भारतीय संविधान और अस्पृश्यता निवारण :
किसी भी युग के निमित्त विधि मानवीय इच्छाओं की अभिव्यक्ति है। संवैधानिक विधि भी लोक वर्ग की आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति है, जो उन्हें उनके निमित्त राज्य व्यवस्था की रचना व उसका स्वरूप प्रस्तुत करती है। दूसरे शब्दों में संवैधानिक विधि किसी राष्ट्र के निमित्त एक मूल विधि है। यह परिवर्तन का एक दस्तावेज और सामाजिक उपकरण है तथा अन्य विधियों की आधारशिला है। इसलिए इसे सर्वोच्च विधि के नाम से जाना जाता है।
भारतीय संविधान में अस्पृश्यता उन्मूलन, अनुसूचित जातियों और जनजातियों और अन्य कमजोर वर्गों को सामाजिक, शैक्षणिक, आर्थिक एवं राजनैतिक हितों को प्रोत्साहन देने के लिए अनेक उपबंध रखे गए हैं। संविधान में इन वर्गों का संरक्षण और सुरक्षा की बात तो कही ही गई है, साथ ही राज्य के ऊपर यह कर्तव्य भी आरोपित किया गया है, कि वह सामाजिक अन्याय और सभी प्रकार के शोषण से उनकी रक्षा करेगा। अस्पृश्यता निवारण और अनुसूचित जाति एवं जनजाति के उत्थान के लिए तथा उनकी रक्षा के उपाय जिन अनु. में आए हैं वे इस प्रकार हैं-
हमारे संविधान की प्रस्तावना का संवैधानिक और राजनीतिक दृष्टि से बहुत महत्व है यह प्रस्तावना व्यवसायिक और कार्यपालिका की प्रेरक शक्ति है जिससे वे इस प्रकार की विधियों का निर्माण करें जिससे समाज के दलित वर्ग को सच्चे न्याय की प्राप्ति हो सके।
संविधान का अनु. 14 यह उपबंधित करता है कि विधि की दृष्टि से सब नागरिक समान समझे जाएंगे। संविधान के अनु. 15 के अनुसार राज्य किसी नागरिक के विरुद्ध धर्म, मूलवंश, जाति या लिंग के आधार पर भेदभाव का व्यवहार नहीं करेगा। सार्वजनिक भोजनालयों, दुकानों, सिनेमाघरों, तालाबों, कुँआ इत्यादि सार्वजनिक स्थानों पर सबको समान रूप से उपयोग करने का अधिकार होगा। संविधान के अनु. 16 के अनुसार अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति तथा पिछड़ी हुई जातियों के व्यक्ति कोई भी काम धंधा और व्यापार कर सकते हैं तथा उन पर कोई स्काबट नहीं होगी। संविधान के अनु. 17 के द्वारा अस्पृश्यता को समाप्त कर दिया गया है। अनु. 23 के अनुसार बेगार और जबरदस्ती भ्रम नहीं लिया जा सकता है।
यद्यपि मूल अधिकार समस्त नागरिकों को प्राप्त है तथापि पिछड़े वर्गों के हितों को ध्यान में रखते हुए अधिकारों के इसी अध्याय में इनके लिए विशेष सुविधाओं की व्यवस्था की गई है। इन सुविधाओं के प्रवर्तन के लिए पिछड़े वर्गों के लोग न्यायालय की शरण भी ले सकते हैं। मूल संविधान में इन वर्गों के विकास के लिए विशेष व्यवस्था की गई है।
संविधान के अनु. 46 के अनुसार राज्य जनता के दुर्बलतर अंगों के विशेषतया अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के शिक्षा तथा अर्थ संबंधी हितों की विशेष सावधानी से उन्नति करेगा और सामाजिक अन्याय तथा सभी प्रकार के शोषण से उनकी रक्षा करेगा।
लोकसभा तथा राज्य सभा और पंचायत स्तर पर अनुसूचित जाति तथा जनजातियों के लिए स्थान सुरक्षित की व्यवस्था की गई है पिछड़े वर्गों के लिए सुरक्षित स्थानों की संख्या का किसी राज्य के कुल प्रतिनिधियों की संख्या से वही अनुपात रहेगा जो कि उनकी जनसंख्या का राज्य की कुल जनसंख्या से है। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, उड़ीसा इत्यादि राज्यों में तो अनिवार्यतः जनजाति कल्याण विभाग मंत्री के पद की व्यवस्था की गई है।
संविधान के अनु. 16 (4) के अंतर्गत पिछड़े वर्ग के लिए शासकीय सेवाओं में राज्य को सुरक्षित स्थानों की व्यवस्था करने का अधिकार प्राप्त है, इन वर्गों और जातियों को शासकीय सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व देने के लिए जो रियायतें प्रदान की गई उनमें से मुख्य है-
1. आयु सीमाओं में छूट
2. योग्यता स्तर से छूट
