धर्म और भारतीय राजनीति :
भारतीय समाज में तभी एकता बनी रहती है जब समाज के सभी धार्मिक समुदाय एक-दूसरे के साथ मिल-जुलकर रहें। भारतीय संस्कृति अत्यन्त प्राचीनकाल से धार्मिक सहिष्णुता में और ‘सर्व धर्म समभाव’ में विश्वास करती है। भारतीय आवश्यकताओं एवं भारतीय संस्कृति के अनुकूल भारत के संविधान द्वारा भारत को एक धर्म-निरपेक्ष राज्य घोषित किया गया है, 42वें संविधान संशोधन द्वारा संविधान की प्रस्तावना में धर्म-निरपेक्ष शब्द दिया गया है और अब भारत अधिकृत रूप से एक धर्म-निरपेक्ष राज्य है।
यद्यपि भारत एक धर्म-निरपेक्ष राज्य है और सिद्धान्ततः राजनीति धर्म पर आधारित नहीं होनी चाहिए, परन्तु वास्तविकता यह है कि भारतीय राजनीति में धर्म की अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका रही है। धर्म एक व्यापक शब्द है और भारत में धर्म शब्द का प्रयोग नैतिकता एवं कर्त्तव्यपरायणता के रूप में किया जाता रहा है, बल्कि धर्म को नैतिक एवं आध्यात्मिक उत्थान की शक्ति के रूप में देखा जाता है।
डॉ. राधाकृष्णन् के शब्दों में, “सच्चा धर्म मानवात्मा के उत्थान की इच्छा है, वह जो अपने को किसी व्यक्ति के अन्दर से उद्घाटित करती है, जो किसी के जीवनरक्त से निर्मित्त होती है, यह हमारी प्रकृति की निष्पत्ति है।”
परन्तु धर्म का यह रूप तो दार्शनिकों तक सीमित है। यथार्थ में विभिन्न धर्मों के मठाधीशों ने धर्म को बहुत संकुचित बना दिया है। उसे सम्प्रदाय बना दिया है और उसका एक राजनीतिक हथियार के रूप में प्रयोग किया जाने लगा है। परिणाम यह है कि साम्प्रदायिकता भारतीय राजनीतिक संस्कृति का एक घातक तत्व बन गया है।
भारतीय राजनीति में धर्म की भूमिका एवं प्रभाव :
भारतीय राजनीति के निर्धारण में धर्म ने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। भारतीय राजनीति में धर्म का प्रयोग विभिन्न जातियों में कटुता की भावना पैदा करने के लिए भी किया गया है। दूसरी ओर धर्म का प्रयोग राजनीतिक सत्ता प्राप्त करने के लिए भी किया गया है। जामा मस्जिद के शाही इमाम अब्दुल्ला बुखारी तथा बाबा जयगुरुदेव की राजनीतिक शक्ति का आधार धर्म ही रहा है। धार्मिक भावनाओं का लाभ उठाने में राजनीतिक दल भी पीछे नहीं रहे हैं। साम्प्रदायिक आधार पर राजनीतिक दलों का निर्माण किया गया है, साम्प्रदायिक आधार पर मत माँगे जाते हैं, राजनीतिक निर्णय साम्प्रदायिकता के रंग में रंगे होते हैं। मतदाताओं से मत प्राप्त करने की अपील धार्मिक आधार पर की जाती है। विरोधी दलों द्वारा यदि साम्प्रदायिकता के विष का वमन किया जाता है तो सत्तारूढ़ दल भी उन्हें सुविधाएँ प्रदान करने में किसी से पीछे नहीं है।
भारतीय राजनीति पर धर्म का प्रभाव निम्नलिखित रूपों में देखा जा सकता है –
1. धर्म के आधार पर राजनीतिक दलों का निर्माण
यह बड़े ही दुर्भाग्य की बात है कि जहाँ प्रजातान्त्रिक शासन प्रणाली के अन्तर्गत राजनीतिक दलों के संगठन का आधार उनकी विचारधाराएँ तथा आदर्श होने चाहिए थे, भारतवर्ष में राजनीतिक दलों का गठन धर्म के आधार पर किया गया। मुस्लिम लीग, शिरोमणि अकाली दल, रामराज्य परिषद्, हिन्दू महासभा आदि ऐसे ही राजनीतिक दल हैं, जो कि धर्म और साम्प्रदायिकता के विघटनकारी आधार पर खड़े हैं। मौरिस जोन्स का विचार है, “यदि साम्प्रदायिकता को संकुचित अर्थों में लिया जाए, अर्थात् कोई राजनीतिक दल किसी विशेष धार्मिक समुदाय के राजनीतिक दबावों की रक्षा के लिए बना हो तो कुछ पार्टियाँ ऐसी हैं जो स्पष्ट रूप से अपने आपको साम्प्रदायिक कहती हैं।”
