जॉन आस्टिन का सम्प्रभुत्ता संबंधी सिद्धान्त
सम्प्रभुत्ता की अवधारणा की सुस्पष्ट व्याख्या करने का श्रेय इंग्लैण्ड के प्रसिद्ध विधिवेत्ता जॉन आस्टिन (1790–1859) को जाता है। यह व्याख्या इन्होंने अपनी पुस्तक “विधि शास्त्र पर व्याख्यान” (Lectures on Jurisprudence) में की है। यह पुस्तक 1832 ई. को प्रकाशित हुई। आस्टिन, हॉब्स, और बेन्थम के विचारों से बहुत प्रभावित था। जहाँ हॉब्स सामाजिक समझौता सिद्धान्त के माध्यम से यह सिद्ध करने का प्रयास करता है कि प्राकृतिक अवस्था में मनुष्य का जीवन क्षणभंगुर था, उसके सामने जीवन व संपत्ति की सुरक्षा की चिन्ता थी, इसीलिए वह राज्य की उत्पत्ति करता है और इस स्थिति से मुक्ति पाने के लिए वह निरंकुश व सर्वोच्च सम्प्रभुत्ता की कल्पना करता है।
वहीं बेन्थम अपने उपयोगितावादी सिद्धान्त के आधार पर यह सिद्ध करने की कोशिश करता है कि राज्य वहीं अच्छा है जो अधिकतम लोगों को अधिकतम सुख में अधिकाधिक वृद्धि करता हो। उसका कहना है कि “उच्चतर द्वारा निम्नतर को दिया गया आदेश ही कानून होता है।” इसी से प्रेरित होकर आस्टिन सम्प्रभुत्ता की अवधारणा का प्रतिपादन करता है। जो इस प्रकार है कोई निश्चित् उच्चसत्ताधारी मनुष्य, जो स्वयं किसी वैसे ही उच्च सत्ताधारी के आदेश पालन का अभ्यस्त न हो, यदि मनुष्य समाज के बड़े भाग से स्थायी रूप में अपने आदेशों का पालन कराने की स्थिति में हो तो वह उच्चसत्ताधारी मनुष्य उस समाज में सम्प्रभु होता है और वह समाज एक राजनीतिक व स्वाधीन समाज अर्थात् राज्य होता है।
आस्टिन के सम्प्रभुत्ता संबंधी विचार की विशेषताएं
आस्टिन के सम्प्रभुत्ता संबंधी विचार से निम्नलिखित विशेषताएँ स्पष्ट होती है-
1. राज्य का अनिवार्य तत्व
आस्टिन का मत है कि जो राजनीतिक व स्वतन्त्र समाज है अर्थात् राज्य के लिए सम्प्रभुत्ता का होना निहायत आवश्यक है। जिस प्रकार जल के बिना मछली जीवित या अस्तित्व बनाये नहीं रख सकती ठीक उसी प्रकार राज्य की सम्प्रभुत्ता के बिना परिकल्पना नहीं की जा सकती क्योंकि यह एक ऐसा तत्व है जो संगठित समाज की स्वाधीनता का सूचक है।
2. निश्चितता का होना
सम्प्रभुत्ता का तत्व निश्चितता की आधारशिला पर टिका हुआ होता है अर्थात् सम्प्रभुत्ता एक मानव या मानव समूह के रूप में हो सकती है। यह सामान्य इच्छा, प्राकृतिक कानून, दैवी इच्छा, जनमत जैसे भावात्मक प्रतीकों में निहित नहीं हो सकती। यह एक ऐसी निश्चित सत्ता होती है जिस पर कोई कानूनी प्रतिबन्ध नहीं होता।
3. सर्वोच्च
सम्प्रभुधारी के उच्चतर ऐसी कोई शक्ति नहीं होती है जो उसको आदेश दे और आदेश की पालना करने के बाध्य करें। आन्तरिक व बाहरी दोनों ही स्तरों पर यह सर्वोच्च है और कोई भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इसके नीतिगत फैसले को प्रभावित नहीं कर सकता।
4. आज्ञाकारिता
