राज्य के कार्य एवं औचित्य :
यह सिद्ध हो चुका है कि राज्य और मानव का अटूट रिश्ता है। दोनों का एक दूसरे के बिना कोई अस्तित्व नहीं है। सृष्टि निर्माण के प्रारम्भिक दौर में राज्य नामक संस्था का अभाव था, लेकिन जैसे-जैसे मानव सभ्यता व संस्कृति का विकास होता गया है वैसे-वैसे उसके जीवन में जटिलता एवं चुनौतियाँ आने लगी। वह उनसे मुक्ति की आशा में राज्य की उत्पत्ति करता है। इस तरह राज्य का प्रमुख कार्य या दायित्व या औचित्य यह है कि वह लोगों के कष्टों का निवारण करने उनके जीवन व संपत्ति की सुरक्षा प्रदान करने, सामाजिक व्यवस्था के सफल संचालन हेतु नीतिगत निर्णय ले, उन फैसलों (कानूनों) को लागू करें तथा विरोध करने वालों को दंडित करे आदि। औद्योगिक क्रांति, राजनीतिक चेतना का विकास, नवीन आविष्कारों आदि ने राज्य के कार्यक्षेत्र को बढ़ा दिया है। राज्य पहले से जो कार्य करता आया है वे कर ही रहा था लेकिन और कार्य जुड़ गए। जैसे- जनहित, आर्थिक समानता, सामाजिक न्याय इत्यादि।
जॉन लॉक के अनुसार, “राज्य का उद्देश्य मानव-हित है।” ब्लुंशली के मतानुसार “राज्य का कार्य सार्वजनिक कल्याण है।” गिडिंग्स के अनुसार “ऐसा वातावरण बनाए रखता है जिसमें सभी प्रजाजन सर्वोच्च एवं आत्मनिर्भर जीवन बिता सके।” रिशी के अनुसार “राज्य ऐसी परिस्थितियों का निर्माण करता है जिससे व्यक्ति द्वारा सर्वोत्तम जीवन प्राप्त किया जा सके।” गार्नर का कहना है कि “राज्य का कार्य व्यक्ति का हित-साधन, राष्ट्र का हित साधन है और मानव सभ्यता का विकास है।” टी. एच. ग्रीन के तर्क में “राज्य का कार्य पुलिस कार्य सम्पन्न करना, अपराधियों को पकड़ना और समझौतों पर निर्दयतापूर्वक अमल करवाना ही नही है, अपितु राज्य को यथाशक्ति व्यक्तियों के लिए उनकी बौद्धिक तथा नैतिक प्रवृतियों में जो कुछ सर्वश्रेष्ठ है, उसे प्राप्त करने का अवसर प्रदान करना है।” इस प्रकार राज्य के कार्यों को निम्नलिखित शीर्षकों द्वारा प्रस्तुत किया जा सकता है।
1. बाह्य आक्रमणों से रक्षा
राज्य का अनिवार्य कार्य बाह्य आक्रमणों से रक्षा करना होता है। प्राचीन काल से ही राज्य यह कार्य करता आया है। व्यक्ति की यह सोच होती है कि राज्य न केवल आन्तरिक क्षेत्र में सुरक्षा का प्रबन्ध करें अपितु बाहरी स्तर पर भी करें और ऐसा करना राज्य का दायित्व एवं औचित्य भी है। इसके लिए राज्य अपनी सेना तैयार करता है। आधुनिक समय में भी बाहरी आक्रमणों एवं युद्धों का खतरा बना रहता है। प्रत्येक राज्य एक दूसरे के सम्भावित आक्रमण से ऐसे भयभीत हैं कि वे अपने बजट का अधिकांश भाग युद्ध या सेना संबंधी कार्यों में खर्च कर रहे हैं। इसके चलते राज्यों के बीच हथियारों की होड़ बढ़ गई है। इसके परिणाम स्वरूप सारा विश्व एक बारूद के ढेर में तब्दील हो गया है और न जाने कब एक चिन्गारी विश्व को युद्ध की विभीषिका में झोंक दे। राज्य यह कहकर हथियारों का जखीरा तैयार कर रहा है कि उसे बाहरी आक्रमणों से खतरा हैं, लेकिन इससे विश्वशांति कायम नहीं हो सकती, बल्कि इसके लिए तो शांतिपूर्ण तरीकों का सहारा लेना होगा। इसके लिए अहिंसा का प्रशिक्षण लोगों को देना होगा।
2. आन्तरिक शांति व्यवस्था
