# कार्ल मार्क्स के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद सिद्धान्त | Karl Mark’s Theory of Dialetical Material-ism

मार्क्स के विचारों को मार्क्सवाद या वैज्ञानिक समाजवाद के नाम से जाना जाता है। मार्क्स से पहले सिसमोण्डी, राबर्ट औवन, साइमन फोरियर आदि समाजवादी विचारक हुए, परन्तु इन सभी विचारकों का दृष्टिकोण नैतिक और मान्यतावादी था, इसलिए उन्हें काल्पनिक समाजवादी कहा जाता है, पर मार्क्स के साथ यह बात नहीं है। लुईस ने लिखा है, “मार्क्स ने समाजवाद को एक षड्यन्त्र के रूप में पाया और उसे एक आन्दोलन के रूप में छोड़ा।” इसका कारण बताते हुए वैपर ने कहा है, “मार्क्स ने केवल श्रमिक वर्ग की आवाज बुलन्द नहीं की। मार्क्सवाद वर्तमान समाज को प्रभावों तथा जटिलता को निश्चित रूप से समझने की एक वृहद् प्रणाली है। क्रान्तिकारी परिस्थितियों और समाज से सम्बन्धित विविध रूपों का अध्ययन करना भी इसका उद्देश्य है।”

प्रो. जोड ने लिखा है कि, “मार्क्स प्रथम सामाजिक लेखक है, जिसके कार्य को वैज्ञानिक कहा जा सकता है। जिस प्रकार समाज को वह चाहता था उसने उसकी केवल रूपरेखा ही प्रस्तुत की है, वरन् उन स्तरों का भी वर्णन किया है, जिसके अनुसार उसका विकास अनिवार्य है।”

ऐसे ही विचार प्रकट करते हुए प्रो. लॉस्की ने लिखा है कि, “मार्क्स ने साम्यवाद को एक अस्त-व्यस्त स्थिति में पाया और उसे एक आन्दोलन बना दिया। उसके द्वारा उसे एक दर्शन मिला और एक दिशा मिली।” मार्क्स अपने जिन विचारों के कारण विश्वभर में जाना जाता है उनमें उसका द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद भी विख्यात है, जिसकी विवेचना निम्नवत् है-

मार्क्स का द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद :

स्टालिन ने मार्क्स के इस सिद्धान्त के बारे में लिखा है कि, “यह द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद इसलिए कहा जाता है, क्योंकि प्राकृतिक घटनाचक्र के प्रति उसे समझने तथा हृदयंगम करने का उसका दृष्टिकोण द्वन्द्वात्मक है और उसकी प्राकृतिक घटनाचक्र की व्याख्या की मान्यता भौतिकवादी है।”

मार्क्स द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद में विश्वास करता था जिसके अनुसार जगत में परिवर्तन या विकास भौतिक पदार्थों में निहित आन्तरिक विरोध के द्वारा होता है, जिसका क्रम है-वाद, प्रतिवाद और समवाद। मार्क्स के अनुसार, “भौतिक इन्द्रिय सापेक्ष जगत ही है, जिससे हमारा सम्पर्क है, केवल एकमात्र वास्तविकता है। हमारी चेतना व विचार सारिणी चाहे वे कितनी अतीन्द्रिय प्रतीत हों-वास्तव में भौतिक शरीरी उपकरण बुद्धि को जाती है। पदार्थ मस्तिष्क की उत्पत्ति नहीं है, वरन् मस्तिष्क ही पदार्थ की सर्वोच्च उत्पत्ति है।”

इस प्रकार मार्क्स, जगत के सभी परिवर्तनों व आन्दोलनों को भले ही वे धार्मिक हों या राजनीतिक व सांस्कृतिक, भौतिक दृष्टि से देखता है। मार्क्स कहता है कि, “यह मनुष्य की चेतना नहीं है, जो उसके अस्तित्व का निश्चय करती है, वरन् उसके सर्वथा विपरीत उसका यह सामाजिक अस्तित्व है, जो उसकी चेतना का निश्चय करता है। “

मार्क्स कहता है कि, “धर्म, सत्य, नीति, न्याय आदि अमूर्त विचारों की अपेक्षा व्यक्ति पर भौतिक विषयों का अधिक प्रभाव पड़ता है।”

मार्क्स पर हीगल का प्रभाव :