सम्प्रभु शक्ति को समाज की बहुसंख्या से पूर्ण आज्ञाकारिता प्राप्त होनी चाहिए। समाज के लोगों में आज्ञा का पालन करना स्वभाव से होना चाहिए न कि यदा कदा या दबाव पर आधारित।
5. सम्प्रभु का आदेश ही कानून
आस्टिन का तर्क है कि सम्प्रभुधारी का आदेश ही कानून होता है, उसे कही, पर किसी के द्वारा किसी भी रूप में चुनौती नहीं दी जा सकती, यदि कोई उसके आदेश की अवहेलना करने का प्रयास करता है तो वह दण्ड का भागीदार होगा।
6. अविभाज्य
जिस प्रकार विभाजित मानव शरीर के अंगों का कोई अस्तित्व नहीं होता और इस स्थिति में सम्पूर्ण शरीर और मानव जीवन के अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह लग जाता है, ठीक उसी प्रकार सम्प्रभुत्ता का विभाजन करने पर सम्प्रभुत्ता तो प्रभावित होती ही है साथ में राज्य के अवसान की प्रक्रिया शुरू हो जाती है।
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि जॉन ऑस्टिन ने संप्रभुता के एकत्ववाद (Monistic) अवधारणा का प्रतिपाद किया है।
सम्प्रभुत्ता सिद्धान्त ऑस्टिन के विचारों की आलोचनाएं
जॉन ऑस्टिन ने संप्रभुता को राज्य का आवश्यक तत्व मानते हुए यह सिद्ध करने का प्रयास किया गया कि सम्प्रभुत्ता सर्वोच्च, असीमित, निरंकुश, सर्वव्यापक होती है। जिसके बिना राज्य की कल्पना नहीं की जा सकती, यह राजनीतिक दृष्टि से संगठित समाज को आधार प्रदान करती है, यह समाज की स्वाधीनता का द्योतक हैं आदि । यह सिक्के का एक पहलू है। दूसरे पहलू के तहत् इसकी व्यापक आलोचना की गई और यह कहा गया है कि इस विचारधारा से व्यक्ति की स्वतन्त्रता संकट में पड़ जाती है और सम्प्रभूधारी अपनी शक्ति का अनुचित लाभ उठाकर तानाशाह बन जाता है। इसकी आलोचना बहुलवादियों के द्वारा की गई है, जो इसके विरूद्ध विचारों का प्रतिपादन करते हैं। ये आलोचनाएं निम्नलिखित रूप से है-
1. लोकप्रिय प्रभुसत्ता के विरूद्ध
लोकप्रिय या लौकिक प्रभुसत्ता इस बात पर बल देती है कि सम्प्रभुत्ता का वास जनता में होना चाहिए यही समय की मांग है क्योंकि आधुनिक विश्व राज्यों में लोकतन्त्र को सर्वश्रेष्ठ शासन प्रणाली के रूप में स्वीकार किया गया है जिसका आधार भी जनता होता है। इसके अलावा रूसो के सामान्य इच्छा सिद्धान्त की अनदेखी की गयी है। मैकाइवर अपनी पुस्तक ‘माडर्न स्टेट’ (The Modern State) में लिखते है कि आस्टिन की विचारधारा उपनिवेशों के राजनीतिक जीवन पर लागू होती है, क्योंकि उस विचारधारा की विषय वस्तु स्वामी और दास के सम्बन्ध की व्याख्या मात्र है।
2. निश्चित सम्प्रभु को खोज पाना कठिन
सर हेनरी मेन ने अपनी कृति Early Institutions में लिखा है कि इतिहास में इस प्रकार के निश्चित सम्प्रभुधारी (जनश्रेष्ठ) का उदाहरण नहीं मिलता है। मध्य युग में यह तय करना कठिन था कि राज्य सम्प्रभु है या चर्च। सामन्तों के युग में सामन्तों की शक्ति कम नहीं थी। वर्तमान् समय में भी यह तय नहीं किया जा सकता कि सम्प्रभुत्ता की शक्ति का प्रयोग कौन कर रहा है?