राज्य केवल बाहरी आक्रमणों से सुरक्षा का प्रबन्ध नहीं करता, अपितु आन्तरिक शांति व्यवस्था बनाये रखता है। ऐसे तत्व जो इसको भंग करने का प्रयास करते हैं, उनके प्रयासों को असफल करता है। इसके अभाव में व्यक्ति का जीवन व सम्पत्ति खतरे में पड़ती है साथ ही राज्य का विकास एवं उन्नति का मार्ग अवरूद्ध हो जाता है।। आन्तरिक शांति व्यवस्था बनाए रखने के लिए राज्य पुलिस व गुप्तचर सेना का जाल बिछाता है और उन्हें अत्याधुनिक संसाधन से युक्त बनाता है। आज राज्यों के सामने सबसे प्रबल चुनौती यही है। भारत जैसे राज्य में सीमा पार से आतंकवाद को प्रोत्साहन दिया जा रहा है, उससे हमारी आंतरिक शांति व्यवस्था डगमगा गयी हैं। आतंकवाद, नस्लवाद, जातिवाद एवं साम्प्रदायिक हिंसा ने शांति व्यवस्था को तहस-नहस कर दिया है। राज्य का ध्यान एवं संसाधन का उपयोग विकास कामों में नहीं हो रहा है। आर्थिक अपराधी भी आन्तरिक शान्ति के सम्मुख गहन चुनौती उपस्थित कर रहे हैं।
3. न्याय व्यवस्था
किसी भी सभ्य समाज की आधारशिला न्याय व्यवस्था होती है। इस बात का इतिहास साक्षी है कि जब-जब किसी राज्य की न्याय व्यवस्था कमजोर एवं पक्षपातपूर्ण हुई है तब-तब राज्य बालू के रेत के घरोंदे के समान इतिहास के पन्नों में समाया है। अतः प्रत्येक राज्य का यह दायित्व बनता है वह स्वतन्त्र एवं निष्पक्ष न्याय व्यवस्था का उचित प्रबन्ध करे। जो वास्तविक अपराधी है, उन्हें कठोर सजा दे। आधुनिक राज्यों में नागरिकों को मौलिक अधिकार प्रदान किये गये हैं। उनके संबंध में भी यही व्यवस्था है कि इनका हनन होने पर नागरिक न्यायालय में अपील कर सकता है। जैसे भारतीय संविधान का अनुच्छेद 32 जो संवैधानिक उपचारों के अधिकार से सम्बन्धित है। वह भी ऐसी व्यवस्था करता है। न्याय न मिलने की स्थिति में व्यक्ति का विकास काफी हद तक प्रभावित होता है। इसलिए आधुनिक राज्यों में शक्ति पृथक्करण के सिद्धांत पर बल दिया गया हैं ताकि न्यायपालिका की स्वतन्त्रता बनी रह सकें।
4. सार्वजनिक शिक्षा
शिक्षा राज्य का आईना (दर्पण) होती है, जिससे नागरिकों में न केवल नैतिक व चारित्रिक गुणों का विकास होता है, अपितु राजनीतिक चेतना का विकास एवं नागरिकों को अपने दायित्वों का बोध होता है। आधुनिक युग में राज्य का स्वरूप लोककल्याणकारी होने के कारण राज्य सार्वजनिक शिक्षा का अनिवार्य एवं निःशुल्क प्रबंध करता है। भारत में तो शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाने की बात कही जा रही है। अशिक्षा को समाप्त करने के लिए राज्य द्वारा विशेष प्रयास किए जा रहे हैं।
5. सार्वजनिक स्वास्थ्य
यह पूर्णतया सत्य है कि यदि किसी राज्य में स्वास्थ्य की स्थिति खराब हैं, लोगों के लिए चिकित्सा एवं स्वास्थ्य सुविधा का उचित प्रबन्ध नहीं है तो राज्य किसी भी स्थिति में विकास नहीं कर सकता। अतः राज्य के द्वारा स्वास्थ्य स्तर को उच्च बनाने, स्वास्थ्य सेवाओं में गुणात्मक सुधार लाने, आम जनता को महामारी या अन्य साध्य व असाध्य बीमारियों से बचाने के लिए हर सम्भव ठोस कदम उठाये जाते हैं।
6. उत्पादन में वृद्धि