मार्क्स ने हीगल के द्वन्द्ववाद के सिद्धान्त को ग्रहण किया है, परन्तु कुछ संशोधन के साथ स्वयं मार्क्स ने कहा है, “मैंने हीगल के द्वन्द्ववाद को सिर के बल खड़ा पाया, अतः मैंने उसे उठाकर पैरों के बल खड़ा कर दिया।” हीगल और मार्क्स दोनों ही मानते हैं कि समाज के विकास की प्रक्रिया के तीन अंग हैं – वाद, प्रतिवाद और समवाद। पर इस विकास में हीगल जहाँ चेतना या आत्मा को कारण मानता है, वहाँ मार्क्स जगत के विकास या परिवर्तन का कारण भौतिक मानता । हीगल ने वाद, प्रतिवाद और समवाद की प्रक्रिया द्वारा निष्कर्ष निकाला कि दैविक आत्मा ही सत्य है और विचार ही विश्व के विकास पर प्रतिबिम्ब है, अतः विचारों का संसार ही वास्तविक संसार है। उधर मार्क्स का मत है कि जो वस्तुएँ हम देखते हैं, अर्थात् वस्तु जगत ही प्रमुख हैं। मन या विचार उसके बाद आता है।

आदर्शवाद बनाम भौतिकवाद :

उपर्युक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि हीगल के अनुसार जगत का मूल तत्त्व आत्मा है, जो स्वयं को जानने का प्रयास करती है। यह आत्मा तत्त्व सम्पूर्ण संसार में व्याप्त है। दैवीय आत्मा की ही अपूर्व अभिव्यक्ति है यह जगत करता रहा है। विचार ही विकास प्रक्रिया को संचालित करता है। आत्मा की आन्तरिक प्रवृत्ति ही अपनी विरोधी प्रतिवादी पैदा करती है। हीगल अपने इन्हीं विचारों के कारण राज्य की आत्मा को सर्वोच्च अभिव्यक्ति बताता है और उसे ईश्वर तुल्य बनाकर आदर्शवादी विचारधारा का निर्माण करता है और राज्य के साध्य व व्यक्ति को साधन मानता है। मार्क्स का मत इसके विपरीत है। मार्क्स दैविक आत्मा का जगत को मूल रूप नहीं मानता। उसका तो कहना है कि चेतना तो जगत के अधीन होती है।

अतः मार्क्स के अनुसार जगत का विकास यथार्थ जगत से होता है, विचार जगत से नहीं। दोनों के विचारों की तुलना करता हुआ वेपर कहता है कि, “हीगल के लिए जगत का मूल तत्त्व आत्मा है। मार्क्स के लिए दोनों ही पदार्थ (आत्मा और पदार्थ) आन्तरिक द्वन्द्व के कारण विकसित होते हैं। हीगल के अन्तिम लक्ष्य विचार की अभिव्यक्ति है। मार्क्स के लिए वर्गविहीन समाज की स्थापना है- ऐसे समाज की स्थापना जिसमें उत्पादन अपर्याप्त होगा तथा जिसमें संघर्ष के लिए कोई स्थान नहीं होगा।”

इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या :

मार्क्स मानव इतिहास में होने वाले विभिन्न परिवर्तनों और घटनाओं के विषय में बताता है कि सभी परिवर्तन भौतिक अथवा आर्थिक कारणों से होते हैं। अतः मार्क्स का यह सिद्धान्त इतिहास की आर्थिक या भौतिकवादी व्याख्या के नाम से भी जाना जाता है। मार्क्स ने लिखा है कि, “सभी राजनीतिक, सामाजिक तथा बौद्धिक सम्बन्ध, धार्मिक एवं कानूनी पद्धतियाँ, सभी बौद्धिक दृष्टिकोण जो इतिहास के विकासक्रम में जन्म लेते हैं, वे सभी जीवन की भौतिक अवस्थाओं से उत्पन्न होते हैं।”

