“भारतीय संसद अधिक से अधिक शक्तियाँ प्राप्त करती जा रही हैं तथा चौबीसवें संशोधन विधेयक के पारित होने से न्यायपालिका पर इसकी सर्वोच्चता प्रतिष्ठित हो गयी है। भारतीय संसद को ब्रिटिश संसद की भाँति सर्वोच्च अधिकार प्राप्त नहीं है तथापि यह विश्व की सर्वाधिक शक्तिशाली संसदों में से एक है।” – डॉ. टी. वी. राव
“भारत में संसदात्मक सरकार होने से संसद को सर्वोच्चता प्राप्त है और वह देश हित में सभी कार्य करने के लिए सक्षम है।” – डॉ. बी.आर. अम्बेडकर
भारतीय संघ की विधि निर्माण करने वाली संस्था ही संसद कहलाती है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 79 द्वारा व्यवस्था की गयी है कि “भारतीय संघ के लिए एक संसद होगी, जो राष्ट्रपति तथा दोनों सदनों से मिलकर बनेगी जिनके नाम क्रमशः लोकसभा और राज्यसभा होंगे।” इस प्रकार भारतीय संविधान द्वारा ब्रिटिश सरकार की भाँति राज्य के वैधानिक प्रधान को संसद का अंग माना गया है। सन् 1919 तथा 1935 के भारतीय शासन अधिनियमों के अन्तर्गत संसद प्रभुत्वहीन द्विसदानात्मक व्यवस्थापिका सभा है। यह भारतीय जनता के प्रभुत्वसम्पन्न होने का प्रतीक है। जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि इसके सदस्य होते हैं। इन सदस्यों के माध्यम से जनता देश के शासन में भाग लेती है। सार्वजनिक हित के लिए विधि निर्माण करना तथा कार्यपालिका को नियन्त्रित करके जनता की सेवा में लगाये रखना संसद का ही उत्तरदायित्व है। इस प्रकार संसद लोकतन्त्र की अभिव्यक्ति होने के साथ-साथ सरकार को जनता की तथा जनता के लिए बनाये रखती है। भारत में ब्रिटेन की भाँति संसदीय लोकतन्त्र को अपनाया गया है।
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के शब्दों में, “हमारी लोकतान्त्रिक शासन व्यवस्था का केन्द्र बिन्दु राष्ट्र की संसद है।”
संसद का संगठन (Organisation of Parliament) :
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 79 में कहा गया है कि, “संघ के लिए एक संसद होगी, जो राष्ट्रपति और संसद दोनों सदनों से मिलकर बनेगी, जिसके नाम क्रमशः लोकसभा और राज्यसभा होंगे।” राष्ट्रपति संसद का अभिन्न अंग है। यद्यपि राष्ट्रपति संसद के किसी भी सदन का सदस्य नहीं है फिर भी उसे संसद अधिवेशन बुलाने, स्थगित करने तथा लोकसभा भंग करने का अधिकार है। इस प्रकार विश्व के अन्य संघीय शासन अंगों से मिलकर संसद होता है, वे निम्नलिखित हैं-
1. राष्ट्रपति
यद्यपि राष्ट्रपति कार्यपालिका का वैधानिक प्रधान है लेकिन संसद द्वारा कोई विधेयक तब तक कानून का रूप नहीं ले सकता, जब तक कि राष्ट्रपति द्वारा उस पर हस्ताक्षर न कर दिये जायें। इस तरह विधि निर्माण के क्षेत्र में राष्ट्रपति की महत्वपूर्ण भूमिका है।
2. लोकसभा
लोकसभा संसद का प्रथम एवं निम्न सदन है, जिसके सदस्यों का निर्वाचन प्रत्यक्ष निर्वाचन प्रणाली के अनुसार (2 आंग्ल भारतीय वर्ग के मनोनीत सदस्यों को छोड़कर) जनता द्वारा किया जाता है।
3. राज्यसभा
राज्यसभा संसद का उच्च सदन एवं द्वितीय सदन है। राज्यसभा के सदस्यों का निर्वाचन (12 मनोनीत सदस्यों को छोड़कर) एकल संक्रमणीय आनुपातिक प्रतिनिधित्व के आधार पर अप्रत्यक्ष निर्वाचन प्रणाली द्वारा होता है।
इस प्रकार राष्ट्रपति, लोकसभा तथा राज्यसभा तीनों का संयुक्त नाम संसद है अतः लोकसभा और राज्यसभा का संगठन व संगठन की शक्तियों का विवेचन निम्नानुसार है –
भारतीय संसद के कार्य एवं शक्तियां :
