सरला मुद्गल बनाम भारत संघ :
सरला मुद्गल बनाम भारत संघ वाद सामुदायिक कल्याण से जुड़ा बाद है, भारत के संविधान के निदेशक तत्वों में नागरिकों के लिए एक ‘समान सिविल संहिता’ को भी उल्लिखित किया गया है। संविधान की व्यवस्थानुसार – “राज्य, भारत के समस्त राज्य क्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान सिविल संहिता प्राप्त कराने का प्रयास करेगा।”
समान सिविल संहिता के सम्बन्ध में उक्त वाद, “सरला मुद्गल बनाम भारत संघ” नवीनतम वाद है जिसके द्वारा सर्वोच्च न्यायालय ने तत्कालीन संघ सरकार को निर्देशित किया कि वह संविधान के अनुच्छेद 44 के प्रकाश में जिसके द्वारा राज्य को नागरिकों के लिए समान सिविल संहिता प्राप्त कराने का दायित्व दिया गया है, देखने का प्रयास करे, न्यायालय ने यह भी निर्देशित किया कि नागरिकों के लिए इस समान सिविल संहिता की दिशा में उठाए गये कदमों से, शपथपत्र के साथ न्यायालय को भी अवगत कराएं। इस वाद में न्यायालय का स्पष्ट मत था कि – शोषितों का संरक्षण और राष्ट्र एकता और अखण्डता की अभिवृद्धि दोनों आवश्यक है।
नीति निर्देशक तत्वों को संवैधानिक लक्ष्य मान कर प्राथमिकता में लाने का यह महत्वपूर्ण वाद था। मूलतः, न्यायालय द्वारा ‘सरला मुद्गल‘ के इस वाद में अनुच्छेद 44 के सन्दर्भ में नया दृष्टिकोण अपनाया गया।
‘समान नागरिक संहिता‘ का प्रश्न एवं न्यायालय का यह दृष्टिकोण उन वादों में उपस्थिति हुआ, जिनके अन्तर्गत विवादित प्रश्न थे, कि हिन्दू पति अपने पूर्व विवाह विच्छेद किये बगैर इस्लाम धर्म स्वीकार करता है एवं दूसरा विवाह करता है तो क्या यह वैध है? न्यायालय ने इस वाद में निर्णीत किया कि हिन्दू विवाह, भले ही एक पक्ष द्वारा दूसरा धर्म स्वीकार कर लिया गया हो अस्तित्व में बना रहता है। इसकी स्वतः समाप्ति नहीं होती, ये मात्र तलाक की विधिक प्रक्रिया से समाप्त हो सकता है। अतः हिन्दू द्वारा दूसरा विवाह अवैधानिक है और इस बहुविवाह के अपराध के लिये पति भारतीय दंड संहिता की धारा 494 के अन्तर्गत दंडनीय है।
समान सिविल संहिता के सन्दर्भ में सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष इस वाद के समय 4 याचिकाएं प्रस्तुत थी, जिनमें अनुच्छेद 32 के अन्तर्गत संवैधानिक उपचार अपेक्षित था।
प्रथम याचिका महिला कल्याण हेतु बनी एक रजिस्टर्ड सोसायटी द्वारा, लोकहित वाद के रूप में आयी। अन्य याचीकर्ता मीना माथुर का कथन था कि उसका विवाह 1978 में श्री जितेन्द्र माथुर से हुआ, जिनसे 3 बच्चे है। 1988 में उनके पति ने इस्लाम धर्म स्वीकार किया और धर्म परिवर्तन के बाद सुनीता उर्फ फातिमा के साथ दूसरा विवाह कर लिया।
दूसरी याचिका फातिमा द्वारा प्रस्तुत की गई, जिसका कथन था कि श्री माथुर ने पुनः हिन्दू धर्म स्वीकार कर लिया और अपनी पूर्व पत्नी के साथ रहने लगे हैं, उसका आरोप था कि वह अभी भी मुस्लिम हैं और उसका पति समुचित भरण-पोषण नहीं कर रहा है, और उसे किसी वैयक्तिक विधि (Personal Law) के अन्तर्गत संरक्षण भी नहीं है।
तीसरी याचिका श्रीमती गीता रानी की थी, जिनका विवाह 1988 में हिन्दू रीति से श्री प्रदीप कुमार के साथ हुआ था, किन्तु वह उसके साथ दुव्यवहार भी करता था, 1991 में वह किसी दीपा लड़की के साथ भाग गया और इस्लाम धर्म स्वीकार कर उसके साथ विवाह कर लिया।