यहाँ पर पुनः हीगल और मार्क्स के विचारों में भिन्नता है। यद्यपि हीगल तथा मार्क्स दोनों यह मानते हैं कि इतिहास के प्रवाह में अनिवार्यता का तत्त्व है, मनुष्य में सामर्थ्य नहीं है कि वह उस प्रवाह को रोक सके। वह कुछ दिनों के लिए उसकी बात को टाल सकता है अथवा अपने प्रयासों से उसमें शीघ्रता ला सकता है, परन्तु दोनों में अन्तर यही है कि हीगल के अनुसार विचार ही ऐतिहासिक घटनाओं के स्वरूप का निर्माण करते हैं। मार्क्स इसके विपरीत कहता है कि, “निरन्तर परिवर्तित होने वाली उत्पादन शक्तियाँ ही सामाजिक सम्बन्धों को परिवर्तित करती रहती है। हस्तचालित यन्त्रों के युग में सामन्तवादी युग का और पचालित तथा विद्युतचालित यन्त्रों के युग में औद्योगिक पूँजीवादी समाज स्थापित हो गया है।”

इस प्रकार मार्क्स उत्पादन की शक्तियों को ही इतिहास की निर्धारक शक्तियाँ मानता है। मार्क्स भी उत्पादन शक्तियों की विशेषताओं का उल्लेख करता है-

  • प्राकृतिक साधन जिसमें भूमि, जलवायु, जल विद्युत, खनिज सम्पत्ति आदि।
  • मशीन, यन्त्र एवं प्राचीनकाल से विरासत में प्राप्त उत्पादन कला।
  • किसी युग विशेष के लोगों के मानसिक और नैतिक गुण।

मानव जाति के इतिहास का काल-विभाजन :

मार्क्स ने आर्थिक व्याख्या के आधार पर मानव इतिहास को 6 कालों में विभाजित किया है-

  1. आदिम साम्यवादी काल,
  2. दासता का काल,
  3. सामन्तवाद का काल,
  4. पूँजीवादी काल,
  5. श्रमिक वर्ग के अधिनायकतन्त्र का काल,
  6. साम्यवादी काल।

मार्क्स के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद सिद्धान्त की विशेषताएँ :

मार्क्स के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की कुछ विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

1. प्रकृति का प्रत्येक पदार्थ एक-दूसरे से जुड़ा है और एक-दूसरे पर निर्भर है। इस प्रकार मार्क्स इस सिद्धान्त द्वारा प्राकृतिक सावयवी एकता स्पष्ट करता है ।

2. मार्क्स ने इस सिद्धान्त के द्वारा यह बतलाया है कि भौतिक पदार्थ गतिशील हैं और उसमें परिवर्तन आवश्यक है। इस परिवर्तन की प्रक्रिया है – वाद, प्रतिवाद और समवाद।

3. उपर्युक्त परिवर्तन मात्रात्मक और गुणात्मक दोनों होते हैं। गेहूँ के दाने का कई दानों में बदलना मात्रात्मक तथा पानी का बर्फ में बदलना गुणात्मक परिवर्तन है। यह परिवर्तन प्रकृति के द्वन्द्व के कारण निहित होता है ।

4. प्रत्येक वस्तु में अन्तर्निहित विरोध होता है, जिससे विकास की प्रक्रिया आगे बढ़ती है। द्वन्द्वात्मक सिद्धान्त का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण सामन्तवाद, पूँजीवाद और साम्यवाद का त्रिपुरी है। सामन्तवाद अपने अन्तर्विरोधों के कारण मिट गया और पूँजीवाद ने जो उसकी अन्तरिम स्टेज है, उसका प्रतिवाद किया, परन्तु पूँजीवाद में भी यह अन्तर्विरोध है कि उसने समाज को ‘शोषित’ और ‘शोषक’ दो भागों में बाँटा है। अतः इसके प्रतिवादस्वरूप समाज के विकास की यह व्यवस्था आती है जिसे सर्वहारा वर्ग के अधिनायकतन्त्र की व्यवस्था कहते हैं, इन दोनों व्यवस्थाओं के ‘समवाद’ स्वरूप साम्यवाद की व्यवस्था आयेगी जिसमें वस्तुओं पर सबका सामूहिक अधिकार होगा।

मार्क्स के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद सिद्धान्त की आलोचना :

मार्क्स का द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद का सिद्धान्त उसके सम्पूर्ण दर्शन का आधार स्तम्भ है। इस सिद्धान्त के आधार पर ही उसने यह सिद्ध किया है कि श्रमिकों का शोषण निश्चित रूप से क्रान्ति को जन्म देगा, जिसके फलस्वरूप पूँजीवाद की समाप्ति और वर्गविहीन समाज की स्थापना होगी, फिर भी मार्क्स के इस सिद्धान्त को निश्चित सीमाओं में ही स्वीकार किया जा सकता है, क्योंकि इसमें निम्नलिखित दोष भी हैं-

