राज्य की उत्पत्ति के सिद्धान्त
“राजनीतिक चेतना के उदय की परिस्थितियों के विषय में हम इतिहास द्वारा बहुत कम अथवा बिल्कुल नहीं जानते। जहाँ इतिहास असफल हो जाता है वहाँ उस कल्पना का सहारा लेते हैं।” – गिलक्राइस्ट
मनुष्य स्वभावतः ही इस रहस्य को जानने के लिए उत्सुक रहा है कि अमुक घटना ‘कैसे’ और ‘क्यों’ हुई, इसी की खोज में मनुष्य लगा रहा है। अनेक विषयों में एक महत्वपूर्ण विषय राज्य का भी है। राज्य की उत्पत्ति के विषय में इतिहास द्वारा उचित समाधान प्राप्त नहीं हो सकता। जैसा गिलक्राइस्ट ने कहा भी है कि “इतिहास की असफलता पर ही हम कल्पनालोक में विचरण करते हैं।” कल्पना के आधार पर अनेक सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया है। ये सिद्धान्त तर्क के आधार पर राज्य के प्रभुत्व के औचित्य को सिद्ध करने के अपने-अपने तरीके हैं, जिनसे राज्य की उत्पत्ति, राज्य के स्वरूप एवं राज्य और व्यक्ति के बीच सम्बन्धों की जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। इन सिद्धान्तों में अग्रलिखित प्रमुख हैं –
- दैवी उत्पत्ति का सिद्धान्त
- शक्ति सिद्धान्त
- सामाजिक समझौते का सिद्धान्त
- विकासवादी या ऐतिहासिक सिद्धान्त।
# यहाँ हम राज्य की दैवी उत्पत्ति के सिद्धान्त पर विचार करेंगे।
दैवी उत्पत्ति का सिद्धान्त
राज्य की उत्पत्ति से सम्बन्धित सबसे अधिक प्राचीन सिद्धान्त दैवी सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त के अनुसार राज्य का निर्माण मानव ने नहीं किया, अपितु ईश्वर ने किया। राजा जनता पर ईश्वर के प्रतिनिधि के रूप में शासन करता है, क्योंकि राजा ईश्वर का प्रतिनिधि है। उसके कानून, नियम आदि दैवी हैं और राज्य के आदर्शों को प्रत्येक मनुष्य को मानना राजा के आदेश मानना और उसके विरुद्ध विद्रोह करना ईश्वर के प्रति विद्रोह करना है जिसका परिणाम सदैव के लिए नरक (Enternal damation) है। राजा अपने कार्यों के लिए जनता अथवा किसी संस्था के प्रति उत्तरदायी नहीं है, ईश्वर का प्रतिनिधि होने के कारण वह उसी के प्रति उत्तरदायी है। राजा कानून से ऊपर है। उसका प्रत्येक व्यक्ति पर अधिकार है। राजा के विरुद्ध किसी का कोई अधिकार नहीं है।
दैवी उत्पत्ति सिद्धान्त के मौलिक तत्व
दैवी उत्पत्ति सिद्धान्त के उपर्युक्त विवरण के अनुसार राज्य के निम्नलिखित मौलिक तत्व हैं।
(1) राजा अपनी सत्ता ईश्वर से प्राप्त करता है और राजतन्त्र की परम्परा ईश्वर द्वारा निर्मित है।
(2) राजा एक मानव निर्मित संस्था नहीं है, वरन् उसकी उत्पत्ति ईश्वर द्वारा की जाती है। राजा के अधिकार मानव प्रदत्त न होकर ईश्वर प्रदत्त हैं।
(3) वंशक्रमानुगत आधार पर राजपद का अधिकारी पिता के बाद पुत्र होता है।
(4) राजा अपने समस्त कार्यों के लिए जनता के प्रति उत्तरदायी न होकर ईश्वर के प्रति उत्तरदायी होता है। राजा के विरुद्ध विद्रोह करना पाप है।
(5) राजा की शक्ति असीमित है, उसका प्रत्येक मनुष्य पर पूर्ण अधिकार है।
दैवी उत्पत्ति सिद्धान्त के मौलिक तत्व
दैवी उत्पत्ति सिद्धन्ति के उपर्युक्त विवरण के अनुसार राज्य के निम्नलिखित मौलिक तत्व हैं।
(1) राजा अपनी सत्ता ईश्वर से प्राप्त करता है और राजतन्त्र की परम्परा ईश्वर द्वारा निर्मित है।
(2) राजा एक मानव निर्मित संस्था नहीं है, वरन् उसकी उत्पत्ति ईश्वर द्वारा की जाती है। राजा के अधिकार मानव प्रदत्त न होकर ईश्वर प्रदत्त हैं।
(3) वंशक्रमागत आधार पर राजपद का अधिकारी पिता के बाद पुत्र होता है।
(4) राजा अपने समस्त कार्यों के लिए जनता के प्रति उत्तरदायी न होकर ईश्वर के प्रति उत्तरदायी होता है। राजा के विरुद्ध विद्रोह करना पाप है।
(5) राजा की शक्ति असीमित है, उसका प्रत्येक मनुष्य पर पूर्ण अधिकार है।
दैवी उत्पत्ति सिद्धान्त का पतन
