# ब्रिटिश संविधान का विकास, पृष्टभूमि (British Samvidhan ka Vikash)

ब्रिटिश संविधान का विकास :

ब्रिटिश संविधान एक लंबी और क्रमिक प्रक्रिया का परिणाम है। इसे किसी संविधान सभा द्वारा अचानक नहीं बनाया गया, बल्कि यह राजनीतिक जागरूकता और समझ के साथ धीरे-धीरे विकसित हुआ है। यह एक विकसित संविधान है, जिसने लगभग चौदह सौ वर्षों के अनुभव से अपना वर्तमान स्वरूप पाया है। ब्रिटिश संविधान की एक खास बात यह है कि इसका विकास शांतिपूर्ण रहा है। इसमें कोई बड़ा और अचानक बदलाव नहीं हुआ है, बल्कि यह समय के साथ स्वाभाविक रूप से विकसित हुआ है। संवैधानिक विकास के नजरिए से देखें तो, ब्रिटिश संविधान के इतिहास को निम्नलिखित 6 युगों में बांटा जा सकता है:

1. ऐंग्लों-सैक्शन काल : सीमित राजतन्त्र की स्थापना

ब्रिटिश संवैधानिक विकास की शुरुआत ऐंग्लो-सैक्सन काल से मानी जा सकती है। यहीं से ब्रिटिश संविधान की आधारशिला रखी गई। इस युग में राजतंत्र (monarchy) और स्थानीय शासन (local governance) की नींव पड़ी, जिसने आगे चलकर सीमित राजतंत्र और संवैधानिक मूल्यों के विकास का मार्ग प्रशस्त किया।

2. नॉर्मन काल : राजकीय निरंकुशता और सबल केन्द्रीय सरकार का उदय

नॉर्मन विजेता विलियम द कॉनकरर ने ब्रिटेन पर विजय प्राप्त करके नॉर्मन साम्राज्य की नींव रखी। नॉर्मनों ने एंग्लो-सैक्सन युग की स्थानीय संस्थाओं को पूरी तरह से खत्म नहीं किया, बल्कि उनमें ज़रूरी बदलाव किए, जिससे केंद्रीय सरकार और भी मज़बूत बन सके। चर्च को भी सरकार के नियंत्रण में लाया गया। पूरे देश में एक समान कानून लागू किया गया, जिसकी वजह से इंग्लैंड में एक केंद्रीकृत शासन व्यवस्था स्थापित हुई।

3. प्लैण्टेगैनट और लंकास्ट्रियन काल : वैधानिक संस्थाओं का उदय

नॉर्मन काल में स्थापित शासन व्यवस्था में हेनरी प्रथम ने सुधार किए। शासन को सुचारू रूप से चलाने के लिए क्यूरिया रेजिस के प्रशासनिक और न्यायिक कार्यों को विभाजित करके ‘प्रिवी काउंसिल’ और ‘एक्सचेकर’ जैसी संस्थाओं की शुरुआत हुई। इसी काल में सम्राट जॉन इंग्लैंड की गद्दी पर आसीन हुए। सामंत इस अयोग्य, अदूरदर्शी और अत्याचारी शासक के अत्याचारों से त्रस्त होकर उसके खिलाफ विद्रोह पर उतर आए। 15 जून, 1215 ई. को रेनीमेड नामक स्थान पर उन्हें एक अधिकार पत्र पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर किया गया। यही अधिकार पत्र ‘मैग्नाकार्टा‘ के नाम से प्रसिद्ध है। इस प्रकार, मैग्नाकार्टा ने राजा की निरंकुशता को समाप्त कर एक सीमित राजतंत्र की स्थापना की। संविधानवाद के इतिहास में मैग्नाकार्टा का एक महत्वपूर्ण स्थान है।

संसद का उदय– यद्यपि मैग्नाकार्टा में सीधे तौर पर प्रतिनिधित्व का मुद्दा नहीं उठाया गया था, लेकिन इसके बाद धीरे-धीरे यह सिद्धांत प्रचलन में आने लगा। इसी के साथ, ब्रिटिश संविधान में आधुनिक संसद की नींव दिखाई देने लगी। 1295 ईस्वी में, एडवर्ड प्रथम ने एक संसद बुलाई जिसे “आदर्श संसद” (Model Parliament) का नाम दिया गया। इस संसद में 572 सदस्य थे, जिसमें बैरन और क्लर्जी का समूह “लॉर्ड्स सभा” के नाम से जाना जाने लगा, और आम जनता का समूह “कॉमन्स सभा” के नाम से जाना जाने लगा। यह एक संयोग ही था कि ब्रिटिश संसद दो सदनों में विभाजित हो गई। इस प्रकार, द्विसदनीय संसद की शुरुआत हुई।

4. ट्यूडर काल : पुनः कठोर राजतन्त्र की स्थापना

1485 में हेनरी ट्यूडर ने सत्ता संभाली। ट्यूडर सम्राट अपने पूर्ववर्तियों की तुलना में अधिक शक्तिशाली और सक्षम थे। उन्होंने देश में एक मजबूत, निरंकुश राजतंत्र स्थापित किया। इस दौरान संसद की शक्ति में काफी कमी आई। ट्यूडर शासकों की निरंकुशता को जनता ने खुशी से स्वीकार किया क्योंकि उन्होंने देश में सुख, शांति और समृद्धि स्थापित की। इसके अतिरिक्त, उनके शासनकाल में राज्य शक्ति पोप के नियंत्रण से मुक्त हो गई। इससे ट्यूडर वंश ने इंग्लैंड में एक नए युग की शुरुआत की, जिसमें राजा की शक्ति सर्वोपरि थी और देश तेजी से विकास की ओर अग्रसर हुआ।