3. कार्य कुशलता का निम्न स्तर पूरा करने पर उनका चयन
4. नीचे की श्रेणियों में उनकी नियुक्ति और पदोन्नति का विशेष प्रबंध
संविधान के अनुसार राष्ट्रपति के द्वारा अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के लिए एक विशेष पदाधिकारी “आयुक्त” की नियुक्ति की जाती है। उसे संविधान द्वारा इन जातियों को मिले संरक्षण से संबंधित मामलों की जाँच व देखरेख करने के अधिकार मिले हैं। आयुक्त की जाँच रिपोर्ट राष्ट्रपति को दी जाती है। इसी तरह आयोग की भी नियुक्ति की व्यवस्था है, जो पिछड़े वर्गों के कल्याण हेतु सिफारिशें करता है।
अस्पृश्यता निवारण :
भारतीय संविधान में अस्पृश्यता को परिभाषित नहीं किया गया है, तथापि अस्पृश्यता से तात्पर्य इसके शाब्दिक अर्थ से नहीं है, जिस समय संविधान निर्मात्री सभा में इस बात पर विचार हो रहा था। उस समय इस शब्द का अर्थ प्रायः सभी लोग जानते थे, फिर भी संविधान निर्मात्री सभा के सलाहकार श्री वी. एन. राव ने यह कहा कि अस्पृश्यता को परिभाषित करने हेतु भविष्य में संसद कानून बनाएगी’ यद्यपि कि ऐसा कोई कानून अभी तक नहीं बना है, तथापि यह स्पष्ट है कि अस्पृश्यता का अर्थ जानने के लिए हमें उन ऐतिहासिक प्रक्रियाओं की ओर जाना पड़ेगा, जो सदियों से इस नाम को ध्वनित करती रही हैं। अस्पृश्य कौन है उसको जानने के लिए भारतीय समाज का इतिहास अस्पृश्यता से उत्पन्न निर्योग्यताएँ तथा इन निर्योग्यताओं को दूर करने के उपाय इत्यादि पर भी विचार करना होगा।
जब हम ‘अस्पृश्यता‘ शब्द का विवेचन करते हैं तो यह स्पष्ट है कि इस शब्द के अंतर्गत क्षणिक रूप से उत्पन्न अस्पृश्यता का व्यवहार नहीं आता, उदाहरण के लिए छूत की बीमारियों से उत्पन्न अस्पृश्यता नहीं आती। अस्पृश्यता दूसरी ओर उन निर्योग्यताओं को इंगित करती है जो सामाजिक व्यवस्था के कारण कुछ जाति विशेष पर आरोपित की गई थीं, और जिन्हें जाति के आधार पर नीच होने के कारण अस्पृश्य समझा गया था।
संविधान के अनु. 17 में यह कहा गया है कि अस्पृश्यता समाप्त की जाती है, और किसी भी रूप में उसका व्यवहार वर्जित है। इस प्रकार भारतीय संविधान में अस्पृश्यता को समाप्त कर दिया गया है। इसका मुख्य उद्देश्य देश में सामाजिक लोकतंत्र की स्थापना है, जिसका मुख्य आधार स्वतंत्रता, समानता एवं भ्रातृत्व की भावना है। सदियों से सामाजिक समरसता की जो धारा अस्पृश्यता के कार्य रूप में परिणत होने के कारण सूखती चली आ रही थी, उसे भारतीय संविधान ने समाप्त कर इस समरसता के जलाशय को भरने का प्रयास किया है। अनु. 17 से संबंधित यदि किसी निर्योग्यता को व्यवहार में लाया जाता है, तो वह विधि द्वारा दंडनीय अपराध होगा। अनु. 17 को 35 क (2) के साथ अनुशीलन किया जाना चाहिए, अनु. 35 क (2) से संसद को यह अधिकार दिया गया है कि ऐसे कार्यों के लिए जो इस भाग के अधीन अपराध घोषित किये गए हैं, दंड विहित करने के लिए विधि बनाएं और संसद इस संविधान के प्रारंभ के पश्चात् यथा शीघ्र ऐसे कार्यों के लिए जो उपखंड (2) में निर्दिष्ट है, दंड विहित करने के लिए विधि बनाएगी।
इस अधिकार का प्रयोग करते हुए भारतीय संसद ने 1955 का ‘अस्पृश्यता निवारण‘ कानून बनाया है जिसमें किसी भी प्रकार की अस्पृश्यता संबंधी व्यवहार को दंडनीय अपराध बताया गया है। इस अधिनियम के द्वारा 6 महीने का दंड या 500/- रुपये का जुर्माना या दोनों दिया जा सकता है। यदि किसी व्यक्ति के द्वारा धार्मिक सामाजिक आधार पर किसी को निर्योग्य दिया जा सकता है। यदि किसी व्यक्ति के द्वारा धार्मिक सामाजिक आधार पर किसी को निर्योग्य मानता है, या जाति के आधार पर किसी को अपना माल बेचने से इंकार करता है, या अन्य किसी प्रकार अस्पृश्यता को व्यवहार में लाता है, तो उक्त अधिनियम के द्वारा अपराध माना जाएगा।
