भारत विभाजन के कारण :
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान और उसके बाद भारत में ब्रिटेन के जितने भी प्रतिनिधिमण्डल आये, वे उन सबके प्रस्तावों को जिन्ना ने ठुकरा दिया। बेवेल योजना ठुकराते समय उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा था, “जब मुझे प्लेट में रखकर पाकिस्तान भेंट किया जा रहा है तो मैं यह योजना क्यों मानूं।”
द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त होने के बाद जब ब्रिटेन की नई सरकार ने भारत की स्वतन्त्रता के लिए लार्ड माउण्टबेटन को भारत भेजा तो मुस्लिम लीग ने सभी मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में उग्र साम्प्रदायिक दंगे कराये। वह यह सिद्ध करना चाहती थी कि भारत में हिन्दू और मुसलमान साथ-साथ नहीं रह सकते। दंगों की विभीषिका को देखकर गाँधीजी, नेहरू और पटेल जी भी पिघल गये। उन्हें भी लगने लगा कि स्वतन्त्रता के साथ-साथ भारत के विभाजन के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं है।
इस प्रकार अंग्रेजों की दुष्टतापूर्ण नीति से तथा मुस्लिम लीग के माध्यम से भारत में फैलाये गये मुस्लिम साम्प्रदायिकता के विष के कारण भारत का विभाजन हुआ।
15 अगस्त, 1947 ई. को भारत स्वतन्त्र हुआ। यह स्वतन्त्रता अपने साथ एक अभिशाप भी लाई थी। स्वतन्त्रता के साथ भारत का विभाजन भी हुआ। भारत के दो टुकड़े कर दिये गये थे।
यह और भी आश्चर्यजनक है कि पाकिस्तान के तथाकथित निर्माता मोहम्मद अली जिन्ना ने पाकिस्तान का निर्माण होते ही कहा था, “मैने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि यह हो जायेगा। मुझे कभी स्वप्न में भी पाकिस्तान बनने की आशा नहीं थी।”
प्रश्न उठता है कि फिर भारत का विभाजन क्यों हुआ ? वे कौन-से कारण थे, जो भारत के विभाजन के उत्तरदायी थे।
भारत-पाकिस्तान विभाजन के प्रमुख कारण :
भारत के विभाजन के कई कारण हैं। इनमें से मुख्य निम्न प्रकार हैं-
1. अंग्रेजों की ‘फूट डालो और शासन करो’ की नीति
भारत के विभाजन के लिए सबसे अधिक उत्तरदायी अंग्रेज हैं। वास्तव में, उन्होंने योजनाबद्ध तरीके से भारत का विभाजन किया। पहले तो उन्होंने ‘फूट डालो और शासन करो’ की नीति का पालन करते हुए भारत के हिन्दू और मुसलमानों में फूट डलवायी। भारत के वायसराय लार्ड मिण्टो ने भारत में मुस्लिम लीग के जन्म को प्रोत्साहन दिया। उन्होंने ही मुसलमानों से पृथक् निर्वाचन की माँग करायी और उन्होंने सबसे पहले पृथक् निर्वाचन की बात मानकर भारत में विभाजन की आधारशिला तैयार की।
अंग्रेजों के प्रश्रय से भारत में यह भावना फैलाई गयी कि मुस्लिम एक अलग कौम है और उसका एक अलग राष्ट्र होना चाहिए।
अंग्रेजों के प्रश्रय पर ही मुस्लिम लीग ने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद भारत में स्थान-स्थान पर साम्प्रदायिक दंगे कराये, जो ब्रिटेन, द्वितीय विश्व युद्ध के समय नाजी जर्मनी को परास्त कर सकता है, क्या भारत में उसकी सरकार साम्प्रदायिक दंगों का दमन नहीं कर सकती थी? लियोनार्ड मोजले ने ठीक ही कहा है, “लॉर्ड माउण्टबेटन ने चालाकी से विभाजन की कीमत पर भारत को स्वतन्त्रता दी।” वास्तव में भारत के विभाजन की रूपरेखा चर्चिल ने पहले ही बना ली थी। प्रसिद्ध पत्रकार दुर्गादास के अनुसार, “युद्ध के दौरान चर्चिल को यह निश्चय हो गया कि इस युद्ध की समाप्ति के बाद भारत को अपने अधीन नहीं रखा जा सकता। उसने उसी समय यह योजना बना ली थी कि यदि भारत को स्वतन्त्र करना ही पड़े तो उसमें से पाकिस्तान का टुकड़ा अपने लिए निकाल लिया जाये। जिन्ना ने ठीक ही तो कहा था कि “अंग्रेज यदि मुझे प्लेट पर रखकर पाकिस्तान दे रहे हैं तो मैं इतना मूर्ख नहीं हूँ कि उसे स्वीकार न करूं।”
2. मुस्लिम लीग की भूमिका
