राष्ट्रपति की शक्तियां एवं कार्य :
भारतीय राष्ट्रपति को संविधान द्वारा अनेक अधिकार प्रदान किये गये हैं। वास्तव में, संघ की समस्त कार्यपालिका की शक्तियाँ वैधानिक रूप से उसके ही हाथ में रहती हैं। भारत के राष्ट्रपति को विभिन्न प्रकार के महत्वपूर्ण कार्य करने होते हैं और इस कारण भारत के राष्ट्रपति को अनेक प्रकार की शक्तियाँ प्रदान की गई हैं। अध्ययन की सुविधा के लिए राष्ट्रपति की समस्त शक्तियों को प्राथमिक रूप से दो भागों में बांटा जा सकता है –
- सामान्यकालीन शक्तियां,
- संकटकालीन शक्तियां।
इनका अध्ययन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है-
1. कार्यपालिका सम्बन्धी अधिकार
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 53 के अनुसार, “संघ की कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति में निहित होगी तथा वह इसका प्रयोग संविधान के अनुसार स्वयं अथवा अपने अधीनस्थ पदाधिकारियों द्वारा करेगा।” इस प्रकार शासन का समस्त कार्य राष्ट्रपति के नाम से होगा। संक्षेप में, राष्ट्रपति के कार्यपालिका सम्बन्धी अधिकारों की व्याख्या निम्न प्रकार की जा सकती है-
i. शासन संचालन सम्बन्धी अधिकार
राष्ट्रपति को शासन संचालन सम्बन्धी महत्वपूर्ण अधिकार प्राप्त हैं। संविधान के अनुच्छेद 77(3) में यह व्यवस्था है कि “भारत में सरकार के कार्य के लिए सुचारु संचालन के लिए राष्ट्रपति नियमों का निर्माण करेगा।”
ii. पदाधिकारियों की नियुक्ति का अधिकार
भारत के सभी महत्वपूर्ण एवं उच्च पदाधिकारियों; जैसे-भारत के एटार्नी जनरल, कम्पट्रोलर व आडीटर जनरल, सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों, उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों, लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष तथा सदस्यों इत्यादि की नियुक्ति राष्ट्रपति ही करता है। वह लोकसभा के बहुमत दल के नेता को प्रधानमन्त्री नियुक्त करता है। यदि किसी दल का स्पष्ट बहुमत नहीं होता है तो ऐसी स्थिति में वह स्व-विवेक से किसी भी ऐसे व्यक्ति को प्रधानमन्त्री नियुक्त कर सकता है, जो स्पष्ट बहुमत प्राप्त करने में सफल हो सके। प्रधानमन्त्री के परामर्श से वह मन्त्रिपरिषद् के अन्य सदस्यों की नियुक्ति भी करता है।
iii. राज्यों के शासन पर नियन्त्रण
भारतीय राष्ट्रपति राज्यों के शासन की भी देखभाल करता है। वह देखता है कि उनका शासन संविधान के अनुसार संचालित हो रहा है अथवा नहीं। यदि किसी राज्य में शासन तन्त्र असफल हो जाये तो राष्ट्रपति वहाँ आपातकाल की घोषणा करके वहाँ का शासन अपने नियन्त्रण में ले सकता है।
iv. अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र सम्बन्धी अधिकार
विदेशों के साथ विभिन्न सन्धियाँ एवं समझौते करना एवं विदेशी राजदूतों के प्रमाण-पत्र स्वीकार करना उसके अधिकार क्षेत्र के अन्तर्गत हो जाते हैं। वह विदेशों में अपने राजदूत भी भेजता है।
v. सैनिक अधिकार
संविधान के अनुसार राष्ट्रपति तीनों सेनाओं- जल, थल एवं वायु सेना का प्रधान सेनापति है, लेकिन वह सेना सम्बन्धी अधिकारों का प्रयोग स्वेच्छापूर्वक नहीं कर सकता।
vi. आयोग एवं परिषदों की नियुक्ति का अधिकार
राष्ट्रपति कुछ प्रशासनिक आयोगों; जैसे- वित्त आयोग, राजभाषा आयोग एवं निर्वाचन आयोग, पिछड़े वर्गों की दशा सुधारने सम्बन्धी आयोग तथा अन्तर्राज्यीय परिषद् इत्यादि की नियुक्ति करता है।
vii. लोकसभा तथा राज्यसभा में सदस्यों को मनोनीत करने का अधिकार
राष्ट्रपति लोकसभा में आंग्ल भारतीय समुदाय के दो सदस्यों को भी मनोनीत कर सकता है तथा राज्यसभा में ऐसे 12 सदस्यों को मनोनीत कर सकता है, जिन्होंने कला, विज्ञान-सेवा तथा साहित्य में विशेष योग्यता प्राप्त की हो।