5. स्टूअर्ट काल : लोकतन्त्र की आधारशिला की स्थापना

स्टुअर्ट राजाओं का शासनकाल 1603 से 1714 ईस्वी तक रहा। इस दौर में, राजा और संसद अक्सर एक-दूसरे के खिलाफ थे। ब्रिटेन में, यह मांग उठने लगी कि राजाओं की शक्ति को सीमित किया जाए और ब्रिटेन में एक संवैधानिक राजतंत्र की स्थापना की जाए। स्टुअर्ट काल में, संसदीय लोकतंत्र की नींव रखी गई। इसी अवधि में, 1688 ईस्वी की गौरवपूर्ण क्रांति के बाद, ब्रिटेन में निरंकुश शासन समाप्त हो गया और संसद की सर्वोच्चता स्थापित हो गई। राजा को कानून के अधीन कर दिया गया। इस काल में हुए निम्नलिखित संवैधानिक प्रावधान महत्वपूर्ण हैं-

अधिकार पत्र, 1689 – इस अधिकार पत्र में निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण बातें सम्मिलित की गई-

  1. संसद की पूर्व-स्वीकृति के बिना राजा कोई नवीन कर नहीं लगा सकता,
  2. राजा को वर्ष में कम से कम एक बार संसद की बैठक बुलानी पड़ेगी,
  3. संसद की पूर्व-स्वीकृति के बिना राजा कोई सेना नहीं रख सकता,
  4. संसद में जनता के प्रतिनिधियों को भाषण की स्वतन्त्रता प्राप्त होगी।

6. हैनोवर काल : संसदीय जनतन्त्र का विकास

हैनोवर वंश के शासनकाल में संसद की सर्वोच्चता स्थापित होना एक महत्वपूर्ण पड़ाव था। यहीं से संसदीय लोकतन्त्र का विकास प्रारम्भ हुआ, जो बीसवीं शताब्दी के पहले भाग तक अपने पूर्ण रूप में पहुंचा। इस प्रकार, संसदीय विकास के विभिन्न चरणों को निम्नलिखित रूप से समझा जा सकता है-

1। राजा की वास्तविक शक्तियों का पतन : 1689 ईस्वी के अधिकार पत्र (Bill of Rights) के साथ ही संसद की सर्वोच्चता स्थापित हो चुकी थी। हालांकि, हैनोवर वंश के शासकों के सत्ता संभालने से पहले तक, राजा को मंत्रियों की नियुक्ति और उन्हें पद से हटाने में काफी दखलअंदाजी करने का अधिकार था। लेकिन, हैनोवर काल से राजा का यह अधिकार धीरे-धीरे कम होता गया और ये सभी अधिकार संसद में केंद्रित हो गए। अब राजा की बजाय, संसद ही मंत्रियों की नियुक्ति और पद से हटाने जैसे महत्वपूर्ण निर्णय लेने लगी।

2। प्रधानमंत्री व मन्त्रीमण्डलीय प्रणाली का विकास : हैनोवर युग से पहले, मंत्रिमंडलीय बैठकों की अध्यक्षता स्वयं सम्राट करते थे। लेकिन जब राजा जॉर्ज सिंहासन पर आए, तो वे अंग्रेजी भाषा से परिचित नहीं थे। इस कारणवश, उन्होंने मंत्रिमंडल की बैठकों में हिस्सा लेना बंद कर दिया। ऐसी परिस्थिति में, सम्राट ने ह्विग पार्टी के नेता सर रॉबर्ट वालपोल को कैबिनेट की अध्यक्षता करने का दायित्व सौंपा। कालांतर में, इसी पद को प्रधानमंत्री के नाम से जाना जाने लगा।

3। लोकसदन का लोकतन्त्रीकरण : हालांकि संसद ने 17वीं शताब्दी में ही सर्वोच्चता हासिल कर ली थी, फिर भी यह पूरी तरह से शक्तिशाली नहीं बन पाई थी। इसकी एक मुख्य वजह यह थी कि संसद में जनता के एक बहुत छोटे हिस्से का ही प्रतिनिधित्व था। इसलिए, 1832 के सुधार अधिनियम के माध्यम से मताधिकार का दायरा बढ़ाया गया। 1867 के सुधार अधिनियम ने मजदूरों को भी वोट देने का अधिकार दिया। अंततः, 1928 में वयस्क मताधिकार लागू किया गया। इस प्रकार, विभिन्न कानूनों के माध्यम से, कॉमन सभा का लोकतांत्रिकरण हुआ, जिससे यह सही मायने में लोगों की प्रतिनिधि संस्था बन सकी।

4। लार्ड सभा की शक्तियों का पतन : 18वीं सदी तक लॉर्ड सभा का लोक सदन पर वर्चस्व था, लेकिन जैसे-जैसे कॉमन्स सभा का लोकतंत्रीकरण हुआ, लॉर्ड सभा के अधिकार कम होते गए। लॉर्ड सभा एक वंशानुगत संस्था होने के कारण राष्ट्र का सही प्रतिनिधित्व नहीं कर सकती थी। 1832 ईस्वी का सुधार अधिनियम लॉर्ड सभा की इच्छा के विरुद्ध पारित हुआ, और यहीं से लॉर्ड सभा की शक्तियां कम होनी शुरू हो गईं। 1911 और 1949 ईस्वी के संसदीय अधिनियमों ने इसकी शक्तियों को और भी सीमित कर दिया।

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