जब राज्य के कृषि एवं औद्योगिक उत्पादनों में आशानुकूल अभिवृद्धि होगी तो राज्य सफलता के नए सोपान तय करता है और राज्य के नागरिकों में आत्म निर्भरता, आत्म सम्मान एवं आत्म गौरव की भावना का विकास होता है। उत्पादन कम होने की स्थिति में देश पतन की ओर अग्रसर होता है, क्योंकि आवश्यकता की वस्तुओं का पर्याप्त मात्रा में उत्पादन न होने पर विदेशों से आयात करना पड़ता है। जिससे देश का धन विदेशों में चला जाता है और उन देशों पर निर्भरता आ जाती है। यह स्थिति राजनीतिक स्वतन्त्रता के लिए अनुकूल नहीं होती है। इसलिए हर देश उत्पादन बढ़ाने की हर संभव कोशिश करता है। इस हेतु राज्य नवीन अनुसंधान करवाता है और नवीन साधनों के संबंध में उद्योगों एवं कृषकों को जानकारी उपलब्ध करवाता है। जैसे भारत में कृषि उतापन बढ़ाने के लिए हरित क्रांति, दूध उत्पादन में वृद्धि हेतु स्वेत क्रांति आदि कार्यक्रम संचालित किए गए।
7. बेसहारों का सहारा
आधुनिक राज्य का यह दायित्व बनता है कि वह बेसहारा, वृद्ध, अपाहिजों तथा अनाथों को सहारा प्रदान करे। इसके लिए राज्य वृद्धाश्रम, वृद्धावस्था पेंशन, अपाहिजों को रियायतें एवं अन्य अनेक सुविधायें उपलब्ध करवाता है। भारत सहित विश्व के अधिकांश राज्य इस क्षेत्र में सराहनीय कार्य कर रहे हैं।
8. मनोरंजन का प्रबन्ध
व्यक्ति के लिए यह बहुत जरुरी होता है कि वह अपने दैनिक कार्य के अलावा कुछ समय मनोरंजन के लिए व्यतीत करे ताकि उसे मानसिक एवं शारीरिक शांति मिल सके। अतः राज्य को चाहिये कि वह इस क्षेत्र में भी गंभीरता पूर्वक प्रयास करे। राज्य इस संबंध में पार्क, क्लब, बाग, फिल्म, पुस्तक, नाटकगृहों, राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय खेलों का आयोजन आदि की व्यवस्था करता है।
9. आर्थिक असमानता का अन्त
समाज में जब तक अमीर-गरीब के बीच खाई अधिक गहरी होगी तो राज्य कभी भी उन्नति नहीं कर पायेगा और न ही सामाजिक समरसता स्थापित हो सकेगी। राज्य के अधिक संसाधनों पर समाज के कुछ लोगों का नियन्त्रण होने की स्थिति में वे बहुसंख्यक लोगों का शोषण करते हैं और राज्य की अर्थव्यवस्था को अपनी मनमर्जी से संचालित करते है। बहुसंख्यक श्रमिक वर्ग अभाव भरी जिन्दगी व्यतीत करता है जिसे दो वक्त की रोटी भी मुश्किल से नसीब होती है। दूसरी ओर पूंजीपति विलासितापूर्ण जीवन व्यतीत करते है। यह स्थिति समाज के लिए घातक सिद्ध होती है और आगे चलकर असमानता की ज्वाला क्रांति या संघर्ष के रूप में फुटती है। अतः राज्य आर्थिक असमानता को दूर करने के ठोस कदम उठाए, इसके लिए राज्य बड़े उद्योग धन्धे पर अपना नियन्त्रण रखे। अर्थव्यवस्था पर उचित नियन्त्रण लगाए और असमानता बढ़ाने वाले प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाये आदि। लेकिन वर्तमान में आर्थिक उदारीकरण या वैश्वीकरण के इस दौर में आर्थिक असमानता में वृद्धि होती जा रही है।
10. श्रम सुधार
पूंजीपतियों के शोषण से श्रमिकों को बचाने के लिए राज्य को ऐसे कानूनों का निर्माण करना चाहिए, जिससे उद्योग धन्धों के संचालन से मिल मालिक, श्रमिकों का आर्थिक शोषण न कर सके। अतः राज्य श्रम सुधार हेतु श्रमिकों का वेतन, कार्य करने के घण्टे, स्वास्थ्य सुधार आदि के लिए उचित दिशा निर्देश पूंजीपतियों का जारी करता है।
11. विदेश नीति का संचालन