2. विधायिनी अधिकार
राष्ट्रपति भारतीय संसद का एक अभिन्न अंग है। संविधान के अनुच्छेद 79 के अनुसार, “संघ के लिए एक संसद होगी, जो राष्ट्रपति तथा दोनों सदनों- राज्यसभा और लोकसभा से मिलकर बनेगी।”
भारतीय राष्ट्रपति के व्यवस्थापन में निम्नलिखित अधिकार हैं-
i. संसद के कुछ सदस्यों को मनोनीत करने का अधिकार
राष्ट्रपति को राज्यसभा के लिए 12 सदस्य मनोनीत करने का अधिकार है। इसके अतिरिक्त वह लोकसभा में दो आंग्ल भारतीयों को भी मनोनीत कर सकता है।
ii. अध्यादेश जारी करने का अधिकार
संसद का अधिवेशन न होने की स्थिति में राष्ट्रपति को अध्यादेश जारी करने का अधिकार प्राप्त होता है। इस प्रकार के अध्यादेश संसद के कानूनों के शासन ही प्रभावशाली होते हैं। संसद का अधिवेशन शुरु होने के 6 सप्ताह तक इस प्रकार के अध्यादेश जारी रह सकते हैं।
iii. अधिवेशन सम्बन्धी अधिकार
संसद के दोनों सदनों की बैठक बुलाने एवं बैठकों का समय निश्चित करने का कार्य भी राष्ट्रपति के द्वारा ही किया जाता है। वह संसद के सत्रों को स्थगित भी कर सकता है। इसके अतिरिक्त, वह प्रधानमन्त्री के परामर्श पर लोकसभा को भंग भी कर सकता है। आवश्यकता पड़ने पर वह बैठक को समय से पहले भी बुला सकता है। इसके अतिरिक्त, वह किसी भी सदन में भाषण दे सकता है। वर्ष के प्रथम अधिवेशन का प्रारम्भ उसके ही भाषण से होता है।
iv. विधेयकों का प्रस्तुतीकरण व उनकी स्वीकृति
वित्त सम्बन्धी विधेयक राष्ट्रपति की पूर्व स्वीकृति से ही लोकसभा में प्रस्तुत किये जाते हैं। संसद द्वारा पारित कोई भी विधेयक राष्ट्रपति की स्वीकृति के पश्चात् ही कानून का स्वरूप धारण करता है। राष्ट्रपति संसद द्वारा पारित विधेयक को पुनर्विचार के लिए संसद को वापस भेज सकता है तथा अस्वीकार भी कर सकता है।
v. राज्यों के व्यवस्थापन पर नियन्त्रण
कुछ सीमा तक राष्ट्रपति का नियन्त्रण राज्यों के व्यवस्थापन पर भी होता है।
3. वित्त सम्बन्धी अधिकार
भारत के संविधान ने राष्ट्रपति को निम्नलिखित वित्तीय अधिकार प्रदान किये गये हैं-
i. बजट प्रस्तुत कराने का अधिकार
देश की वर्षभर की आय तथा व्यय ब्यौरे को बजट कहा जाता है। इस बजट में आगामी वर्ष के लिए देश की आय एवं व्यय का विवरण होता है। इस बजट के समक्ष प्रस्तुत करवाने का कार्य राष्ट्रपति ही करता है।
ii. वित्त विधेयक प्रस्तुत करने का अधिकार
वित्त सम्बन्धी कोई भी विधेयक राष्ट्रपति की पूर्व स्वीकृति के बिना संसद में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता है।
iii. आय के वितरण का अधिकार
संघ तथा राज्यों के मध्य आय के वितरण का अधिकार भी राष्ट्रपति को ही होता है।
iv. अनुदानों एवं करों पर सिफारिश
राष्ट्रपति नये करों को लगाने की सिफारिश करता है तथा अनुदान की माँग से सम्बन्धित कोई भी प्रस्ताव राष्ट्रपति की सिफारिश के बिना संसद में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता है।
v. आकस्मिक निधि पर अधिकार
राष्ट्रपति सरकार को आवश्यकता पड़ने पर, संसद से पूर्व अनुमति प्राप्त किये बिना आकस्मिक निधि से धनराशि दे सकता है।
vi. वित्त आयोग की नियुक्ति
संविधान के अनुच्छेद 280 के अनुसार राष्ट्रपति प्रति पाँच वर्ष बाद एक वित्त आयोग की नियुक्ति करता है। इस आयोग के द्वारा यह सुनिश्चित किया जाता है कि संघ और राज्यों के मध्य करों से प्राप्त आय को किस अनुपात में विभाजित किया जाये।
4. न्याय सम्बन्धी अधिकार
भारत में न्यायपालिका को कार्यपालिका से पूर्ण रूप से पृथक् रखने का प्रयत्न किया गया है। इसी कारण राष्ट्रपति को न्याय प्रबन्ध में प्रत्यक्ष रूप से हस्तक्षेप का अधिकार प्राप्त नहीं है, परन्तु फिर भी उसे न्यायिक क्षेत्र में कुछ अधिकार प्राप्त हैं जिनका संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार है-