संविधान द्वारा भारतीय संसद को विस्तृत शक्तियाँ प्रदान की गई हैं जिनका उपयोग मुख्यतः विधि निर्माण एवं कार्यपालिका पर नियन्त्रण के क्षेत्र में प्रमुख रूप से किया जाता है। संसद की शक्तियाँ एवं कार्यों का वर्णन निम्नानुसार है-
1. व्यवस्थापन सम्बन्धी शक्तियाँ
संसद का सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य विधि निर्माण करना है। उसे संघ सूची तथा समवर्ती सूची के सभी विषयों पर कानून बनाने की शक्ति प्राप्त है। यहाँ उल्लेखनीय है कि सम्पूर्ण संघीय क्षेत्र के लिये संसद ही कानून बनाती है। संसद को आपातकाल में राज्यसूची के विषयों पर भी कानून बनाने का अधिकार है। इसके अतिरिक्त यदि राज्यसभा दो-तिहाई बहुमत से प्रस्ताव पारित करके राष्ट्रीय हित में राज्य सूची के किसी विषय पर कानून बनाने का संसद से अनुरोध करे तो वह कानून बना सकती है।
2. कार्यपालिका सम्बन्धी शक्तियाँ
भारत में संघात्मक शासन प्रणाली होने के कारण मन्त्रिमण्डल संसद के प्रति उत्तरदायी है। संविधान के अनुच्छेद 75(3) में यह निहित है कि मन्त्रिमण्डल केवल उसी समय तक सत्तारूढ़ रह सकता है जब तक कि उसे लोकसभा का विश्वास प्राप्त हो। संसद को कार्यपालिका पर नियन्त्रण रखने के लिये अनेक संवैधानिक उपाय प्राप्त हैं। ‘अविश्वास प्रस्ताव’, ‘काम रोको प्रस्ताव’ एवं ‘निन्दा प्रस्ताव’ के द्वारा संसद सदस्य सरकार पर नियन्त्रण बनाये रखते हैं, इसके अतिरिक्त प्रश्नोत्तरकाल में संसद के सदस्य सरकार पर नीतिगत प्रश्न एवं पूरक प्रश्न पूछकर दबाव बनाये रखते हैं।
3. वित्तीय शक्तियाँ
अनुच्छेद 109 के प्रावधानों के अन्तर्गत संसद को संघीय वित्त पर पूर्ण नियन्त्रण प्राप्त है। ‘बिना प्रतिनिधित्व के कर नहीं’ सिद्धान्त के अनुसार बिना संसद की स्वीकृति के सरकार कोई कर नहीं लगा सकती और न ही एकत्रित कर सकती है। संसद ही प्राक्कलन और लोक-लेखा समिति को नियुक्त करती है और नियन्त्रक व महालेखा परीक्षक के प्रतिवेदन पर विचार कर उचित कार्यवाही करती है। यह भी प्रावधान रखा गया है कि राष्ट्रीय वित्त में से कोई भी खर्च बिना संसद की स्वीकृति के नहीं किया जा सकता है।
4. राज्यों से सम्बन्धित शक्तियाँ
संसद को भारतीय नागरिकता के निर्धारण का अधिकार दिया गया है। संघात्मक शासन प्रणाली होते हुए भी नागरिकता का अधिकार राज्यों के पास नहीं है। इसके अतिरिक्त संविधान ने संसद को यह अधिकार दिया है कि राज्यों की इच्छा के बिना भी वह उनकी सीमाओं तथा नामों में परिवर्तन कर सकती है। संसद को यह शक्ति भी प्रदत्त है कि वह नवीन राज्य का निर्माण कर सकती है तथा उचित समझे तो किसी राज्य का अस्तित्व भी समाप्त कर सकती है।
5. संविधान संशोधन सम्बन्धी शक्तियाँ
संविधान ने संसद को यह अधिकार प्रदान किया है कि वह संविधान संशोधन कर सकती है। यदि संसद यह आवश्यक समझे कि संशोधन प्रक्रिया में भी कोई संशोधन आवश्यक है तो उसे भी बदलने का उसे पूर्ण अधिकार है।
6. अन्य शक्तियाँ एवं कार्य
संविधान ने संसद को अधिकृत किया है कि वह दोनों सदनों की निर्धारित प्रक्रिया के आधार पर राष्ट्रपति पर महाभियोग लगा सकती है। इसके अतिरिक्त उसे निर्धारित प्रक्रियानुसार उच्चतम एवं उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों पर महाभियोग लगाने का अधिकार है। संविधान के अनुच्छेद 54 के अनुसार संसद को निर्वाचन सम्बन्धी भी अधिकार है। राष्ट्रपति के निर्वाचन में संसद के दोनों सदन निर्वाचन मंडल के अंग रहते हैं। अनुच्छेद 66 के अनुसार संसद सदस्य ही उपराष्ट्रपति का चुनाव करते हैं।
उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि संविधान ने भारतीय संसद को विस्तृत शक्तियाँ एवं अधिकार प्रदान किए हैं।