इसी प्रकार के चौथे वाद में श्रीमती सुष्मिता घोष ने न्यायालय के समक्ष आरोप पत्र दिया, कि उनका विवाह हिन्दू रीति से श्री बी. सी. घोष के साथ हुआ था परन्तु कुछ दिनों बाद उनके पति ने उनके साथ न रहने की इच्छा रखी, तथा सहमति से विवाह विच्छेद किया और 1992 में इस्लाम धर्म स्वीकार कर विनीता गुप्ता से विवाह कर लिया।
इन सभी मामलों में, धर्म परिवर्तन की आड़ में दूसरा विवाह किया गया था, समस्या देश में सभी नागरिकों के लिए समान सिविल संहिता का न होना था जिसके क्रियान्वयन का दायित्व निदेशक तत्वों के अन्तर्गत राज्य का था। किन्तु ‘सरला मुद्गल वाद‘ में दिये गये निर्णय से इन सभी याचिकाओं की स्थिति स्पष्ट हो जाती है जबकि न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि – “इस्लाम धर्म स्वीकार कर लेने के बाद भी यदि कोई हिन्दू व्यक्ति पहली शादी को तोड़े बिना दूसरा विवाह करता है तो वह अवैध होगा एवं भारतीय दंड संहिता की धारा 494 के तहत दोषी भी माना जाएगा।”
सरल रूप में, हिन्दू वैयक्तिक विधि के अनुसार पति या पत्नी किसी भी एक द्वारा इस्लाम धर्म स्वीकार कर लेने पर भी हिन्दू धर्म अस्तित्व में रहता है। हिन्दू विवाह का स्वतः विच्छेद नही होता अर्थात हिन्दू विवाह का विघटन या समाप्ति हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 13 के अन्तर्गत विच्छेद की डिक्री के द्वारा ही हो सकता है।
इस तरह के धार्मिक परिवर्तन पर दिये गए आदेशों की समीक्षा हेतु विभिन्न लोगों और ‘जमाते उलेमा हिन्द’ द्वारा दाखिल याचिकाओं पर विचार करने से न्यायालय ने इंकार कर दिया। न्यायालय का इन वादों के उत्पन्न होने पर समान सिविल संहिता के विषय में कहना स्वाभाविक था। न्यायालय ने उक्त वाद पर अपना मत रखते हुए कहा कि –
“अनुच्छेद 44 इस धारणा पर आधारित है कि सभ्य समाज में, धर्म और वैयक्तिक विधि में कोई सम्बन्ध नहीं होता, समान सिविल संहिता बनाने से किसी समुदाय के सदस्यों के अनु० 25, 26 तथा 27 के अधीन प्रदत्त मौलिक अधिकारों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। विवाह, उत्तराधिकार और इसी भांति सामाजिक प्रकृति की स्थितियां धार्मिक स्वतन्त्रता से बाहर है, उन्हें विधि द्वारा नियमित किया जा सकता है।”
बहुविवाह की प्रथा लोक आचरण के विरूद्ध है जिस प्रकार ‘मानव बलि’ या ‘सती प्रथा’ को लोकहित में राज्य विनिषिद्ध करता है उसी प्रकार इसे भी विनियमित किया जा सकता था।”
न्यायालय ने इस वाद में स्पष्टतः उल्लेख किया कि इस्लामी देशों यथा सीरिया, ट्यूनीशिया, मोरक्को, ईरान आदि ने भी अपने व्यक्तिगत कानूनों (Personal law) का संहिताकरण किया एवं दुरूपयोग रोका है।
न्यायालय के इस मत/आदेश में यह भावना परिलक्षित होती है कि भारतीय समाज में समान सिविल संहिता का अभाव भीषण समस्या है जिसका निदान किया जा सकता है। परन्तु न्यायालय ने एक अन्य वाद की अपील में समान सिविल संहिता के विषय में स्पष्ट कर दिया कि ये निर्देश इतरोक्ति थे, आदेश नहीं अर्थात मात्र Obiter dicta हैं। और ये सरकार पर तत्काल कोई लागू करने की कानूनी बाध्यता आरोपित नहीं करते हैं।
इस तरह इस वाद में भले ही समान सिविल संहिता पर न्यायालय का मत आदेश के रूप में न आकर इतरोक्ति रूप में आया, किन्तु निश्चित रूप से निदेशक तत्वों में निहित सामुदायिक कल्याण सम्बन्धीसंवैधानिक लक्ष्य को संबल मिला।