मानव इतिहास में यह सिद्धान्त बहुत लम्बे समय तक लोकप्रिय रहा, विशेषकर उस युग में लोग धर्म की संकीर्णता और अन्धविश्वास में जकड़े हुए थे, किन्तु ज्यों-ज्यों ज्ञान उदय होता गया और विज्ञान का विकास होता गया इस सिद्धान्त का महत्व कम होता गया। यहाँ तक कि आज इस सिद्धान्त को मूर्खतापूर्ण माना जाता है। यह धारणा है कि “ईश्वर इस या उस मनुष्य को राजा बनाता है, अनुभव एवं साधारण ज्ञान के सर्वथा प्रतिकूल है।”
प्रोफेसर गिलक्राइस्ट के अनुसार, इस सिद्ध के पतन के निम्नांकित कारण हैं- प्रथम, सामाजिक समझौते के सिद्धान्त ने यह स्पष्ट कर दिया कि राज्य एक मानव निर्मित संस्था है। द्वितीय, वैज्ञानिक प्रगति और विवेक के उदय के कारण अन्धविश्वास पर आधारित इस सिद्धान्त का अन्त हो गया। तृतीय, प्रजातन्त्र की बढ़ती हुई प्रवृत्तियों ने निरंकुश शासन के सिद्धान्त का विरोध किया। चतुर्थ, चर्च और राज्य का पृथक्करण भी दैवी सिद्धान्त के पतन का कारण बना।
दैवी उत्पत्ति सिद्धान्त की आलोचना
इस सिद्धान्त में अनेक दोष हैं, जिनका वर्णन निम्नलिखित प्रकार से किया जा सकता है।
(1) यह सिद्धान्त निरंकुशता का पक्ष मजबूत करता है यह कि राजा जनता के बजाय ईश्वर के प्रति उत्तरदायी है और जनता का उसके ऊपर कोई नियन्त्रण नहीं रहेगा, निरंकुशता को जन्म देता है। इतिहास हमें बताता है कि इस सिद्धान्त का सहारा लेकर राजाओं ने जनता पर विभिन्न अत्याचार किये हैं। जनता के अधिकार कुचले गये और इस प्रकार मानव के स्वतन्त्र विकास में बाधा पड़ी है।
(2) राज्य दैवी संस्था नहीं मानती है राज्य वास्तव में मनुष्य की सामाजिक एवं राजनीतिक प्रवृत्ति का परिणाम है और इसका निर्माण मनुष्य ने अपने हित के लिए किया है जिससे कि प्रत्येक व्यक्ति के व्यक्तिव का सम्पूर्ण विकास हो सके। गिलक्राइस्ट ठीक ही लिखते हैं कि “यह धारणा है कि ईश्वर या उस मनुष्य को राजा बनाता है, अनुभव एवं साधारण ज्ञान के सर्वथा प्रतिकूल है।”
(3) इस सिद्धान्त का कोई ऐतिहासिक आधार नहीं यह सिद्धान्त स्वार्थी राजाओं या उनके चमचों के द्वारा अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए ढोंग मात्र है। इसका कोई ठोस ऐतिहासिक आधार नहीं मिलता कि राज्य ईश्वरकृत है।
(4) प्रजातन्त्र का विरोधी यह जनता को अपने अधिकारों से वंचित करता है। उसके अन्तर्गत जनता का शासन में कोई हाथ नहीं होता, उसका कर्त्तव्य केवल राजा के आदेशों को मानना है। आज के प्रजातान्त्रिक युग में तो यह सिद्धान्त बिल्कुल ही अनुपयुक्त है, जबकि जनता अपने शासक का स्वयं निर्वाचन करती है जैसा कि गिलक्राइस्ट लिखते हैं कि “आधुनिक राष्ट्रपति के लिए जो जनता द्वारा चुना जाता है, इस दावे की स्थापना करना कठिन हो जाता है कि उसे अपने अधिकार दैवी सत्ता से मिले हैं।”
(5) रूढ़िवादिता धारणा— यह सिद्धान्त परिवर्तनशीलता में विश्वास नहीं रखता। यह राजतन्त्र का समर्थन करता है और यथास्थिति को बनाये रखने के पक्ष में है। राज्य को देवी और पवित्र बनाकर यह सिद्धान्त व्यक्ति के व्यक्तित्व और उसकी स्वतन्त्रता पर आघात करता है।
(6) अवैज्ञानिक-विज्ञान ने अब यह सिद्ध कर दिया है कि विश्व में कोई भी चीज सीधे ईश्वर ने नहीं बनायी है, बल्कि उसका विकास हुआ है। दैवी सिद्धान्त तर्क और विवेक की कसौटी पर खरा नहीं उतरता।
(7) सभी धर्मग्रन्थ इसका समर्थन नहीं करते इस सिद्धान्त को केवल कुछ ही धर्म ग्रन्थों का समर्थन प्राप्त है, सबका नहीं। उदाहरण के लिए, बाईबिल का New Testament राज्य को मानवीय संगठन मानता है, दैवी नहीं। ईसा मसीह भी एक स्थान पर कहते हैं, “जो वस्तुएँ सीजर की हैं उन्हें सीजर को सौंप दो और जो ईश्वर की हैं उन्हें ईश्वर को सौंप दो।”
(8) यह सिद्धान्त विशुद्ध रूप से धार्मिक है यह सिद्धान्त राजनीतिक होने की अपेक्षा धार्मिक अधिक है। राजनीति का आधार विवेक है, जबकि धर्म का आधार विश्वास। इस सम्बन्ध में रिचर्ड हूकर (Richard Hooker) लिखते हैं कि “धर्म का सम्बन्ध मनुष्य के विश्वास से होता है। राजनीतिक विषयों में मनुष्य को अपनी विवेक बुद्धि पर निर्भर रहना चाहिए, विश्वास पर नहीं।”
अतः यह स्पष्ट है कि राज्य की उत्पत्ति का दैवी सिद्धान्त राज्य की उत्पत्ति की संतोषजनक व्याख्या नहीं करता है।