राज्य विधानसभाओं को अस्पृश्यता का व्यवहार करने पर दंड देने का कानून बनाने का अधिकार संविधान ने नहीं दिया है। इसीलिए मध्य भारत द्वारा 1950 में बनाया गया, ‘निर्योग्यता निवारण संशोधन‘ अधिनियम को इसी आधार पर अवैध घोषित कर दिया गया है कि वह विधानसभा के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता है।
अनुच्छेद 17 का अनुशीलन यह स्पष्ट करता है कि यह उस व्यक्ति के पक्ष में कोई अधिकार नहीं देता, जिसके विरुद्ध अस्पृश्यता का अपराध किया गया हो, यह उस व्यक्ति के विरुद्ध दंड का प्रावधान करता है जो इसका व्यवहार करता है और वह दंड भी संसद द्वारा बनाये गये कानून के अनुसार होगा। अतः जब कभी हम अनुच्छेद 17 पर विचार करते हैं तो 1955 के अधिनियम को भी साथ-साथ विश्लेषित करना होगा। अधिनियम का अनुशीलन यह स्पष्ट करता है कि यह बौद्ध, सिक्ख, जैन तीनों धर्मों पर लागू होता है, भले ही वह हिंदू न हो जहाँ तक जाति बहिष्कृत का प्रश्न है, यह सामाजिक संबंधों की बात है और इस आधार पर अस्पृश्यता उन्मूलन का कानून जाति बहिष्कृत के निर्णय पर लागू नहीं होता, परंतु यदि किसी व्यक्ति को जाति बहिष्कृत कर उसे सामाजिक सभाओं में भाग लेने से वंचित कर दिया जाता हो, जिनमें कि उस जाति के लोग भाग ले रहे हों और यह जाति बहिष्कृत अस्पृश्यता के आधार पर की गयी है अथवा उन अधिकारों को रोकने के लिए की गयी है जो अस्पृश्यता समाप्ति के कारण उस व्यक्ति को मिले थे तो यह अपराध माना जाएगा, परंतु अस्पृश्यता परिभाषित न होने से जाति बहिष्कृत के मामले में इस कानून का लागू होना शंकास्पद हो जाता है। यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि यदि अस्पृश्य कही जाने वाली जातियों के विरुद्ध जाति बहिष्कृत लागू नहीं हुआ है तो जाति बहिष्कृत का आदेश अवैध नहीं माना जाएगा।
अनुच्छेद 15 (2) में सार्वजनिक स्थलों का अस्पृश्यता के आधार पर प्रयोग निषेध अपराध माना गया है अतः तालाब, होटल, श्मशान घाट, जलपान गृह, मनोरंजन स्थल इत्यादि में यदि अस्पृश्यता के आधार पर प्रवेश वर्जित किया जाता है तो वह भी कानून की सीमा में आयेगा, और ऐसा करने वाला दंड का भागी होगा।
इस प्रकार स्पष्ट है कि संविधान के अनुच्छेद 17 में यह स्पष्ट कर दिया गया है कि अस्पृश्यता समाप्त की जाती है और इसका किसी भी रूप में आचरण निषिद्ध किया जाता है, यदि कोई व्यक्ति अस्पृश्यता से उपजे किसी निर्योग्यता को लागू करता है तो ऐसा करना संविधान में अपराध माना गया है और विधि के अनुसार दंडनीय माना है। यद्यपि संविधान के भाग तीन का उल्लंघन करने पर न्यायालय राज्य के विरुद्ध कार्यवाही करते हैं, परंतु अनुच्छेद 17 के द्वारा निजी व्यक्तियों को भी मूल अधिकार के उल्लंघन करने का दोषी बतलाया गया है, और उन्हें भी मूल अधिकार के उल्लंघन का दुष्परिणाम भोगना होगा। इस प्रकार स्पष्ट है कि अनुच्छेद 15 (2), 17, 35 (2) के द्वारा भारतीय जनमानस के कलंक ‘अस्पृश्यता‘ को पूर्णतया समाप्त करने का प्रयास किया गया है।
1955 का सिविल अधिकार संरक्षण अधिनियम और 1989 का अत्याचार निवारण अधिनियम भी इस दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। संवैधानिक प्रावधानों के कारण आज हमारे देश से छुआछूत की बीमारी प्रायः समाप्त हो रही है, सभी वर्ग के लोग प्रजातांत्रिक प्रक्रिया में भागीदार बनने का गौरव प्राप्त कर रहे हैं और सामाजिक प्रतिष्ठा का द्वार सबसे लिए खुला हुआ है संविधानोत्तर काल की यह एक बहुत बड़ी उपलब्धि है। संवैधानिक एवं विधिक प्रावधानों के द्वार बहुत हद तक इस कलंक को दूर किया जा सका है। समरसता मूलक समाज की स्थापना में इन प्रावधानों और न्यायालयों के निर्णयों की अहम भूमिका है।
#Short Sources :
- अनुच्छेद १६४ और अनु. ३३८, पांचवी अनुसूची
- देवराजिया बनाम पदमना, ए.आई.आर. १९५८
- राज्य बनाम पूरनचंद्र, ए.आई.आर. १९५८