i. क्षमादान सम्बन्धी अधिकार
राष्ट्रपति को किसी अपराधी के अपराध को कम करने, अपराधी को दण्ड-मुक्त करने, दण्ड को स्थगित करने अथवा दण्ड को किसी अन्य दण्ड में परिवर्तित करने का अधिकार होता है, शर्त यह है कि- (क) वह दण्ड किसी सैनिक न्यायालय ने दिया हो, (ख) अपराधी को संसद के कानूनों का उल्लंघन करने के फलस्वरुप दण्ड मिला हो या, (ग) अपराधी को मृत्युदण्ड मिला हो।
ii. परामर्श करने का अधिकार
संविधान के अनुच्छेद 143 के अनुसार भारतीय राष्ट्रपति किसी समस्या अथवा कानून पर उच्चतम न्यायालय से परामर्श लेने का अधिकारी है, परन्तु उस परामर्श को मानना अथवा न मानना राष्ट्रपति की इच्छा पर निर्भर है।
iii. न्यायालय सम्बन्धी अधिकार
क. राष्ट्रपति उच्चतम एवं उच्च न्यायालयों के सभी न्यायाधीशों की नियुक्ति करता है।
ख. वह उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की संख्या निश्चित करता है।
ग. उच्चतम न्यायालय अपनी कार्य-प्रणाली सम्बन्धी जो नियम बनाता है, उन पर राष्ट्रपति की स्वीकृति आवश्यक है।
घ. संसद के प्रस्ताव पर राष्ट्रपति को किसी न्यायाधीश को पदच्युत करने का अधिकार भी प्राप्त है, लेकिन केवल उसी दशा में, जब उसके विरुद्ध संसद में आरोप सिद्ध हो जाये।
ङ. राष्ट्रपति की स्वीकृति से उच्चतम न्यायालय की बैठक दिल्ली के अलावा अन्यत्र भी की जा सकती है।
5. राष्ट्रपति का विशेषाधिकार
राष्ट्रपति को कार्यपालिका का प्रधान होने के नाते कुछ विशेष अधिकार भी दिये गये हैं। उसके कार्यकाल में उसके ऊपर कोई दण्डात्मक कार्यवाही नहीं की जा सकती है। दीवानी मामले में भी उसको दो माह की पूर्व सूचना देना आवश्यक है।
राष्ट्रपति की स्थिति एवं महत्व :
भारतीय राष्ट्रपति की स्थिति इंग्लैण्ड के राजा अथवा रानी के समान है। वह एक वैधानिक प्रधान मात्र है। डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने राष्ट्रपति की स्थिति का उल्लेख करते हुए कहा है कि “राष्ट्रपति राष्ट्र-प्रमुख है, कार्यपालिका का प्रमुख नहीं। वह राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करता है, उस पर शासन नहीं करता। वह सामान्यतया मन्त्रियों के परामर्श को मानने के लिए बाध्य होगा।”
राष्ट्रपति की स्थिति के सन्दर्भ में जवाहरलाल नेहरू ने भी कहा था कि “हमने अपने राष्ट्रपति को वास्तविक शक्ति नहीं दी है, अपितु हमने उसके पद को सत्ता एवं प्रतिष्ठा से विभूषित किया है।”
इस प्रकार राष्ट्रपति की वास्तविक स्थिति मात्र रबर स्टाम्प की तरह होती है, फिर उसका अधिकार क्षेत्र इतना व्यापक है कि उसका महत्व किसी भी तरह से कम नहीं माना जा सकता है। उस पर कुछ प्रतिबन्ध तो मात्र इस उद्देश्य से लगाये गये हैं, जिससे वह निरंकुश शासक का रूप धारण न कर ले। उसके बिना तो देश का शासन समुचित रूप से संचालित हो ही नहीं सकता, क्योंकि सभी महत्वपूर्ण लेखों एवं निर्णयों पर अन्तिम रूप से उसके हस्ताक्षर होने अनिवार्य होते हैं। इसलिए देश में उसका महत्वपूर्ण स्थान है। यदि हम उसको ‘स्वर्णिम शून्य‘ की संज्ञा दें, तो अनुपयुक्त न होगा। राष्ट्रपति के अधिकारों से सम्बन्धित संविधान के अनुच्छेद 74 में 42वें तथा 44वें संवैधानिक संशोधन के आधार पर महत्वपूर्ण संशोधन किये गये हैं। अब राष्ट्रपति की स्थिति यह है कि उसे मन्त्रिपरिषद् के परामर्श के अनुसार कार्य करना होगा। वह अधिक से अधिक मन्त्रिपरिषद् से पुनर्विचार करने के लिए आग्रह कर सकता है लेकिन मन्त्रिपरिषद् के पुनर्विचार को मानने के लिए बाध्य है।