनाई गई थी।
सरगुजा की मलार शिल्पकला :
मलार शिल्पकला से तात्पर्य मलार जाति के शिल्पियों की धातु कला से होता है। मलार घुमक्कड़ स्वभाव की जाति है। ये लोग किसी स्थान पर पांच से दस वर्षों तक बसे रहने के पश्चात् किसी अन्य ग्राम में जाकर बस जाते हैं। जिस ग्राम में ये ठहरते हैं उसके निवासियों की मांग के अनुरूप अपने शिल्प से वस्तुओं का निर्माण करते हैं। पहले यह अस्थाई डेरों में निवास करते थे किंतु समयानुसार वस्तुओं की मांग स्थाई होने से इन्होंने अपने स्थायी निवास निर्मित करने आरंभ कर दिए हैं और स्थाई घरों में रहने लगे हैं। किंतु अपने घरों के अलावा आसपास के ग्रामों में घूम घूमकर अपनी कला का प्रदर्शन इन्होंने आज भी अपनाया हुआ है।
मलार शिल्पियों को यद्यपि शासन द्वारा आदिवासी शिल्पी का दर्जा नहीं दिया गया है किन्तु इनके संस्कार, सभ्यता और खान-पान, रहन-सहन के ढंग आदिवासी लोगों की तरह ही होते हैं।
रायगढ़ के झारा शिल्पकला :
छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले में झाला जाति के लोगों की धातु शिल्प को झारा शिल्प कला के नाम से जानते है। इनका फैलाव रायगढ़ – सारंगढ़ – महासमुंद से लेकर उड़ीसा के सुंदरगढ़ और संबलपुर तक है।
झारा घुमक्कड़ व्यवसायी हैं और ये मलार शिल्पियों के समान किसी ग्राम के बाहर पड़ाव डालकर ग्रामवासियों की आवश्यकता की वस्तुओं की ढलाई करते हैं। अनेक कलात्मक कृतियों के अलावा पुरानी धातुओं को गलाकर दैनिक जीवनोपयोगी बर्तनों आदि का निर्माण करते हैं। झारा लोग मुख्यताः धातु की मूर्तियां, दीपक व बर्तन निर्मित करते हैं। बर्तन में मुख्य रूप से कांसा और पीतल के बनाते हैं।
लौह शिल्पकला :
लोहार ग्रामीण समाज का अभिन्न अंग रहे हैं। बस्तर के लोहारों में अधिकांशतः परम्परागत लोहार हैं किंतु कुछ लोहार ऐसे भी हैं जो मूलतः माडिया आदिवासी हैं और जिन्होंने व्यवसाय के रूप में लोहारी अपना ली। यहां लोहारों को लोहरा अथवा बाड़े कहा जाता है। कृषकों से इनका व्यवसायिक संबंध होते हैं।
बस्तर के लौह शिल्प की तकनीक ढलाई की जगह पिटाई की है। इस तकनीक में लोहे को गलाकर या पिघलाकर शिल्पों का निर्माण नहीं किया जाता बल्कि लोहे को भट्ठी में गर्म करके और उसे पीटकर इच्छित आकृति प्रदान की जाती है।
लौह शिल्प द्वारा सामान्यतः घरों में उपयोग आने वाली वस्तुएं जैसे – चूल्हा, छुरी, चिमटा, चाकू, कुल्हाड़ी, कजरौटी आदि बनाए जाते है। इसके अलावा लौह शिल्प से कलात्मक खिड़की दरवाजे, झूले आदि भी बनाए जाते है।