चन्द्रभवन बोर्डिंग एण्ड लॉजिंग बंगलौर बनाम मैसूर राज्य और अन्य :
भारत के न्यायिक इतिहास में चन्द्रभवन बोडिंग एण्ड लॉजिंग वाद से न्यायिक दृष्टिकोण में विशिष्टता के साथ परिवर्तन परिलक्षित होता है, न्यायालय यद्यपि इस वाद में भी विशुद्ध रूप में विधिक और संवैधानिक ही रहा, परन्तु भाग-4 के प्रति उदारवादी व्याख्या प्रारम्भ हुई। चन्द्रभवन बोर्डिगं एण्ड लॉजिंग वाद बंगलौर बनाम मैसूर राज्य भी भाग-3 में उल्लिखित मौलिक अधिकारों एवं भाग-4 में निहित सिद्धान्तों को एक दूसरे का पूरक मानने से जुड़ा है। पृथक भाग होने बाद भी उनके बीच किसी प्रकार का संघर्ष नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय के प्रारम्भिक निर्णयों में जहां मौलिक अधिकारों को प्रमुखता एवं वरीयता देने की प्रधानता थी वहीं इस वाद में मूलभूत अन्तर स्थापित हुआ।
न्यायालय के दृष्टिकोण में – “भाग-3 एवं भाग-4 के उपबन्धों के बीच कोई विरोध अथवा संघर्ष नहीं है। वे एक दूसरे के पूरक हैं…”
निदेशक सिद्धान्तों या मौलिक अधिकारों के निर्वचन में न्यायालय का दृष्टिकोण- विशुद्ध रूप में संवैधानिक एवं विधिक है, न्यायालय यद्यपि निदेशक सिद्धान्तों को मौलिक अधिकारों की अपेक्षा श्रेष्ठ नहीं मानते, कारण कि, अनु० 37 निदेशक सिद्धान्तों को न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय नहीं रखता, इस अप्रवर्तनीय चरित्र होने से पूरे भाग में निहित उद्देश्यों की स्थिति भिन्न हो जाती है। फिर भी न्यायालय सरकार को भाग-4 में निहित निदेशक सिद्धान्तों में विहित दायित्वों को संवैधानिक एवं विधिक रूप में शासन के आधारभूत सिद्धान्त बनाकर प्रभावी बनाने के लिए इंगित करता है।
‘चन्द्रभवन बोर्डिंग एवं लॉजिंग वाद‘ में न्यायिक दृष्टिकोण में, अधिकारों की पवित्रता स्वीकार करते हुए सामाजिक लक्ष्यों के अनुरूप निदेशक सिद्धान्तों को भी महत्व दिया गया। न्यायालय का स्पष्टतः मानना था कि अधिकारों से बगैर छेड़छाड़ किए, निदेशक सिद्धान्तों में विहित उपबन्धों के प्रति भी शासन का दायित्व है।… यह सोचना मिथ्या धारणा पर आधारित है कि संविधान में अधिकारों की व्यवस्था है, कर्तव्यों की नहीं।
पुनश्च, भाग-3 में एवं भाग-4 के उपबन्ध एक दूसरे के पूरक है और दोनों में एकरूपता आवश्यक है। न्यायाधीश हेगड़े के शब्दों में – “भाग-3 में उल्लिखित नागरिकों के अधिकार आधारभूत हैं, एवं भाग-4 के निदेशक सिद्धान्त देश के शासन में मूलभूत है। भाग-4 के उपबन्ध विधान मण्डल और सरकार पर नागरिकों के लिए कुछ कर्तव्य आरोपित करते हैं ये उपबन्ध जानबूझ कर नम्य है…. संविधान का प्रदेश एक ऐसे राज्य की स्थापना करना है कि जिसमें हमारे राष्ट्रीय जीवन की समस्त संस्थाओं को सामाजिक, आर्थिक न्याय अनुप्राणित करेगा….। नागरिकों के निम्नतम वर्गों की यदि न्यूनतम आवश्यकताएं पूरी नहीं की जाती हैं, तो संविधान में दी आशाएं और आकांक्षाएं झूठी सिद्ध होगीं। लोक कल्याणकारी राज्य का आदर्श एवं संविधानजन्य की आकांक्षाएं तब तक पूरी नहीं होगी जब तक गरीब से गरीब व्यक्ति की आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं होती।”
इसी वाद के पश्चात् ‘केशवानन्द भारती वाद‘ में उन संदेहों को दूर किया गया, जब न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि – “जो देश के शासन के लिए आधारभूत हैं किसी भी रूप में व्यक्ति के आधारभूत अधिकारों की अपेक्षा कम महत्वपूर्ण नहीं है।”
न्यायिक दृष्टिकोण के इतिहास में, सर्वोच्च न्यायालय पूर्व में दिये गये निर्णयों से नवीन प्रवृत्ति के साथ परिलक्षित होता है। गरीबों के लिए सामाजिक और आर्थिक न्याय की परिकल्पना, इस वाद के पश्चात् मुखरित हुयी, एवं मौलिक अधिकारों की महत्ता के साथ-साथ निदेशक सिद्धान्तों का भी महत्व भी बढ़ा।