1. मार्क्स ने ‘भौतिकवाद‘ का अर्थ स्पष्ट नहीं किया। मार्क्स ने जैसा कि सेबाइन कहा है कि इस शब्द का अर्थ ‘धर्म-विरोधी धर्म-निरपेक्षवाद’ के रूप में किया है, परन्तु सेबाइन का मत है कि, “इस शब्द के तत्कालीन अर्थ को देखते हुए कुछ भ्रामक था। ¨

2. मार्क्स की ‘द्वन्द्ववाद‘ की धारणा गूढ़ और अस्पष्ट है। वैपर ने लिखा है कि, “मार्क्स और ऐंजिल्स अपनी समस्त रचनाओं में द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद को मानकर चलते हैं, परन्तु वे इसका विस्तृत विवेचन कहीं भी नहीं करते हैं।”

3. मार्क्स ने अपने सिद्धान्त का निर्माण द्वन्द्व अथवा संघर्ष के आधार पर किया है, परन्तु उसने अपनी रचनाओं से संघर्ष को एक निश्चित रूप में स्वीकार किया है।

4. मार्क्स का यह विचार भी पूर्णतया सही नहीं है कि द्वन्द्व या संघर्ष ही मानव-समाज के विकास का एकमात्र कारण है।

5. मार्क्स का यह विचार भी ठीक नहीं कि पदार्थ चेतनाहीन होता है, परन्तु अन्तर्निहित विरोधी तत्त्वों के कारण उसमें स्व-विकास की सामर्थ्य होती है। वास्तविकता यह है कि पदार्थ में जो भी परिवर्तन होते हैं, वे बाहरी शक्ति के द्वारा किये जाते हैं, जिसके वह अधीन होता है। उदाहरण के लिए, विशेष परिस्थितियों के अभाव में गेहूँ का बीज उगकर और विकसित होकर पौधे का निर्माण होता है।

The premier library of general studies, current affairs, educational news with also competitive examination related syllabus.

Related Posts

# भारतीय संविधान में किए गए संशोधन | Bhartiya Samvidhan Sanshodhan

भारतीय संविधान में किए गए संशोधन : संविधान के भाग 20 (अनुच्छेद 368); भारतीय संविधान में बदलती परिस्थितियों एवं आवश्यकताओं के अनुसार संशोधन करने की शक्ति संसद…

# भारतीय संविधान की प्रस्तावना | Bhartiya Samvidhan ki Prastavana

भारतीय संविधान की प्रस्तावना : प्रस्तावना, भारतीय संविधान की भूमिका की भाँति है, जिसमें संविधान के आदर्शो, उद्देश्यों, सरकार के संविधान के स्त्रोत से संबधित प्रावधान और…

# अन्तर्वस्तु-विश्लेषण प्रक्रिया के प्रमुख चरण (Steps in the Content Analysis Process)

अन्तर्वस्तु-विश्लेषण संचार की प्रत्यक्ष सामग्री के विश्लेषण से सम्बन्धित अनुसंधान की एक प्रविधि है। दूसरे शब्दों में, संचार माध्यम द्वारा जो कहा जाता है उसका विश्लेषण इस…

# अन्तर्वस्तु-विश्लेषण का अर्थ, परिभाषा, विशेषताएं, उद्देश्य, उपयोगिता एवं महत्व (Content Analysis)

अन्तर्वस्तु-विश्लेषण संचार की प्रत्यक्ष सामग्री के विश्लेषण से सम्बन्धित अनुसंधान की एक प्रविधि है। दूसरे शब्दों में, संचार माध्यम द्वारा जो कहा जाता है उसका विश्लेषण इस…

# हॉब्स के सामाजिक समझौता सिद्धांत (Samajik Samjhouta Ka Siddhant)

सामाजिक समझौता सिद्धान्त : राज्य की उत्पत्ति सम्बन्धी सिद्धान्तों में सामाजिक समझौता सिद्धान्त सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है। 17 वीं और 18 वीं शताब्दी में इस सिद्धान्त…

# राज्य के कार्यक्षेत्र की सीमाएं (limits of state jurisdiction)

राज्य के कार्यक्षेत्र की सीमाएं : राज्य को उसके कार्यक्षेत्र की दृष्टि से अनेक भागों में वर्गीकृत किया गया है। राज्य के कार्य उसकी प्रकृति के अनुसार…

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

2 × two =