एक राज्य विश्व के अन्य राज्यों से पूर्णतया पृथक या अलग रहकर अपनी अधिकांश आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर सकता। अतः उसे दूसरे राज्य के साथ मधुर संबंध स्थापित करने के लिए एवं अन्तर्राष्ट्रीय रंगमंच पर अपनी मजबूत पकड़ स्थापित करने के लिए एक व्यवस्थित एवं सुनियोजित विदेश नीति का अनुसरण करना होता है। जिसका प्रमुख आधार राष्ट्रीय हित होता है। अर्थात् एक राज्य अपने हितों की बलवेदी पर कोई समझौता नहीं करता। वर्तमान विश्व व्यवस्था ने विदेश नीति की प्रासंगिकता एवं औचित्य और अधिक बढ़ा दिया है क्योंकि सम्पूर्ण विश्व एक परिवार के रूप में बदल गया है। वर्तमान में विश्व समाज तथा विश्व सरकार की अवधारणा साकार हो रही है। विश्व के सभी राष्ट्र अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं या संगठनों के सदस्य बनते जा रहे हैं।
12. सामाजिक न्याय पर बल
सामाजिक न्याय का अर्थ है कि समाज में प्रत्येक निर्धन, पिछड़े वर्ग और अशिक्षितों को धनवान, समृद्ध वर्ग एवं शिक्षितों की भाँति उन्नति के समान अवसर मिले ताकि समाज में व्याप्त विषमताओं को हमेशा-हमेशा के लिए समाप्त किया जा सके। राज्य को चाहिए कि वह इसे लागू करने के लिए रचनात्मक प्रयास करे, जैसे- पिछड़ों को सरकारी नौकरियों, संसद एवं विधानमण्डलों तथा अन्य जनप्रतिनिधित्व की संस्थाओं में स्थान आरक्षित करें, लेकिन यह व्यवस्था भारत की तरह जाति पर आधारित नहीं होनी चाहिए अपितु आर्थिक आधार पर होनी चाहिए और जो एक बार इसका लाभ प्राप्त कर चुका तो उसे दुबारा नहीं मिलना चाहिए अन्यथा सामाजिक न्याय के स्थान पर जातिवाद का जहर हावी हो जाएगा। सामाजिक न्याय को साकार करके दलितों, पिछड़े तथा कमजोर वर्गों का उत्थान संभव होगा।
13. नागरिक स्वतन्त्रता की व्यवस्था
नागरिकों के चहुमुंखी विकास के लिए नागरिक स्वतन्त्रता की उचित व्यवस्था होना आवश्यक होती है। इस बात का इतिहास साक्षी है कि जब-जब नागरिक स्वतन्त्रता का दमन करने का प्रयास किया तब-तब उस राज्य को समाप्त होना पड़ा है। अतः प्रत्येक राज्य द्वारा नागरिक स्वतंत्रता की समुचित व्यवस्था की जानी चाहिए। आधुनिक राज्य अपने अपने संविधान के माध्यन से नागरिकों को अधिकार एवं स्वतन्त्रता प्रदान करते हैं। जैसे – भारतीय संविधान भाग–3 के अनुच्छेद 12–35 के मध्य उल्लेखनीय है। इसी तरह अमरीका में प्रथम दस संविधान संशोधनों द्वारा नागरिक स्वतन्त्रता की व्यवस्था की गई। इसके अलावा इनके हनन की भी उचित व्यवस्था भी राज्य द्वारा की जाती है। नागरिक स्वतन्त्रताओं की व्यवस्था से ही व्यक्ति का सर्वांगीण विकास संभव है।
14. प्राकृतिक आपदाओं में सहायता
समय-समय पर प्रकृति मनुष्य की कड़ी परीक्षा लेती रही है और मुसीबतों का पहाड़ डाल देती है, इनसे मनुष्य के विकास पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। प्रकृति की यह मार भूकम्प, अकाल, बाढ़ तथा महामारी आदि के रूप में देखी जा सकती है। अतः राज्य का यह दायित्व बनता है कि प्राकृतिक आपदाओं के समय हर संभव सहायता उपलब्ध कराये ताकि जनता के कष्टों का निवारण हो सके वर्तमान समय में राज्य अपने इस दायित्व का निर्वहन अच्छे से कर रही है।