2. निर्वाचन में धर्म की भूमिका
भारतवर्ष में अधिकांश राजनीतिक दल तथा नेता जनता की धार्मिक भावनाओं का अनुचित लाभ उठाते हैं। निर्वाचन के समय धार्मिक आधार पर मत माँगे जाते हैं। वोट बटोरने के लिए मठाधीशों, इमामों, पादरियों और साधुओं से साँठ-गाँठ की जाती हैं। सन् 1961 के आम चुनाव में शंकराचार्य, सन् 1977 तथा सन् 1980 के लोकसभा चुनावों में दिल्ली के शाही इमाम की भूमिका को इस परिप्रेक्ष्य में अच्छी तरह से समझा जा सकता है। शाही इमाम ने अपने धार्मिक पद का दुरुपयोग करते हुए एक विशेष राजनीतिक दल को मत देने की अपील राजनीतिक मंच से की। दिनमान के एक पत्रकार ने इस पर टिप्पणी करते हुए लिखा था, “सवाल उठता है कि समाजवाद और गणतन्त्र की बात करने वाले अगर इमाम के नाम से वोट पाना चाहेंगे तो हो सकता है कि बलराज मधोक जैसे लोग शंकराचार्य के नाम पर वोट माँगने लगें। फिर क्या, इस देश को शंकराचार्य और इमाम के बीच चुनाव करना होगा।”
3. धार्मिक आधार पर दबाव गुटों का निर्माण
भारतीय राजनीति में दबाव गुटों का निर्माण भी धार्मिक आधार पर हुआ है। ये दबाव समूह शासन की नीतियों को प्रभावित करने एवं अपने पक्ष में निर्णय कराने में अत्यधिक सक्रिय हैं। हिन्दुओं की आपत्ति के बावजूद भी ‘हिन्दी कोड बिल’ पारित हो गया। स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् से कई मुस्लिम दबाव समूह संगठित हुए हैं। ये दबाव समूह उर्दू को संवैधानिक संरक्षण दिलाने, अलीगढ़ विश्वविद्यालय के अल्पसंख्यक स्वरूप को बनाए रखने तथा मुस्लिम पर्सनल ला में संशोधन न किया जाए आदि के लिए सदैव सक्रिय रहे हैं।
4. धर्म के आधार पर पृथक् राज्यों की माँग
भारतवर्ष में धर्म के आधार पर पृथक् राज्यों के निर्माण की माँग की जाती है। अकाली दल द्वारा पंजाबी सूबे की माँग का आधार धार्मिक ही था। संत फतेहसिंह के अनुयायियों का कहना था, “उत्तर भारत में एक समाजवादी लोकतन्त्री सिख होमलैण्ड की स्थापना ही सिख राजनीति का वास्तविक एवं एकमात्र लक्ष्य है।” पुराने पंजाब राज्य के विभाजन का आधार वस्तुतः धार्मिक ही था। इसी प्रकार नगालैण्ड के ईसाइयों द्वारा पृथक् राज्य की माँग का आधार भी धार्मिक था और अब सिक्खों के एक वर्ग द्वारा खालिस्तान की माँग का एकमात्र आधार धार्मिक ही है।
5. मंत्रिमण्डल में प्रतिनिधित्व का आधार
धार्मिक केन्द्र तथा राज्यों में मंत्रिमण्डलों का निर्माण करते समय इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता है कि विभिन्न धर्मों एवं सम्प्रदायों के लोगों को मंत्रिमण्डल में स्थान अवश्य प्राप्त हो जाय। केन्द्रीय मंत्रिमण्डल में अल्पसंख्यकों, मुसलमानों, सिक्खों तथा ईसाइयों को अवश्य ही प्रतिनिधित्व दिया जाता रहा है।
6. राज्यों की राजनीति में धर्म की निर्णायक भूमिका
भारतवर्ष में राज्यों की राजनीति किस प्रकार से धर्म से आच्छादित है इसके लिए पंजाब का उदाहरण ही पर्याप्त होगा, जहाँ शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबन्धक समिति के चुनाव प्रत्यक्ष तथा परोक्ष रूप से अकाली दल की राजनीति को प्रभावित करते हैं और अकाली दल पंजाब की राजनीति को।
7. धर्म और राष्ट्रीय एकता की भावना
धर्म भारत की राष्ट्रीय एकता के मार्ग में बहुत बड़ी बाधा के रूप में उपस्थित हुआ है। दुर्भाग्य की बात है कि जिन धार्मिक मतभेदों के कारण देश का विभाजन हुआ, वही धर्म विघटनकारी तत्व के रूप में आज भी सक्रिय है।