3. शक्ति पर बल
सम्प्रभुत्ता सिद्धान्त एवं आस्टिन के विचारों से ऐसे प्रतीत होता है कि शक्ति को बहुत महत्व देते हुए शक्ति ही सार पर ही सारा बल दिया गया है। लेकिन वास्तविकता यह है कि जनता कानून का पालन भय या दण्ड के कारण नहीं करती, अपितु अपनी इच्छानुसार करती है। क्योंकि उन्हें अच्छी तरह मालूम होता है कि कानून के पालन से प्राप्त लाभ या सुविधा कानून के विरोध से प्राप्त लाभ या सुविधा की तुलना में काफी अधिक होते हैं। हर्नशा का कहना है कि आस्टिन के दर्शन में हवलदारी की गंध पायी जाती है। क्ति पर अत्यधिक बल दिये जाने से सम्प्रभुता का उद्देष्य ही समाप्त हो जाता है।
4. लोकतन्त्र के विरूद्ध
सम्प्रभुत्ता एवं आस्टिन के सिद्धान्त के अनुसार सम्प्रभुता एक व्यक्ति में निहित होती है, जबकि आधुनिक लोकतंत्र में संप्रभुता की शक्ति जनता में निहित मानी जाता है और जनता की इच्छा ही सर्वोपरि होती है। जनता अपने मत के माध्यम से निश्चित समयावधि के लिए सम्प्रभु को तय कर देती है जो जनता के प्रति जवाबदेही होकर कार्य करता है और वह जनहित की अनदेखी करने का साहस नहीं कर सकता। यदि वह ऐसा नहीं करता है तो उसके दुष्परिणाम भोगने के लिए तैयार रहना चाहिए, क्योंकि सम्प्रभु को जनता अपनी मत की शक्ति द्वारा पदच्युत कर सकती है। आस्टिन का सम्प्रभुत्ता सिद्धान्त एक व्यक्ति को सर्वोपरि मानते हुए उसकी शक्ति को बढ़ाने पर बल दिया जाता है।
5. कानून सम्प्रभुधारी का आदेश नहीं
जॉन आस्टिन का यह विचार की कानून सम्प्रभु का आदेश होता है जो स्वीकार नहीं किया जा सकता। आलोचकों की राय में आस्टिन यह कहकर कानून के अन्य स्त्रोतों जैसे- रीतिरिवाज, परम्परा, संविधान व्यवस्थापिका, न्यायालय के निर्णय, संविधान संशोधन आदि की उपेक्षा करता है। कौटिल्य लिखता है कि, धर्म, औचित्य या न्याय परम्पराएँ व्यवहार की शर्ते परम्परागत नियम व प्रथाएँ तथा राजा के आदर्श कानून के स्त्रोत होते हैं। आधुनिक समय में भी परंपराएं न्यायिक निर्णय, न्यायिक टीकाएँ, संविधान आदि कानून के स्त्रोत होते हैं जिनकी अनदेखी चाहे कितना भी शक्तिशाली संप्रभु क्यों न हो? विरोध नहीं कर सकता। इस तरह कानून वे नियम और व्यवस्थागत मान्यताएँ होती हैं, जिन्हें राज्य बनाता और समाज मान्यता प्रदान करता है।
6. सम्प्रभुत्ता अविभाज्य नहीं है
बहुलवादियों का मानना है कि सम्प्रभुता एक सर्वशक्तिमान राज्य में अभिभाज्य नहीं रह सकती बल्कि यह विभक्त की जा सकता हैं। इनके अनुसार सम्प्रभुत्ता राज्य की अनेक इकाईयों के पास रहती है क्योंकि मनुष्य के जीवन के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए अनेक संस्थाएँ पायी जाती है जिनमें से राज्य भी एक राजनीतिक संस्था है जो अन्य इकाईयों से शक्तिशाली न होकर समकक्ष होती है। इसके अलावा संघात्मक व्यवस्था में राज्य द्वारा अपनी सम्प्रभुत्ता की शक्ति का आवश्यक विभाजन किया जाता है।
7. सम्प्रभुत्ता असीमित नहीं होती
बहुलवादियों का तर्क है कि संप्रभुता सीमित होती है। ब्लुंशली लिखता है कि राज्य अपने समस्त स्वरूप में सर्वशक्तिमान नहीं हो सकता, क्योंकि बाहरी मामलों में वह अन्य राज्यों के अधिकारों से और आन्तरिक क्षेत्र में स्वयं की प्रकृति तथा अपने सदस्यों के व्यक्तिगत अधिकारों से सीमित है। आलोचकों का कहना है कि परम्पराएँ, धर्म, अन्तर्राष्ट्रीय कानून, नागरिक अधिकार अन्य समुदायों का अस्तित्व आदि राज्य की सम्प्रभुत्ता को नियन्त्रण में रखते हैं।
8. अन्तर्राष्ट्रीयता के विरूद्ध
अन्तर्राष्ट्रीयवाद की अवधारणा ने सम्पूर्ण विश्व को एक परिवार के रूप में तब्दील कर दिया है। केवल एक राज्य दूसरे राज्य के नजदीक नहीं आया है अपितु विश्व के सभी देश एक छत के नीचे (संयुक्त राष्ट्र संघ) के साथ आ गए हैं। अन्तर्राष्ट्रीय कानूनों ने राज्य की सम्प्रभुत्ता को सीमित कर दिया है जैसे सम्प्रभु राज्य किसी भी दूसरे राज्य पर आक्रमण कर सकता है। लेकिन उसे अन्तर्राष्ट्रीय समाज के जनमत के विरोध का सामना करना पड़ता है और उस पर जवाबी कार्यवाही की जा सकती है।