# ब्रिटिश संविधान की आधुनिक प्रवृत्तियां (British Samvidhan ki Aadhunik Pravrittiya)

ब्रिटिश संविधान की आधुनिक प्रवृत्तियां :

लॉर्ड हेलशम, जो कि ब्रिटेन के एक प्रतिष्ठित व्यक्ति थे, ने रिचर्ड डिब्लबी व्याख्यान में 14 अक्टूबर, 1976 को ब्रिटिश संविधान का आधुनिक संदर्भ में विश्लेषण किया। यह व्याख्यान पढ़ने और समझने योग्य है। लॉर्ड हेलशम ने अपने भाषण में ब्रिटिश संविधान की कमजोरियों को उजागर किया और उन कमियों को दूर करने के उपायों पर भी अपने विचार व्यक्त किए। उन्होंने यह महत्वपूर्ण बात कही कि ‘अब समय आ गया है कि संविधान को लिपिबद्ध किया जाए।’ यह सच है कि ब्रिटिश शासन प्रणाली में कुछ आधुनिक प्रवृत्तियां शासन के स्वरूप को बदल रही हैं। इन प्रवृत्तियों को निम्नलिखित रूप से समझा जा सकता है-

1. लिखित कानूनों की ओर बढ़ता रुझान

ब्रिटिश संविधान मुख्य रूप से अलिखित है, लेकिन अब इसमें बदलाव करने के लिए अधिकतर लिखित कानूनों का सहारा लेने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। 1911 और 1949 के संसदीय अधिनियम, 1948 का जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, ये सभी अधिनियम ब्रिटिश संविधान के लिखित स्वरूप की ओर इशारा करते हैं।


अधिक जानें : ब्रिटिश संविधान की प्रमुख विशेषताएं.


2. लोकतंत्र की ओर बढ़ता कदम

ब्रिटिश शासन प्रणाली में लोकतंत्र का लगातार विकास हुआ है, और पिछली कुछ शताब्दियों में लोकतांत्रिकरण की दिशा में एक मजबूत रुझान देखा गया है। उदाहरण के लिए, 1949 में लॉर्ड्स सभा (House of Lords) की शक्तियों को काफी हद तक कम कर दिया गया था। 1948 में, लोकसभा (House of Commons) में विश्वविद्यालयों का प्रतिनिधित्व समाप्त कर दिया गया, और महिलाओं को लॉर्ड्स सभा की सदस्यता का अधिकार मिला। अब यह विचार तेजी से बढ़ रहा है कि लॉर्ड्स सभा की शक्तियों को और कम किया जाना चाहिए, और इसकी सदस्यता का आधार वंशानुगत न होकर वैयक्तिक गुण होनी चाहिए।

3. संसद की शक्ति में गिरावट और मंत्रिमंडल का बढ़ता प्रभुत्व

ब्रिटिश संविधान की वर्तमान प्रवृत्ति संसद की घटती शक्ति और मंत्रिमंडल के बढ़ते प्रभाव को दर्शाती है। मंत्रिमंडल अब देश की वास्तविक प्रशासनिक और विधायी शक्ति का प्रयोग कर रहा है, जिससे उसकी निरंकुशता अधिक स्पष्ट रूप से दिखाई दे रही है। संक्षेप में, संसद की भूमिका कमजोर हो रही है, जबकि मंत्रिमंडल की शक्ति और प्रभुत्व बढ़ रहा है।

4. उपनिवेशवाद का पतन और राष्ट्रमंडल में ब्रिटेन की बदलती भूमिका

ब्रिटिश उपनिवेशों के इतिहास में एक महत्वपूर्ण बदलाव आया जब लगभग सभी उपनिवेश स्वतंत्र राष्ट्र बन गए। बात करें राष्ट्रमण्डल की, तो 1930 तक इस पर ब्रिटेन का पूरी तरह से वर्चस्व था। 1948 तक इसे ‘ब्रिटिश राष्ट्रमण्डल‘ के नाम से जाना जाता था। लेकिन, 1949 में भारत, पाकिस्तान, घाना जैसे गणराज्यों को इसकी सदस्यता मिलने के बाद, इसका नाम बदलकर केवल ‘राष्ट्रमण्डल‘ कर दिया गया। भले ही राष्ट्रमण्डल का अध्यक्ष ब्रिटिश सम्राट है, लेकिन वह केवल एक नाममात्र का प्रधान है। राष्ट्रमण्डल में ब्रिटेन की स्थिति अब एक ‘समान भागीदार‘ की है। अब ब्रिटेन के पास राष्ट्रमण्डल के फैसलों को प्रभावित करने की पहले जैसी शक्ति नहीं रही।

5. राजनीतिक दलों में सहमति की बढ़ती हुई प्रवृत्ति

ब्रिटेन के प्रमुख राजनीतिक दलों में संवैधानिक सिद्धांतों के प्रति सहमति और निकटता की प्रवृत्ति बढ़ रही है। राष्ट्रीय मुद्दों पर भी एक राष्ट्रीय सहमति दिखाई देती है, जो कि राजनीति में स्थिरता का संकेत है।

संक्षेप में, ब्रिटिश संविधान दुनिया का एकमात्र अलिखित और अद्वितीय संविधान है, जो राजतंत्र, कुलीनतंत्र और लोकतंत्र का एक कल्याणकारी मिश्रण है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह परिस्थितियों और आवश्यकताओं के अनुसार खुद को बदलने की क्षमता रखता है। इसी कारण ब्रिटेन के संवैधानिक विकास की अनूठी प्रकृति का वर्णन एन्सन ने काव्यात्मक शैली में किया है: “यह संविधान विभिन्न प्रकार की भवन निर्माण सामग्री से बना एक ऐसा महल है, जिसमें समय-समय पर विभिन्न मालिकों ने अपनी-अपनी आवश्यकताओं के अनुसार दालान, बरामदे, खंभे, शयनकक्ष और अतिथिकक्ष आदि बनाए हैं। इसके निर्माण में अनेक लोगों का हाथ है।” इसलिए, इस संविधान को 21वीं सदी का सबसे लोकतांत्रिक और प्रगतिशील संविधान कहा जा सकता है, जो सहमति और विकास के पथ पर अग्रसर है। यह एक ऐसा उदाहरण है जो अन्य देशों के लिए भी प्रेरणादायक हो सकता है।

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