भारत में साम्प्रदायिकता और पृथकता का विष फैलाने का मुख्य कार्य मुस्लिम लीग ने किया। मुस्लिम लीग के नेताओं ने जब देखा कि वे कांग्रेसी नेताओं की तुलना में लोकप्रिय नहीं हो पा रहे हैं और न ही मुस्लिम समाज पूरी तरह उनके साथ है तो उन्होंने ‘इस्लाम खतरे में’ का नारा लगाना आरम्भ कर दिया तथा 1940 ई. में ‘दो कौमों के सिद्धान्त’ को प्रचारित करना आरम्भ कर दिया।
धार्मिक विद्वेष फैलाकर उन्होंने मुस्लिम जनता पर अपनी पकड़ मजबूत की। द्वितीय विश्व युद्ध के समय उन्होंने अंग्रेजों द्वारा प्रस्तुत प्रत्येक समझौते को ठुकराया। साथ ही युद्ध के बाद केन्द्र में बनी अन्तरिम सरकार को चलने ही नहीं दिया। इसके अतिरिक्त, मुस्लिम लीग ने सारे भारत में भीषण साम्प्रदायिक दंगे कराये। उस समय ऐसा प्रतीत होता था कि भारत में हिन्दू और मुसलमान मिलकर नहीं रह पायेंगे। मुस्लिम लीग की इसी जिद और दुराग्रह ने भारत के विभाजन में अत्यन्त उल्लेखनीय भूमिका निभाई।
3. पाकिस्तान की मांग
1930 ई. में मुस्लिम लीग के अधिवेशन में डॉ. मोहम्मद इकबाल ने दो राष्ट्रों का सिद्धांत का प्रतिपादन किया था। उन्होंने कहा कि हिंदू और मुसलमान दो अलग कौमें हैं, इसलिए मुसलमानों को उनका अलग पाकिस्तान मिलना चाहिए। 1940 में कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में इस मांग को जिन्ना ने खुलेआम अधिकृत रूप में प्रस्तुत किया था।
4. कांग्रेस की करण की नीति
भारत के विभाजन का आंशिक कारण कांग्रेस द्वारा अपनायी गयी तुष्टिकरण की नीति भी है। कांग्रेस द्वारा बार-बार मुस्लिम लीग को तुष्ट करने के लिए गलत कदम उठाये गये। 1916 ई. में कांग्रेस ने मुस्लिम लीग के साथ लखनऊ समझौता किया तथा पृथक् निर्वाचन की मान्यता प्रदान की। 1920 ई. में कांग्रेस ने खिलाफत आन्दोलन को ही असहयोग आन्दोलन का एक भाग बना लिया। यह एक गलत कार्य था। होना यह चाहिए था कि स्वतन्त्रता के नाम पर मुसलमानों को असहयोग आन्दोलन में सम्मिलित किया जाता। इतना ही नहीं, मोहम्मद अली जिन्ना को प्रसन्न करने के लिए सबसे पहले गांधीजी ने ही उसे ‘कायदे आजम’ की उपाधि दी। कांग्रेस जितना अधिक मुस्लिम लीग की तुष्टि करती, उतने ही लीग के हौसले बढ़ते गये। इससे मुस्लिम लीग की पृथकतावादी नीति को प्रोत्साहन मिला।
5. नेताओं में थकावट और पद का मोह
स्वतन्त्रता संग्राम में भारत के अधिकांश नेताओं ने अपना सर्वस्व होम कर दिया था। भारत छोड़ो आन्दोलन के समय जब उन्हें जेल जाना पड़ा तो उन्हें तीन वर्ष बाद छोड़ा गया था। वे वृद्ध हो गये और थक गये थे।
डॉ. लोहिया के अनुसार, “नेताओं की थकान तथा बड़े पदों के मोह ने भी उन्हें विभाजन की कीमत पर स्वतन्त्रता स्वीकार करने के लिए प्रेरित किया।” स्वयं स्व. जवाहरलाल नेहरू ने कहा, “सत्य तो यह है कि हम थक गये थे और फिर हमारी उस भी बढ़ रही थी। इसमें बहुत कम लोग दोबारा जेल जाने को तैयार थे।” स्वयं गांधीजी ने कहा था कि, “कई नेता ब्रिटेन के साथ समझौता चाहते थे और इससे भी ज्यादा सत्ता चाहते थे।”
6. हिन्दू समाज की संकीर्णता
भारत के विभाजन का एक कारण हिन्दू समाज की संकीर्णता भी है। यों तो भारत का हिन्दू समाज बहुत उदार रहा है। यहाँ बाहर से जो भी जातियाँ और सभ्यताएँ आयीं, वे भारत में घुल-मिल गयीं, परन्तु इस्लाम को पूरी तरह आत्मसात् करने में हिन्दू समाज सफल नहीं हुआ। उसकी संकीर्णता की प्रतिक्रियास्वरूप भी भारत में मुस्लिम कट्टरता में वृद्धि हुई। स्वयं जिन्ना के दादा हिन्दू थे, परन्तु एक खोजा पीर के सम्पर्क में आने के कारण मलेच्छों जैसा व्यवहार करने से भी उनकी कटुता बढ़ी।
7. तात्कालिक कारण
भारत का विभाजन स्वीकार करने के कुछ तात्कालिक कारण थे। कांग्रेस के नेताओं को यह भी लगता था कि अभी तो अंग्रेज स्वतन्त्रता दे भी रहा है, परन्तु यह स्वतन्त्रता भी हाथ से न निकल जाये। यह भी माना गया कि अभी तो विभाजन सहित स्वतन्त्रता स्वीकार कर ली जाये, अंग्रेजों के जाने के बाद भी विभाजन की समस्या के समाधान का प्रयास किया जा सकता है।
इन सभी कारणों से भारत का विभाजन हुआ, परन्तु विभाजन के सभी कारणों में सबसे प्रमुख ब्रिटेन के शासन की भारत को दो टुकड़ों में बाँटने की नीति थी।